Friday, March 26, 2010

झूठ क्या है?

मेरे एक साथी ने मुझसे ये सवाल किया। पहले तो लगा की ये क्या सवाल है? लेकिन उसके बाद में इसे संभावनात्मक रूप से देखने और समझने की कोशिश की तो इसमें किसी खास दायरे को बनाया भी और तोड़ा भी। अगर सब कुछ अनुभव है तो और सब सच है तो झूठ क्या है?

झूठ एक संभावनात्मक रूप से जीता है। जिसके आधार अगर न कहकर भी तलाशा या जिया जाये तो वे फलता - फूलता है। इसके अवशेष कई कथाओं को जीवन देता है। सही मायने में अगर इसके चिंह खोजे जाये तो ये महज इसका रिश्ता कहने और सुनने के साथ होता है। झूठ की अपनी कोई तस्वीर नहीं है ये मानना और माने जाने के साथ बहस करता है। झूठ तब आता है या तब होता जब सच्चाई होना होता है। यानि झूठ को अकेले नहीं समझा जा सकता वे सच्चाई के सामने खड़ा होकर पैदा होता है।

जीवन को जीने के कई कारण, निर्णय और समझोते हैं जिनमें खुद को उसमे ढालने और रमाने का एक खास अहसास जुड़ा होता है। इनको अपने मानने और किसी और समझाने की कल्पना को सोचा जाये तो ये संभावनात्मक बनता है। यहाँ इस अवस्था में हम झूठ और सच को सोचे तो लगता है की जैसे दो पार्टीशन को जीने की बात कर रहे हैं।

सबसे मज़ेदार बात होती है कि झूठ में किसी दूसरे की कल्पना समाई होती है। सच खुद में होता है लेकिन झूठ हमेशा किसी दूसरे का अहसास करवाता है। झूठ अपने से बाहर होता है। अपने अंदर का झूठ भी खुद के अनुभव का सच बनकर बाहर आता है।

इसके अहसास क्या है ?

सच बहुत ठोस होता है लेकिन झूठ तरल और न होने की छवि में बनाया और पिरोया जाता है।
झूठ रूपको से बयाँ किया जाता है।
झूठ में एक समय का अहसास होता है।
झूठ में कभी अकेला नहीं होता वे किसी माहौल, शख़्स या कहानी का पात्र बनकर उभरता है।

अगर इसे बँटवारे मे सोचा जाये तो इसका जीवन दायरों में नहीं तो इसका जीवन एक ऐसे विशाल रूप में है जिसको कैद नहीं किया जा सकता।

लख्मी

No comments: