Friday, April 30, 2010

जीवनी का विवरण

हमारे आसपास क्या है? टेडी-मेडी सपाट सतहें। उनके साथ बने कुछ कोने जो किसी न किसी से जुड़े रहते हैं। ये कोने स्थिर होकर भी स्थिर नहीं होते। किसी याद या ठहरे विचार को हरकत में ले जाते हैं।




ये बहुत दूर भी ले जाते हैं और आँखों के सामने एक जीवनी का विवरण भी कर जाते हैं। हम अपनी याद का कोई महफूज पल, दिन या सफ़र वापस किसी कोने और अवसर के दौरान जी पाते हैं जिसके साथ जीवन के आने वाले कल की सूचना मिल जाती है।




जिसको सुनकर हैरानी नहीं होने चाहिये। क्योंकि जो हो रहा है उसका कारण है। इसके अलावा हम भी किसी वज़ह या बे-वज़ह से जुड़े होने के बाद भी हम कहाँ है ये देखने की कोशिश करते हैं। हम जहाँ हैं हम वहीं हैं और इसके साथ जो हो रहा है वो कसौटी है, सिच्यूवेशन है। जिसमें शरीर किसी उर्जा की तरह काम करता है।





राकेश

हमारे सामने बनी एक रूपरेखा



जो रोज़ मिलता है और मिलकर कहीं खो जाता है। उसे कैसे अपने रूटीन में रखेगें?

हमारी कल्पना हमारे साथ चलती है। बस, जगह बदलने से हम उस कल्पना का पुर्नआभास नहीं कर पाते। कैसे देख सकते हैं उस द्वृश्य को जो हमारे सोचने की वज़ह है? क्या उसका फैलाव है? या हमारे देखने का नज़रिया? जिसके माध्यम से हमारे सामने बनी एक रूपरेखा दिलो-दिमाग पर अदा सी छोड़ जाती है।

वो मिलने की चाहत। वो पाने की लालसा। जो ले आती है हमें कई रफ्तारों के बीच जिसमें हमारी भी इक रफ्तार होती है। पहले हम जगह को समझने के लिये समय को अपने लिये रोक लेते हैं फिर समझ आने के बाद उस रफ्तार में गिर जाते हैं। ये क्या? क्या ये कोई प्रणाली है या जाँच? या फिर कोई प्रयोगनात्मक समझ है।

हर जगह ऐसी होती है?






राकेश

मिटना ही जीवन है



कुछ ही समय के बाद देखने में लगा जैसे वो मिट रहा है। मगर फिर भी उसपर कुछ बनाने का लगातार मन कर रहा था।

राकेश

Sunday, April 25, 2010

100 रू जूर्माना देना पडेगा ।



हम बीयरबार में बैठे थे। गर्मी से राहत पाने के लिये बीयर एक मात्र झुगाड़ था। न्यू गाजियाबाद में देशी बीयरबार है। जहाँ पर ब्राण्ड तो विदेशी है मगर उस अड्डे का रहन-सहन बिलकुल दैहाती है। न्यू गाजियाबाद दिल्ली की सिमाओ से सटा है। इसलिये दिल्ली शहर के पहनावों और अदाओं का यहाँ अभी आग़ाज हो रहा है।

शहर आबादी जैसे कट के यहाँ आ गई हो। वहाँ के माहौल की गुणवत्ता ये थी गाँव जैसा मज़ा वहा बैठने से आ रहा था। पेड़ों के शरारती हवा अन्दर की गर्मी को मात दे रही थी। पसीना पारे की तरह उतरा रहा था। छत में गाडर लगे मरे-मराये पंखे की हालत किसी चूसे हुये आम जैसी हो रही थी। बीयरबार मे दिवारों पर विदेशी शराब और ब्राण्डों का विज्ञापन बडे-बडे पोस्टर के रूप में छपा था। जिसको देखकर जगह में उत्तेजना पैदा होती थी। बाहर से हल्की रोशनी नाइंटीन डिग्री का कोण बना रही थी।


प्लास्टिक के ग्लासों मे बुलबुले छोड़ती ठन्डी बीयर पसीने को उडन छूं कर रही थी। बड़े साधारण कुर्सी-टेबल पर हम कोहनियों को टेककर बाहर की गर्मी को चैन की सासों से दूर कर रहे थे। वक़्त शाम का ही था अभी बार में लोगों का आना शुरू हो रहा था। कांउटर से बीयर लेकर लोग हॉल के अन्दर आकर चौगड़ी मारकर बैठ जाते।

हमारे पास बीयर पीने के अलावा और कुछ नहीं था। गले की तराई जो करनी थी। सौ खाली बीयर ही मजा दे रही थी पर कुछ देर तक उसके बाद तो लगा की खाने को कम से कम नमकिन ही मिल जाये। पसीना अभी सूखा नहीं था। पंखा तो मानो हम पर एहसान कर रहा हो "जनाब अपनी रफ्तार तो तेज करो।" मेरे साथी ने गौर फरमाया।

पास की टेबल पर चार आदमी और बैठे थे। उसकी नाफरमानी बता रही थी की वो टल्ली हो चुके है। तभी तो अपने ही साथी का कॉलर पकड़ के महाशय मर्दानगी दिखा रहे थे। उनके बीच गाली-गलोच भी हो रहा था। इतने में जिसने अपने सामने वाले का कॉलर पकड़ रख था। उसके मोबाइल फोन की घण्टी बजी, उसने फोरन मोबाईल फोन उठाया और एक दम सीधा हो गया।

"जी मैम ओके मैम, येस मैम" कुर्सी छोड़कर उठा। लगा किसी के आगे गिड़-गिड़ा रहा हैं। हमारे आँखो करंट लगा कमाल है अभी उजाड़-गंवार की तरह ये एक-दूसरे से पेशा रहे थे। अब अचानक क्या हुआ? बाहर बहुत गर्मी है। इस लिये इस माहौल की ठंडक ने शरीर में दबा के शूरूर भर दिया था।

हर किसी की जेब को बचाने लायक बीयर ही तो पीनी होती है। उसका शूरूर ही तो मजा देता है फिर चाह वो रंगीनियत और चमक-धमक भरा माहौल हो या फिर सादा वातावर्ण। दो घूंट उतरते ही कोई पॉवर सी सीर चढ जाती है।

गर्म फुंकारों को गले से छोड़ते हुये हम उस जगह को अपना नया अनुभव कह कर बातचीत करने लगे।
"सब कुशल मंगल है।" इस जूमले ने मोके रौनक को बड़ा दिया।

आनंद ने बीयर के घूंट मार कर आह! भरी आवाज निकाली और करते भी क्या घूंट मारने के बाद जब डकार आती तो बाहर छोडने के लिये दाँय-बाँय देखना पड़ रहा था। हमारे चेहरों पर राहत से पहले किसी धूप के मारे इंसान को जैसे पेड़ की छांया मिल जाती है। वैसी हो गई थी।
हम कम बोल रहे थे। बोलने से स्वाद कम महसूस हो रहा था। इस लिये इक-दूजे को तसल्ली भरी निगांहो से देख रहे थे। उनके बार-बार मुस्कुराने के अंदाज से माहौल जैसे किसी नई उर्जा को ला रहा था।

उनकी हंसती हुंई आँखे धीरे-धीरे हम तीनों के भीतर तक जा रही थी। उन्हे रोकना नामूमकिन सा था। आनंद पैरो को हिलाकर कुछ कहने का साहस जुटा रहा था। वो और राजू निगाहों से बातें कर रहे थे। हमारे हाथ बीयर की बोतलों को इधर-उधर घसीट रहे थे। ये क्रिया हमारे मन की व्यथा को प्रकट करने के लिये काफी थी। टेबल पर ग्लास और टेबल के नीचे पैरों का एक-दूजे से भिड़ाना। क्या चल रहा था। काम की थकावट से चूर शरीर बीयर के दो ठन्डे घूट को झिल समझ कर उसमे गोता मार गया। अब कान कुछ सुन नहीं पा रहे थे। आँखों को सब अलग दिख रहा था। मगर होश में है ये जताना भी जरूरी था वरना अगली बार यहाँ का चक्कर भूल जाओ। मन में कई अजीब सी बातें बिरयानी की तरह पक रही थी।

पैग पर पैग और कुछ नई-पुरानी बातें जो हर कोई करता है शायद इस चीज के साथ इसी लिये हर कोई बैठता है।

राकेश

जीवन एक है फिर सब बराबर क्यो नही होता ?

ये तेरा घर ये मेरा घर, किसी की लगे न इसे नज़र। क्या घर को किसी प्रयोग और अभ्यास की जगह बनाया जा सकता है। घर में हम क्यों वो नहीं कर पाते जो बाहर तलाशते हैं। घर क्या है? और हम जहाँ ज़्यादा समय बिताते हैं, वो जगह क्या है?




जीवन एक है फिर सब बराबर क्यों नहीं होता? सब के बीच क्या दूरी है? ये दूरी ये जगह जो अपने किसी संतुलन को बनाये रखने के लिये बनाई जा रही है। इसकी परख क्या होती है?





राकेश...

दिवारें बोलती है ।

कभी चंचल हिरण तो कभी चमकाधडों की तरह उजाले से डर कर किन्ही सतहों से चिपके रहना।



दिवारें भी बोलती हैं। इन्हे भी हमारी तरह बदलाव में जीने की आदत है। दिवारें कभी अपनी जगह नहीं छोड़ती मगर वो किसी का झरोखा बनकर स्वप्न में ले जाती है।





राकेश

Friday, April 23, 2010

उजाला , अंधेरा और सभी वस्तूओ का स्पर्श ।

प्रकाश जहाँ होता है। उसके साथ छाँया भी जन्म लेती है। प्रकाश और छाँया जीवन के दो रूप जिनके अनुसार हम किसी अक्स की कल्पना करते हैं। वो अक्स जो हमारी रोजमर्रा को सुनने वाला, देखने वाला एक अवतार है। जो समय के प्रभाव से दिखता और खो जाता है। कोई उसे उभारने की कोशिश करता है। तो वो खुद भी कभी बाहर आ जाता है।

वो कौन सी आँख है जो इसे बना रही है? वो कौन से हाथ है जो इस अक्स को उठा रहे हैं। हम गढ़ने में है इस अक्स के सफ़र को अपने सफ़र में। कुछ हाथों से छूट ना जाये इस लिये सब बटोरने की इच्छा है।





ये अक्स के बीच में जो हमारा जीवन है वो खुद भी अपना चेहरा बनाना है। जिससे की समय के निरंतर बहती धाराओं में हम कहाँ है ये समझ सकें। चीजें, आवाजें, इंसान, माहौल, ढ़ाचाँ जिसमें किसी के होने और न होने के अहसास को ले सकें। रात और दिन के स्रोत अतिव्यापक समय का प्रभाव जिसमें रंग, चीजें, उजाला, अंधेरा सभी वस्तुओं का स्पर्श जो शरीर को कहीं ले जाता है। कभी सुनकर तो कभी देखने से कभी दोनों के गायब हो जाने के बाद भी वास्तविकता से और काल्पनिकता से। किसी चीज से दूरी और किसी चीज से नजदिकी का फांसला जो बीच को फर्क लाता है। वो किसी को दिखने का नजरिया ही एक आँख है और अपने अलावा दूसरे के नजरिये से भी देखने का तरीका है।





राकेश

Thursday, April 22, 2010

पिरोने और उधेड़ने के साथ

वो चार दोस्त हर रोज़ मिलते हैं कई सारी बातें करते हैं, ऐसा लगता है जैसे वो कभी नहीं थकेगें और न ही कभी उनकी बातें खत्म होगीं। बड़े -बड़े फैसलो मे जब भी उनमें से कोई फँस जाता है तो इतने बड़े और गहरे आइडियें दे डालते हैं कि उनकी जीवन की ये ही सबसे बड़ी बात है अगर इसे ज़िंदगी से बेदखल कर दिया तो न जाने क्या होगा।

लेकिन, सबसे मजे की बात ये है कि यही फैसले जब खुद के ऊपर आते हैं तो कभी ये सब नहीं निकल पाता क्यों?

असल में, वो एक ऐसी जगह से वास्ता रखते हैं जो बिना शर्तों और निजित्ता होने से दूर रही है तो उसमें घुलना और उसी मे घुले रहना उनका अभिव्यक़्ति भी बनाता रहा है और उनका तोड़ भी। जो किसी के अकेले होने और जुदा होने से बैर रखता है।

कल उनके बीच मे एक और साथी आया। उसने कहा वो कहीं पर जाना चाहता है। वहाँ पर जहाँ पर वो किसी और के जीवन के साथ खुद को जोड पाये। किसी और के साथ बहस कर पाये। वे अपने घर और काम के साथ इतना सख्त हो गया है कि उसको हमेशा ये सोचने मे वक़्त लगता रहा है कि वे खुद के साथ क्या जोड पा रहा है या क्या है जिससे दूर जाना चाहता है।

वे बोलता गया और यहाँ पर सभी ऐसे खुश होते गये जैसे आज सबसे महीम तार जिसको छूने से डर जाते थे वे मिल गई। उस तार का डर, गम और खुशी तीनों का एक अनोखा संगम बन रहा था। जिसको जिसनें देखा और महसूस किया वे खुद को खुशनसीब समझने मे कोई कसर नहीं छोड़ रहा था।

लेकिन सभी को जितनी खुशी थी उतना ही कुछ रूकावट भी महसूस होती जा रही थी। कि आखिर मे ये बताना है या पूछना। वो पूछ क्यों रहा है? अगर जाने की इच्छा है तो डर किस चीज़ का? इच्छा और चाहत को अगर कोई चीज़ दूविधा मे डाल देती है वो क्या है?

धीरे - धीरे सभी खमोश होते गये। कोई बस इतना कहता, “अगर चाहत है कुछ पाने की तो पा लो।" तो कोई कहता, “अगर कुछ डर है तो फैसला मत लो।"

लेकिन बात का कोई हल नहीं निकला। बात तो वहीं की वहीं पर रूकी रह जाती। इस माहौल के बीच मे बैठा मैं यही सोचे जा रहा था। किसी चीज के छूट जाने पर हम खुद मे कमी महसूस करते हैं? क्या कुछ छूटना भी जीवन मे आगे की तरफ मे बड़ाता है या पीछे के लिये कुछ गड्ढे खोद जाता है?

यहाँ पर किसी जगह के, साथ के, आदत के छूट जाने का डर नहीं था बल्कि कुछ बीच मे ऐसे तार भी हैं जिसको छोड़ना नहीं चाहते। ये तार पिछले कई सालों की चुभन और ताकत से बने हैं। जिनमे कई यादें, वादें और चाहतें पिरोई गई हैं। उस पिरोने के उधड़ जाने का भय होता है। ये भय खुद का नहीं है और ना ही किसी और के जीवन मे उछल जाने का।

न जाने कितने और फैसले जीवन के इन्ही बिसात पर धरे रह जाते हैं। हम रिश्तों और काम से थोड़ा मुँह जोर बनकर रहे तो कुछ ऐसी अभिव्यक़्ति की तलाश कर पाते हैं जिसको पाना खुद के लिये भी चौंकना बन जाता है। लेकिन क्या हमें पता है हमारे रिश्तों का शरीर क्या है? वो किस वेशभूषा मे है? और काम की तार क्या है? वो किस रफ़्तार मे हैं? इस शरीर और तार को हमें बस, सोचना पड़ता है।

खाली किसी नई जगह, संदर्भ और खेल की मांग जीवन मे नहीं होती वे कुछ पिछला भी चाहता है। जिसमें कुछ पिरोया गया था। जिसे उधेड़ा जा सकता है लेकिन काटा नहीं जा सकता। यहाँ पर भी बातें कुछ ऐसे ही मोड़ पर जा रूकी थीं।

लख्मी

Wednesday, April 21, 2010

सफ़र के चिन्हित रूप














एकान्त में बहुत दूर तक देखा जा सकता है। वो ख्याल जो अपने को किसी कल्पना में ले जाती है उसकी रचना एकान्त में होती है।



















जहाँ पर आकर अपनी यादें फिर से लौट कर आती हैं, समय फिर एक रफ़्तार रोक लेता है ये क्या है?














रात का समय है और सवेरा खड़ा है दहलीज पर, बिखरे हुए अफ़सानों का कोई सफ़र पास है।


राकेश

Saturday, April 17, 2010

रंगो का क्या खेल है?

रात, परछाई और छाया इनके रंग क्या है? क्या रात परछाई से जुदा है? या रात और परछाई के मिलन से छाया बनती है? इनको एक साथ मे सोचना और इनके एक साथ मे चलने को हम किन और शब्दों से सोच पाते हैं?

पिछले दिन कुछ दोस्तों से बात करते हुये ये तीन शब्दों को बहुत नजदीक से देखने और सोचने की कोशिश की। ऐसा नहीं था कि सोचना मेरी खुद की कल्पना से दूर था या ऐसा भी नहीं था की इन शब्दों से ही सोचना और कल्पना मेरी हकीकत और सपनों की दुनिया को एक साथ पिरो रही थी। ये खाली किसी रंग के साथ बहने की कोशिश थी।

परछाई क्या है?

प्रतिबिम्ब, अक्श या फिर कुछ और – इन सभी मे कुछ तलाशने और तराशने की पूरी निपूर्ण कोशिश सभी को अपनी कुछ ऐसी कहानियों के अन्दर ले जा रही थी जिन्हे सुनाना कोई गज़ब अहसास नहीं बनाता हाँ, बस माहौल को बहने का इतना गहरा मौका दे देता है जिससे कई और अन्य ज़िन्दगियों को अपने साथ ले जाया जा सकता है। मगर कहानियाँ सुनाना कोई बड़ा काम नहीं था। यहाँ पर सबके दिमाग था की कैसे इन तीन अलग-अलग स्थितियों और रूपों को एक साथ समझा जा सकें?

परछाई, अपने शरीर के नृत्य से मिलने का एक खास अहसास को बनाती है जिसमें हम हमारे खुद के नृत्य से मिलते हैं और उसके साथ बनाने वाले खुद के नातों हम अपने उस पल भर और क्षणिक अहसासों से भरते जाते हैं। हर परछाई का दूसरा अंग उसके छाया होने को भी जी भरकर जीता है। इसमें किसी दूसरे शख़्स के होने का अहसास होता है। परछाई – इसका जीवन खुद की पहचान को खोकर भी जीवित रखता है। किसी भीड़ मे खड़े इंसान की कोई पहचान जरूर होती है लेकिन परछाइयों की भीड़ मे किसी परछाई की कोई पहचान नहीं होती। वे तो खुद के नृत्य से जानी और सम्भोदित होती है।

पहचान और परिचय से बाहर होकर जीना जहाँ शरीर को फँसाये रखता है वहीं पर परछाई इन दोनों रूटों को तोड़कर कभी भी जी लेती है। जिसमे शरीर खाली एक ऐसे ठोस धातू की भांति बन जाता है जो कभी भी अपने को तोड़ेगा औ कभी भी मोड़ेगा लेकिन परछाई उसको अपने आगोश में लेगी। जिसमें रोशनी का नाता खाली उसके साथ डांस मे साथ देने के अलावा कुछ नहीं रहता।

यहाँ पर रात को भी सोचते समय लगा की किसी बहुत बड़े आकार की ऐसी परछाई है जिसे किसी खास पहचान से जाना और दर्शाया जाता है जिसमें खास जीवन जी उठता है और जीता है।

ये रात और परछाई के अन्दर जीना क्या है? इनको छाया बनने की कोई जरूरत नहीं है लेकिन जरूरत का होना या न होना खाली मतलबी दुनिया का चेहरा ही नहीं दिखाता बल्कि किन्ही ऐसे अन्य जीवनों और सफ़रों को साथ मे खड़ा करना भी होता है जिन्हे साथ मे उड़ने और चलने की कशक हो गई होती है। इनको अपने जीवन मे किस तरह से सोचा जाता है?

अगर हम परछाई मे शरीर, रात में से समय और छाया मे वस्तू को निकाल देते तो इनको समझने के इशारे क्या है?

बात यहाँ से सफ़र की ओर बड़ती है -

लख्मी

Wednesday, April 14, 2010

कोई परछाई हमें देखती है ,सूनती है।

इस मे हम कहाँ है।



कोई है जो हमेशा साथ है और होकर भी अद्विश्य है।



आवाज देती परछाई।



हमें सूनती और देखती है।



साथ रहती है ।



सामने तो कभी पिछे ।



हर वक़्त



किसी जगह में



अपने साथ भी


कभी दिख जाती है और कभी हाथ ही नही आती है।



राकेश