Tuesday, August 31, 2010

जो सबसे नजदीक रहती है

आर.टी.वी बस में कोने की सीट
पार्क में कोई तनहा बेंच
खाली बस स्टेंड का इशारा
बाइक के पीछे की सीट
स्ट्रीट लेम्प के नीचे का कोना
छत की तन्हाई में सुनी बालकनी
गली का सबसे कोने का मकान
सबसे पीछे वाला चबूतरा
चौराहे पर खड़ा स्कूटर
किसी स्कूल की मुंडेरी
बारात घर की छत
बन्द घर की बाहर निकलती सीढ़ियाँ
बनते हुए मकान की बेकार पड़ी इंटे
फैंकी गई कुर्सियाँ
टेंट वाले के सुखते कारपेट
मिट्टी के भरे पड़े बोरे
रेट के चिट्ठे
भूली पड़ी खाट
बन्द हो रहे बाजार के तख्त
सड़क किनारे खड़े रिक्शे
खाली दुकान के बेंच
नाई के शीशे
प्याऊ की टंकियाँ
मन्दिर की सीढ़ियाँ
बूड मार्किट की लकड़ियाँ
चलान मे पकड़ी गई बसें
जले हुए बर्तन
शमशान की कब्र
पेड़ों पर बनी मचान
सर्कस की सबसे पीछे वाली कनात
मेले के झूले
किसी सरकारी आफिस की रेलिंग
बैंक के बाहर लगी सीटें
बस स्टेंड का कोना
जागरणों मे बिछे टाट
पार्क फिल्मों के पड़े बोरे
आफिस की लाइब्रेरी की कोई भी कुर्सी


किसी के पास है कोई - किसी की तलाश मे है कोई

लख्मी -

Friday, August 27, 2010

चीजो को उसीं तरह रेहने देना



सदा हम चीजों के आस-पास होते हैं। कैसें कहाँ ,क्यों इस सें हम अन्जान होतें हैं।
एक जगह की कल्पना मे हम किसी तरह तो हैं।


राकेश

Sunday, August 22, 2010

मस्तकलंदर

समय ,11:40 pm
दैनिक सूपर हिरों ,जिन्दगी भी हमें कुछ न कुछ जरूर देती है ।
हम खूद भी अपने लियें कारवां चूनते है। मस्तकलंदर की तरह ।





राकेश

Friday, August 20, 2010

अपनी दुनिया

कभी-कभी सब अजीब सा लगता खुशी और ग़म साथ चलने वाले दो साएँ की तरह होते हैं। जो न हाथ में आते हैं और न ही हमें छोड़ते हैं। हालातों के टकरावों में सोया हुए तूफान को छेड़ देते हैं। जिसके कारण दर्द असानिये हो जाता है। दर्द का पता भी तब चलता है। जब झुँझलाकर अपनी वास्तविक इच्छाओं को मार दें।

ये कैसी मौत हैं? जिसमें आँखों से पट्टी बांधकर किसी ज्वालामूखी में उतरने की कोशीश कि जा रही है। चारों तरफ भागकर और सब के बीच रहकर भी कोई अकेला नहीं होता। क्या चाहिये, कहाँ जाना है? हम इस सवाल को भूलकर अपनी दूनिया में मस्त होकर जीवन को जीते जाते हैं। वो जीवन जो नित-नये रूपों में दिखाता है। वो जो किसी आँख के दोष या छलावे पर निर्भर करता है।

नीला दूपट्टा, सूखमय अहसास, आराम की नींद, हासिल करना। उसे पाना जो खोया है। ये किस तरह का जीवन है? क्या सब किसी छल का चक्कर हैं? समाज में जीवन का नियम है उस से कोई बचा है या किसी ने इस समाज में आने के लिये अपने नियम बनाये हैं। अगर वो निजी है तो वो समाज में कैसे खुद को जमा सकते हैं। समाज तो बना ही विभिन्न नियम और आजादियों को लेकर। जो सब के लिये कुशल हो लाभप्रद हो। उस समाज के नियमों का गठन ही तो एक मात्र जीवन का घेरा है जिसमें खुद को किसी पर किसी मे जाहिर करने की प्रक्रिया जारी रहती है। जहाँ से हम अपने स्वप्न दर्शनों को किसी के ऊपर उडेल देते हैं। वो अपना हो जाता है या हम उसके हो जाते हैं। यही जिन्दगी का मेल है।

राकेश

मन चंगा तो कटौती मे गंगा

इससे पहले की मैं कुछ कर पाता उसने मेरी बोलती बन्द कर दी, खामोश!

चारो तरफ नाचने वाली मक्खियाँ हैवानियत पर उतर आई, जैसे उनकी शान्ती किसी ने भंग करदी हो।

पीटर माना नहीं, वे अपनी जेब से रुपिये निकालता और ऊँची आवाज़ में कहता, "देख मेरे पास माल कितना है। तू कटपुतली की भांति जीता है, अपुन का ज़िंदगी एक दम झकास है।"

वे अपने आत्मविश्वास की नींव दिखा रहा। उसकी वास्तविकता जो मुझे अस्विकार कर रह थी।अभी उसका आत्मविश्वास चुनौती की कग़ार पर उतरना बाकी था। उसकी पागलों वाली हंसी को देखकर चंद कदमों की दूरी पर तैनात पुलिसकर्मी हमारे नज़दिक आ गए। कुछ ठिठ्की हुई बोली मे उन्होनें हमें लपेटना चाहा। ज़्यादा कुछ नहीं था हमारे पास। पर्स और जेब उन्होने टटोली और सिर से पांव तक तलाशी भी ले ली। पीटर तो सुन्न हो गया। कमाल है बेवजह इतनी बेदर्दी से इन्होने हमारी तलाशी ले ली। इन्हे इस बेदर्दी का जरा भी अहसास नहीं मालूम होता।

दो तीन बार पीटर ने उन्हे पलट-पलट कर देखा। वो अपनी ड्यूटी कर रहे थे या मश्खरी पता नहीं चला। जब वो यहाँ-वहाँ हाथ लगा रहे थे तो गूदगूदी हो रही थी। वो कदमों की ठप-ठप खींचातानी से बना शौर-गूल पास से रगड़ कर चली जाता कोई जो किसी वक़्त को धूंआ सा बना जाता। वे अभिव्यक़्तियाँ यहाँ किसी गली की दिवार पर साया बनकर चिपकी हुई थी।

सेवाराम अपने पान के खोके का पल्ला लगा रहा था उसने कुछ सामान अपने साथ झोले में रखा। उसके खोके के दोनों तरफ पान के लाल रंग की छीटें पड़ी थी।

"अरे ओ सेवाराम के बच्चे जल्दी कर नहीं तो तेरा लाईसेन्स कैंसल करवा दूंगा फिर लगता फिरयों दफ्तरों के चक्करों में"
"हाँ-हाँ साहब करता हूँ। डरा क्यों रहे हो।" पीटर अपनी बात पर अड़ा था। उसने तुरन्त धूंऐ कि तरफ मेरा मुँह किया मेरी ओर देखा। उस रात हम दोनों किसी काम से बाहर आये थे रास्ते में देर होने के कारण हमें घर पहुँचने का कोई ऐसा रास्ता चुनना था जिसमें हमें कोई डर न हो न ही कोई पुलिस वाला मिले। जिसका हमे अंदेशा था वही हुआ सड़कों से बचकर हम इसलिये आये की कोई पुलिस वाला न मिले पर पुलिस वाले बाजार की इस गली में भी अपनी धूनी रमा कर बैठे थे।

ये बाज़ार हमारे लिये कोई नई जगह नहीं थी यहाँ से हम पहले भी गूजरें हैं पर इस वक़्त का अनूभव नया और पैचीदा था। रात के गहरे घने अंधेरे में जैसे कोई देत्य आसमां से उतर आया हो। बुझी लाल टेन और बिजली के बल्बों के घेरे जिनपर स्लेटी और मटमेला रंग धूल की तरह पढ़ा था जैसे कोई खण्ड़रों की तस्वीर सामने आ गई हो। चट्टानों कैसा एक बड़ा सा हवा का गोला हमारे पास घूमता हुआ आ रहा था। कोई सुलघती आग ओस को खा रही थी या ओस उस आग में से चटकते शोलों खा रही थी। पता नही, कौन किस को खा रहा था।

हमारे पांव जमीन से उखड़ रहे थे। जैसे वो देत्य रूपी आग तेज हुई। उससे उत्पन्न रोशनी ने सामने की तस्वीर हमे साफ दिखा दी।

पीटर बोला, "अबे डरपोक वो तो कोई बूढी औरत है जो अंगीठी में आग जला कर बैठे हैं।" कुछ भी हो उसका चेहरा तमतमा रहा था।
"मुझपर हंसने से पहले अपनी तरफ देख तेरे माथे पर पसीनों की झड़ी लगी है।" दोनों एक-दूसरे की ओर हैरानी से देखने लगे। उनके साथ कुदरत क्या करने वाली थी इस बात की उन्हे जरा भी भनक नहीं थी। उस जगह जहां आग के पीले, केसरी धूआँ बन कर फैलते छल्ले दिख रहे थे। उसकी ओठ में दिवार पर किसी की परछाई बनी नज़र आ रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहता था की कोई है वहाँ। किसी का वजूद उस अंधेरी रात में दखिल हो रहा था। हमारे पीछे से आता वो हवलदार सहानुभूती दिखाता हुआ बोला, "कोई प्रोबलेम है क्या?”

कितना आसान सवाल था पर सुनने में हकिकत में ये उतना ही दुर्लब था जितना हम सोच भी नहीं सकते थे। आसान सवाल क्या होते? क्या कोई सवाल आसान होता है? आखिर इस जद्दोजहद से क्या हासिल होने वालामन चंगा तो कटौती मे गंगा था। हवालदार बस इतना पूछकर चला गया। "चलो यहाँ से निकलों" फिर कोई सवाल वो हवलदार करेगा। वक़्त के सात इस जगह में शौरगुल ठहाके और आवाज़े हल्की पड़ गयी थी। परिस्थितियों खुर्दे-सपाट रास्ते खूद भी सो गये थे। मगर मेरा अहसास जागा था। वो इच्छाएँ जो कभी मरती नहीं वो मन में करवटें बदल रही थी। जिन्हे अभी बहुत ऊँचा उड़ना है। स्वर्ग और नर्क के बीच में फसीं इस जिन्दगीं कल्पना देनी है। कितना हैरान किया है इस जीवन की समझ ने मुझे। कुछ हासिल नहीं होता बस कुछ क्षणों की तसल्ली मिलती है फिर बाद में वही दर्द जिसमें जीने की आदत है। वो भला कैसे बदल सकती है। पुरानी आदत कैसे छूट सकती है और नई आदतों को कैसे अपना जाये। कोशिश करो, कोशिश करो। किये जाओ। । वो सम्भव और असम्भव के बीच मेरा प्रवेश अजीब था।

राकेश

Wednesday, August 4, 2010

दूर के सुहावने ढोल

खुश रहने के लिये आखिर करना क्या पड़ता है? क्या खुद को भुला देना ही खुशी है? या खुद को हमेशा याद मे रखना ही खुशी के समान है? मेरे दोस्त अक्सर इस बात से बहस करने के लिये हर दम खुद को आज़माते रहते हैं। लेकिन इसका हल उतना ही नाज़ुक और महीम होता है जैसे तेज़ पानी की धार मे कई बुलबुले जन्म लेते हैं और खत्म होते जाते हैं। इस जीवन की गुणवत्ता को खुशी के अहम झरोखो से होकर देखने की लालसा खुशी का पर्दा कहलाती है।

ये बात कोई खुशी की परिभाषा नहीं है और न ही उसकी कोई चादर। ये तो वो अहसास है जो जीने मे कभी कटूरता ले आते हैं तो कभी सम्पर्ण की बात कहते हैं मगर हाँ, इस बात में कई अनंत जीवन के रूप शामिल होगें।

शहरी चेहरों पर गुदी कई ऐसी व्याख्याएँ अपनी छाप छोड़ती जाती हैं जैसे जो शायद किसी एक ही जुबान से निकलने के बाद में अनेकों जीवन के आधार की अभिलाषी हो। ये होना कोई जादूई खेल नही हैं बल्कि ये उस दमखम से खुद को पैश करना और करते जाना है जिसको कोई कभी न कभी अपना ही लेगा ये रिद्धम इसी दौर में जीती है। जैसे - इसका जीवन फिल्म के उन डायलॉग की तरह होता है जो फिल्म मे किसी मतलब के नहीं होते हैं लेकिन फिर भी किसी के जीवन में किसी पीटे वक़्त को दोहराने के लिये जुबानों पर आ ही जाते हैं।

जीवन के अनेकों अहसासों मे सबसे ज्यादा दूरी किस अहसास से हो जाती है और किसको हमेशा पाने की रेस में रखा जाता है? लेकिन, इससे भी ज्यादा जरूरी ये बात दिमाग मे अपनी निगेबाँह छोड़ती है कि क्या हम हर वक़्त उसी चीज़ की या अहसास की तलाश मे रहते हैं जिसके स्वाद को हमने सिर्फ छुआ या महसूस किया है? क्या हम हर स्वाद को पाने की लालसा पाल सकते हैं? क्या हमारा अपना कोई स्वाद बनता है उसकी परख क्या है?

ये अपने को समझने की बात नहीं है बल्कि उस रफ़्तार को छेड़ने की कोशिश है जिसको हम रेस कहते हैं और सारी तलाशों को उसके मोड़ बनाकर जीते हैं। खेर, ये मोड़ क्या कहते हैं और कहाँ पर ले जाकर छोड़ देते हैं इसका खामियाज़ा किसी के कब्जें मे नहीं है। ये तो अपने मनमुखी द्वार से बनते हैं और अपने साथ किसी वक़्त की गहरी छाप को ले जाते हैं।
सवाल अब भी वहीं पर जमा रहता है - खुश रहना क्या है?

खुश रहना उस उल्लास की तरह क्यों है जो महज़ किसी अवसर का अभिलाषी है? खुश रहना उस भेंट की भांति क्यों है जो किसी और से मिलती है? खुश रहना उस विज्ञापन की तरह क्यों है जो तीन घण्टे के बीच मे आती है? खुश रहना क्यों चाहता है कोई?

इस बात के कई जवाब होगें लेकिन खुश रहने की चाहत बनाना यानि किसी ऐसे स्वाद की तरह बढ़ना जो मन पसंद है।

मेरी एक दोस्त मिली उसका एक बात का जवाब सुनकर मैं दंग रह गया - जो बहुत सरल था। जिसमे कोई बनावट नहीं दिखी मुझे। उसी से ये समझ मे आया की जीवन की नीति क्या है?

उससे मैंने पूछा, “तुम डरावनी फिल्में ही क्यों पसंद करती हो?”
वो बोली, “क्योंकि मुझे बहुत डर लगता है।"

ये एक लाइन मुझे बहुत सरल बना गई। मेरा एक साथी जिसे लिखने का बहुत शौक है। उससे एक बार सवाल किया मैनें, “तुम अगर बहुत मेहनत करके, रात भर जागकर कोई लेख लिखो तो किस गुट मे उसे पढ़ना चाहोगें?”

उसने मुझसे कहा, “उसमें जो लेख को कहानी की भांति सुनता है। जो खुद नहीं लिखता।"

इन दोनों जवाबों में दोबारा "क्यों" कहने का सवाल ही पैदा नहीं हो पाया। ऐसा लगा की जीवन साथी, संगत और आसपास को एक बार फिर से सोचने की पैदाइश हो रही है। ये वो आसपास नहीं है जो पसंद और न पसंद से बना है बल्कि ये वो है जो बहस से जन्मा है।

खुशी होना और खुश होना - इसी रिद्धम के बीच की धरा है जिसमें शख्सियत और जीवन का खेल है। कौन कहाँ पर रूक जायेगा?

लख्मी

मांजना लगा रहता है

जब भी घर में मेहमान आते।
पुराने बर्तन मांजकर उन्हे परोस दिये जाते॥
मैं हर रोज़ पूछता घर में - नये क्यों नहीं निकालते इस वक़्त में?
तो मांजने को सभी जीवन कह जाते॥

हर रोज़ मेरी माँ मांजने में लगी रहती
जब तक चेहरा नहीं दिख जाता, उसे घिसती रहती।

मैंने एक बार पूछा उनसे "तुम बर्तन को कहाँ तक मांजती हो?
पुराने दिन को मिटाती हो या कोई नयी परत चढ़ाती हो?"
वो हँसकर अक्सर बोलती "न पुराने को मिटाती हूँ, न नयी परत चढ़ाती हूँ
मैं तो बस बर्तन को ताज़ा बनाती हूँ॥"

एक दिन मेरी माँ ने ही मुझसे पूछा, "तू जब अपने दोस्तों से मिलता है तो हाथ क्यों मिलाता है?
पुराने दिन की याद दिलाता है या कुछ नया रंग चढ़ाता है?"

सवाल बहुत आसान था और जवाब भी बिलकुल साफ था
न कुछ याद दिलाना था इसमें और नया रंग चढ़ाना था
किसी अहसास को छुअन से ताज़ा बनाना था

हर तरफ हाथ मिलाना रिश्ते को गाढ़ा करने के जैसा महसूस नहीं हो रहा था
ऐसा लगता जैसे - समाजिक का अंत और बौद्धिक को जिन्दा करना लग रहा था।

लख्मी