Monday, March 8, 2010

जिसमें अगर बंदिशें होती तो :

बंदिशों का मामला कितना कठोर साबित किया जाता है? हर कोई बंदिशों से भागना चाहता है। कोन है भला जिसे बंदिशे भाती है लेकिन भागने और भाग जाने से पहले जो सवाल पैदा होता है वे भी है कि कोन है जो किसी के लिये किसी भी किस्म की बंदीशे पैदा नहीं करता?

इस सवाल के मायने क्या है या क्या नहीं है ये जानना इतना जरूरी नहीं है बल्कि ये जानना जरूरी हो सकता है कि इसे किस मर्म से पूछा जा रहा है और इसकी पब्लिक कोन है? इसकी पब्लिक असल मे कोई नहीं है, ये सवाल खुद के अंदर को शोर और शांति को खींचता है और उसके साथ बहस करता है।

ये कैसे संभावना मे लाया जा सकता है? जो खुद के बोद्धिक और समाजिक जीवन दोनों के बीच मे हमेशा टकराते और कठोरिय अहसास मे खेलते हैं। इसको जीवन के सवाल और जीवन के जवाब दोनों को जीने की आदत है।

हम हमेशा अपने जीवन के किसी बड़े सवाल को तालशते हैं और जवाब को भूलने जाने के लिये तैयार रहते हैं। वैसे ये जीवन की भूमिका होना बेहद जरूरी होता है। नहीं तो सवालों का बासी हो जाना किसी टाइम से नहीं बंधा होता।

लख्मी

No comments: