Tuesday, July 6, 2010

The Last Layer

बहुत इट्रस्टिंग है, दुनिया जिसे पाना या सुनने के लिये अकेला छोड़ा गया है असल में वे किन्ही ऐसी दुनियाएँ अपने साथ लिये जी रही हैं जिसका कोई अंग ही नहीं है फिर भी वे साथ रहने का अहसास देती है।

सुनना और कहना - इसके बीच में हमेशा एक द्वंध रहता है -
उन शब्दों और जीवन के पलों को एक साथ कहीं किसी दिशा मे ले जाकर सोचना बेहद मुश्किल हालात की व्याख़्या करने लगते हैं और जीवन की ओझल और नज़र आती आकृतियों के लिये मुनासिब नहीं होता।

विस्तार खाली यही नहीं है कि अपनी मुलाकात के कुछ हाथ मे पकड़ बनाने वाले अवशेषों से दुनिया को रचा जाये। एक मुलाकात याद आई – पिछले दिनों मैं पोढ़ी गड़वाल गया। वहाँ पर फरीदाबाद से आये हुये एक शख़्स से मुलाकात हुई। वे फरीदाबाद में मजदूर अखबार बनाते हैं। उनका नाम – शेर सिंह है। वे उम्र मे काफी सीमाये पा चुकें हैं। उन्होनें एक अखबार मुझे दिया और पढ़ने को कहा। उनके साथ बातचीत के दौरान वो अखबार मुद्दा नहीं था बल्कि वो नज़रिया या वो गेप था जो शहर के साथ मिलने और जूझने के लिये बनाया गया था।

शहर काफी था लेकिन वही शहर था जो बनाया और देखा जा रहा था। कुछ समय के बाद में लगा की जैसे उल्लास का होना जीवन में खाली फिल्म के बीच मे आने वाली उन मसूरी यानि एडवोटाज़िंग की तरह है जो शायद कुछ पल में चल जायेगी, जिसका टाइम फिक्स है और जो हर आधे घण्टे के बाद में आयेगी।

उनका अखबार पढ़ते समय कुछ सवाल दिमाग में घूमें तो खाना खाते समय बातचीत करने की इच्छा हुई।

मैं इन सवालों को सोच रहा था -
एक चेप्टर में कई जुबानें होने से क्या दुनिया बड़ी होती है या गहरी?
जुबानों को कोई जीवन ले रहा है या कोई कान? जुबानों को सुन कोन रहा है?


वे अपने अखबार को बोलते समय जो छोड़ रहे थे वे अखबार ही था। जो सुना रहे थे वे था वो जीवन जो अखबार से पहले का दर्शन था। लोग अपनी इच्छाओं से कुछ पैदा करते हैं जो उनके बड़ी मश्क्कत के बाद मे और मेहनत के बाद मे मिलने की एक राह दिखाई देती है लेकिन ये दिशा जब धीरे - धीरे मिटने या गायब होने लगती है तो वे सारी इच्छायें जाती कहाँ है?

डार्क दुनिया और गाढ़ी दुनिया : - इन दोनों के बीच में क्या फर्क है? इसका बीच का दृश्य क्या है?

जब वो बातचीत मे थे तो लगा जैसे जो सुना रहा है वे उस दुनिया का पात्र है जो अपनी सारी उलझनों को गाढ़ा करके दिखा पाने की क्षमता रखता है और उस क्षमता का विस्तार सुनने वाले के जीवन मे उस समानता की जिक्र करता है जो हर अवशेष मे, सफ़र मे और बैठकर मे बराबर है। वे नीजि होने से बाहर है। एक बेहद इन्ट्रस्टिगं बात लगी।

उन्होने कहा, “हम लिखते क्यों हैं?, अगर हम कहे की लिखना 99 प्रतिशत गुमराह करने के लिये होता है तो आप क्या कहेगें?"

मैं सोच रहा था इस बात से की, जब चीज़ें अपनी चरमसीमा पर होती है, अपने बहकने और अपने बनने पर होती है तब लिखना अपनी दुनिया किसी के बोलों और अपने मौजूदा शब्दों की रखवाली करने के लिये नहीं होता। वे रचना के उस शिखर पर होता है जिसको आज से पहले और अब से पहले उसे किसी ने नहीं चखा हो।

उनके जीवन की दिशा मे लेखन गुमराह करना इस सोच से नहीं था कि लोग जो लिख रहे हैं वे रोजगार में चला जाता है। यानि लेखन अगर रोज़गार है। वे अगर स्कील ( हूनर ) है तो ठीक है लेकिन अगर वो हूनर है फिर लिखने वाला किसी और की ज़िन्दगी को क्यों लिख रहा है अपनी से बाहर क्यों है?

ये बहस एक पोइंट पर ठीक लगती है लेकिन एक वक़्त के बाद मे लगता है जैसे जीवन को अपने खुद के चश्मे से देखने के समान है।

वे फरीदाबाद मे एक संदर्भ बनाये है जहाँ पर लोग आते हैं। वे लोग जो किसी न किसी रह के काम से जुड़े हैं जैसे फैक्टरी मे काम, हुनरमंदिदा काम वगेरह। वे वहाँ पर आकर बैठते हैं और बातें करते है। कोई कुछ लिखता नहीं है। अगर कोई किसी चीज के बारे मे सुनाना चाहता है तो सुना देता है। उसी को वे शब्दों मे ढालकर अखबार मे डाल देते हैं।

एक इंट्रस्टिंग बात – जो सुनाने मे आ जाता है या जो सुनाने मे नहीं आता खाली वही जीवन क्यों होता है? जो चाहते और कल्पनायें हैं वे कहाँ है? वे सारी जाती कहाँ हैं? एक वक़्त मे कहानियाँ जो सुनाई नहीं गई वे कहाँ चली गई का सवाल छोटा लगने लगता है लेकिन जो कल्पनाये और चाहते बोलों मे नहीं आई वे कहाँ चली गई? ये सवाल बहुत गहरा होने लगता है।

इस जीवन की धारा मे उल्लास पैदा करना होता है या उल्लास होता है उसे परखना होता है? अपने लिये परखना और अपने से बाहर परखना क्या होता है?

मेरे दोस्त लव ने उनसे एक सवाल किया, “ये अखबार कौन लिखता है?

तब उन्होने कहा, “इसे हम नहीं लिखते ये लोगों की जुबान है।"

एक ही पल मे ऐसा लगा जैसे किसी चीज़ से तुरंत ही दूर हो गये। कभी - कभी लगता है जैसे बोलना अपनी जिन्दगी में संदर्भ से बदल जाता है। वो बोल कहाँ पर रहा है? का अहसास भारी होता है। वो आपके संदर्भ मे कुछ सुनाने के लिये आया है तो क्यों? क्या उसे संदर्भ का पता है?, वे क्या सुनता है?, उसके कान कैसे है? इसका भार होता है।

एक अलग सोच : -

अंधेरा क्या होता है? क्या अंधेरा भारी होता है? क्या अंधेरा ठोस होता है? मुझे लगता है अंधेरा गहरा होता है लेकिन वो ठोस नहीं होता। अंधेरा तरल होता है। वे बहता नहीं है लेकिन उड़ता है। वे जमता नहीं है लेकिन रुकता है।

वे किसी को छुपा सकता है लेकिन किसी गायब नहीं कर सकता। वे कुछ दिखने से रोक सकता है लेकिन मिटा नहीं सकता। रीडिंग मे भी जो "कहाँ" का सवाल उत्पन्न होता है वे गहरा है लेकिन गाढ़ा नहीं है। यानि वे किसी खास दिशा मे है जिसका बाहर आना वाज़िब है लेकिन तय नहीं है। लोग जो कह रहे है, नियमित कह रहे हैं जो शायद उन्होनें जिया है लेकिन उसमे इतनी और संभावनाये हैं कि वे अनेकों उन कहानियों को भी सफ़र का हिस्सेदार बना सकते हैं जिनका होना तय नहीं था। यानि इस सफ़र मे समय का कोई गाढ़ापन नहीं होता। वे बहाव मे होता है।


पिछले दिनों रात और दिन को लेकर जब सोच रहा था तो लोगों की जुबान का अंदाजा हुआ। वे जुबान जो बदलती है, तब्दील होती है और गाढ़ी होती है। लेकिन निजी अवस्था से बाहर होने का अहसास करवाती है जिसमे पक्ष और विपक्ष का कोई बहाव नहीं होता। ये बिलकुल उन दोनों बहनो की दुनिया को समझने के समान है मेरे लिये जो कई जुबाने लिये जी रही हैं। वे समय का जमाव नहीं है बल्कि समय के बहाव का किनारा है। जो अनेकों आखिरी चीज़ों का अहसास करके जीने का स्वाद बनाती हैं। किसी जगह के उन अवशेषों की तरह जो कहने को लास्ट लेयर हैं लेकिन अपने साथ दुनिया को बदलने और नया आकार देने की तमन्ना रखते हैं।

सोचने को कुछ मिला -
लख्मी

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