Friday, February 26, 2010

खोने का डर :

हर चीज़ पाने वाला शख़्स किसी चीज़ के खो जाने से डरता है। एक-एक चीज़ जुटाकर अपना झोला भरने वाला शख़्स झोली के वज़न पर जीता है। इस झोली का कोई आकार नहीं है और ना ही इसकी कोई गहराई। झोली का दम ही इसके फैलाव में इच्छाएँ बढ़ाता जाता है।

इस झोली के सबसे नज़दीकी साथी कोन है? शख़्स के हाथ। जिनसे नापना और खोलना नियमित चलता जाता है। हाथ जो चुनना जानते हैं, खोदना जानते हैं, बटोरना जानते हैं और बाटँने के स्वाद को पहचानते हैं। समय खोदना और बटोरना के दम से बंधी हुई रहती है झोली।

एक शख़्स जिन्होनें अपने घर के सामने वाले हिस्से को खुद से सकेरा और बनाया वो अपनी बनाई हुई जगह के लिये बहुत सख़्त रहा। मगर कुछ समय के बाद वे सभी सख़्ताई शहर की किसी दौड़ में खो गई। वो काम और रिश्तों की बुनियादी सवाल मे कहीं खो गया। वो जगह और सामने के हिस्से से दूर होता चला गया। लेकिन जब उस जगह को कोई और सकेरने लगा तो वो डर गया मगर क्यों?

ये “क्यों” बहुत बड़ा और गहरा है। हाथ से जगह का नाता - रिश्ता नहीं नाता। ये क्या होता है?
इसमे डर ये नहीं होता कि कोई और उस जगह पर आ गया है बल्कि इसमे डर कुछ होता है।

डर खुद के दोबारा लौटने का,
डर फिर से सकेरने का,
डर उस समय मे दोबारा जाने का,
समय को बनाने का,

डर कुछ जमे हुए को खोदने का और उसके साथ नाता बनाने का जिसमें टकराना और बहस फिर उन रिश्तों के बीच में घूमने का जिसका जीवन मे उतना ही मोल होता है जितना की खुद को वापसी नजर से देखने का होता है। इस डर का क्या मायने है? क्या ये डर होना जरूरी होता है? इस वापसी मे क्या छुपा है? क्या नीचे के पायदान की तरफ जाना है या आगे की कल्पना मे खुद को देखने की लरक समाई होती है?हम इन सारे पहलुओ को अगर अपने जीवन के किन्ही मुख्य सवालों से देखे तो वो हमें कोन सी दिशा पर ले जाती हैं?
ऐसे ही कई सवालों की बौछार लगातार चलती रहती है जिसको रोके बिना चलना कल्पनाओं के उन किनारों को खोज निकालता है जिनमे कई चाहत उभरती हैं।

लख्मी

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