Friday, June 18, 2010

मूलधाराओं से बाहर

मैंने एक लेख पढ़ा अच्छा लगा.
लेकिन उससे एक सवाल ने अपनी जगह बनाइ

मैंने कई ब्लॉग पड़े - जो हिन्दू और समाज को लेकर खुद को शहर रखते हैं। लेकिन हर किसी में शहर का वो अंग बसा होता है जिसे बोलना और न बोलना दोनों ही सूरत में उसको गाड़ा करने के समान ही होता है। मैं मानता हूँ उन सभी ब्लॉग में दुनिया भर के शब्द हैं। जो अपनी गाथा खुद कहते हैं बल्कि जो उन्हें लिख रहा है उस लिखने वाले के जीवन की भी झलकियाँ दे डालते हैं.जीवन इसे ही चलता है और साथ ही साथ बनता भी जाता है.

खैर, ये तो बात बहुत आसान है कहने के लिए.

पढते समय दिमाग में उछला की क्या हम हिन्दुस्तानी जब खुद को कहते हुए कुछ रचने की कोशिश करते है तो वही दुनिया क्यों बयाँ कर जाते है जो दिखती है या छुपी होती है? जो छुपा है उसे दिखना, जो खोता जा रहा हे उसे याद दिलाना, जो मिट रहा है उसे गाड़ा करना या हो छुट रहा है उसे पकड़ना इसके अलावा क्या है? या क्या हो सकता है? इन सभी ब्लॉग में पाया देश को लिखना, देश को बताना, हालत को लिखना और हालत को बताना. खुद को कभी दूर रखकर तो कभी खुद को शिकार बनाकर लिखना. इसमें भाव इतने नाज़ुक बनते जाते है जिन्हें तोडा या छेड़ा नहीं जा सकता है. क्योंकि ये उस जीवन की दास्ताँ बनती जाती है जिसके अंदर घुसने से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है उसके बदलाव का इन्तजार करना. ऐसा लगा जैसे इन सबके बीच में उन कल्पनाओ की जगह कहाँ गायब हो जाती है जो हर शख्स खुद में लिए जीता है. खाली अपने लिए ही नहीं बल्कि अपने रिश्तों और संधर्बो के लिए भी उसकी कल्पनाओ का एहसास छुपा होता है.

मैं पिछले दिनों कई लोगों से मिला, हर कोई अपनी जीवन की घटनाओ और जगह के रूपों को बताने के लिए तेयार था. लेकिन जब उनके हालत को पूछने की कोशिश करता तो वो हंस कर टाल देते. पहले तो मैं सोचता रहा की ये एसा क्यों कर रहे हैं. फिर जब इस धुन को लिखने की कोशिश की तो लगा की लोग अपने को उड़न में देखना चाहते है और दिखाना चाहते है तो उनके गुजरे वक्त और हालत को बताने से ज्यादा मायने रखता है उनकी कल्पनाओ की रचना करना.

सोचता हूँ इन बातों को : -
जगह पर लिखना, जगह में लिखना और जगह को लिखना:- इन बहुत दूरी का एहसास होता है.हम तीनो को मिला देते है।
वैसे ही किसी हालत को लिखना, हालत में लिखना और हालत पर लिखना इनमे भी दूरी का खास एहसास है।
किसी किरदार को लिखना, किसी किरदार में लिखना और किसी किरदार पर लिखना:- इसमें में.

हम कैसे लिख रहे हैं? कहाँ से लिख रहे हैं? कबसे लिख रहे हैं?
एक पल और अनेको पल मिलकर क्या बनाते हैं? इस दूरी को समझने की कोशिश होगी.

दुनिया बहुत गहरी है, जितना डूबना चाहे डूबा जा सकता है. बनी हुई मूल्धाराओं से बाहर कैसे जाया जाये? ये मूल्धाराओं में जीने की वो कोशिश है जिसे नज़रंदाज़ करना खुद के साथ बहसी बनने के समान होगा.
क्या खुद के साथ बहसी बना सकता है?

लख्मी

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