झूठ क्या है? कितना आसान और सुलझा हुआ सा सवाल है? इसी में जुड़ा है निर्जीव क्या है? बौद्धिक रूप से देखा जाये तो कुछ भी झूठ और निर्जीव नहीं होता। हम एलीमेंटस को निर्जीवता से आंकते हैं और सुनने - समझने को झूठ का जवाब। लेकिन, अगर सब कुछ अनुभव हैं तो और सबका अनुभव सबका अपना सच होता है तो फिर झूठ क्या है?
झूठ एक संभावनात्मक रूप से जीता है। जिसके आधार अगर न कहकर भी तलाशा या जिया जाये तो वे फलता - फूलता है। इसके अवशेष कई कथाओं को जीवन देता है। सही मायने मे अगर इसके चिंह खोजें जाये। ये महज इसका रिश्ता कहने और सुनने के साथ होता है। झूठ की अपनी कोई तस्वीर नहीं है। ये मानना और माने जाने के साथ बहस करता है। झूठ तब आता है या तब होता जब सच्चाई होना होता है। यानि झूठ को अकेले नहीं समझा जा सकता वे सच्चाई के सामने खड़ा होकर पैदा होता है।
जीवन को जीने के कई कारण, निर्णय और समझोते हैं जिनमें खुद को उसमे ढालने और रमाने का एक खास अहसास जुड़ा होता है। इनको अपने मानने और किसी और समझाने की कल्पना को सोचा जाये तो ये संभावनात्मक बनता है। यहाँ इस अवस्था में हम झूठ और सच को सोचे तो लगता है की जैसे दो पार्टीशन को जीने की बात कर रहे हैं।
सबसे मजेदार बात होती है कि झूठ मे किसी दूसरे की कल्पना समाई होती है। सच खुद में होता है लेकिन झूठ हमेशा किसी दूसरे का अहसास करवाता है। झूठ अपने से बाहर होता है। अपने अंदर का झूठ भी खुद के अनुभव का सच बनकर बाहर आता है।
इसके अहसास क्या है ?
सच बहुत ठोस होता है लेकिन झूठ तरल और न होने की छवि में बनाया और पिरोया जाता है
झूठ रूपकों से बयाँ किया जाता हैं
झूठ में एक समय का अहसास होता है
झूठ में कभी अकेला नहीं होता वे किसी माहौल, शख़्स या कहानी का पात्र बनकर उभरता है
कैसे ये अहसास होता है कि ये जगह किसकी है? इसमें बँटवारा ये हो सकता है कि "हमारी - तुम्हारी" या फिर इसको सोचा जाये की "सबकी"। इसको कैसे चिन्हित किया जाये?
ये एकदम अधूरा और कटा हुआ है। समझ लें की जीवन के अक्श अभी किसी 'पज़ल गेम' की तरह से टूकड़े होकर बिखरे पड़े हैं। ये टूकड़े मरने के समान नहीं होते बल्कि इनको जोड़ा जा सकता है। दोबारा से बनाया जा सकता है।
लख्मी
Tuesday, September 28, 2010
Monday, September 20, 2010
हवादार दर
कोई जा रहा है।
कोई मगन है।
कोई टहल रहा है।
कोई खो रहा है।
को झूम रहा है।
कोई झांक रहा है।
कोई बदमाशी कर रहा है।
कोई उदास है।
कोई मना रहा है।
कोई रोमांश में है।
कोई गा रहा है।
कोई सुन रहा है।
इस "कोई" की कोई सीमा नहीं -
लख्मी
Tuesday, September 14, 2010
एक अजनबी
सड़क पार कर रहा होगा।
गाड़ी को धक्का लगा रहा होगा।
नाले किनारे बैठा बीड़ी पी रहा होगा।
झूले को धक्का मारकर ले जा रहा होगा।
टेंट उखाड़ रहा होगा।
खेलों के लिए सड़क पोत रहा होगा।
बस का इंतजार कर रहा होगा।
सड़क के किनारे लगे पेड़ के नीचे पसीना पोंछ रहा होगा।
स्टेशन के गेट पर खड़ा खिड़की खुलने का इंतजार कर रहा होगा।
बस के पीछे लटक रहा होगा।
कंधे पर बोरी लटकाए कुछ बीन रहा होगा।
अपने हाथों से दूसरे हाथों में पेम्फलेट बाँट रहा होगा।
बीआरटी कॉरिडोर को डर-डर के पार कर रहा होगा।
सड़क पर लगे बोर्ड पढ़ रहा होगा।
साइकिल की उतरी चेन लगा रहा होगा।
पानी की रेहड़ी के छाते के नीचे छुप रहा होगा।
पैदल पथ में कहीं सो रहा होगा।
खम्बे पर चढ़ा होगा।
भरी धूप में चिल्ला रहा होगा।
उस चिल्लाते हुए को देख रहा होगा।
आटो के मीटर की रेटिंग देख रहा होगा।
टूटी हुई चप्पल से चलने की कोशिश कर रहा होगा।
बस के गेट पर लटका होगा।
साथ वाली लड़की को देख कर मुस्करा रहा होगा।
सवारी उठाते आटो में फँसकर बैठा होगा।
सड़क पर अपनी जेब से गिरा रूपया खोज रहा होगा।
किसी की साइकिल पेंचर कर रहा होगा।
किसी खड़ी गाड़ी के होर्न को बार-बार बजाकर भाग रहा होगा।
कुत्तों से डरके गली में से निकल रहा होगा।
खिड़की पर खड़ा होकर मौसम को कोस रहा होगा।
नौकरियों के फॉर्म में अपने मुताबिक कुछ तलाश रहा होगा।
छोले-भटूरे की दुकान पर खड़ा जेब टटोल रहा होगा।
बस स्टेंड पर बैठा पेंटिंग कर रहा होगा।
धूप में अपनी किताब सुखा रहा होगा।
बस स्टेंड पर लेटा किताब पढ़ रहा होगा।
गली के कोने पर गुट में बैठा कोई अधूरी कहानी सुना रहा होगा।
किसी दीवार पर रात में कुछ लिख रहा होगा।
स्ट्रीट लैम्प की रोशनी में दीवारों पर पोस्टर चिपका रहा होगा।
बाहर खड़े रिक्शे पर अपने सोने का इंतजाम कर रहा होगा।
तेज हवा में दिया जलाने की कोशिश कर रहा होगा।
किसी दरवाजे से कान लगाकर कुछ सुन रहा होगा।
अस्पताल के बाहर खड़ा दुआ पढ़ रहा होगा।
गले लगाने के लिये किसी को ढूँढ रहा होगा।
बारिश से बचने के लिये कोई ओटक तलाश रहा होगा।
किसी से माचिस मांग रहा होगा।
अपनी दुकान उठा रहा होगा।
अपने घर का छप्पर ठीक कर रहा होगा।
भीड़ मे खड़ा देख रहा होगा कि वहाँ उसके जैसे कितने लोग हैं।
मेरे साथी ने एक बार एक लाइन कही थी जो अब 'बहुरूपिया शहर' किताब में है-
"शहर में रेड लाइटें नहीं होतीं होते हैं तो बस अनजबियों के हाथ"
लख्मी
गाड़ी को धक्का लगा रहा होगा।
नाले किनारे बैठा बीड़ी पी रहा होगा।
झूले को धक्का मारकर ले जा रहा होगा।
टेंट उखाड़ रहा होगा।
खेलों के लिए सड़क पोत रहा होगा।
बस का इंतजार कर रहा होगा।
सड़क के किनारे लगे पेड़ के नीचे पसीना पोंछ रहा होगा।
स्टेशन के गेट पर खड़ा खिड़की खुलने का इंतजार कर रहा होगा।
बस के पीछे लटक रहा होगा।
कंधे पर बोरी लटकाए कुछ बीन रहा होगा।
अपने हाथों से दूसरे हाथों में पेम्फलेट बाँट रहा होगा।
बीआरटी कॉरिडोर को डर-डर के पार कर रहा होगा।
सड़क पर लगे बोर्ड पढ़ रहा होगा।
साइकिल की उतरी चेन लगा रहा होगा।
पानी की रेहड़ी के छाते के नीचे छुप रहा होगा।
पैदल पथ में कहीं सो रहा होगा।
खम्बे पर चढ़ा होगा।
भरी धूप में चिल्ला रहा होगा।
उस चिल्लाते हुए को देख रहा होगा।
आटो के मीटर की रेटिंग देख रहा होगा।
टूटी हुई चप्पल से चलने की कोशिश कर रहा होगा।
बस के गेट पर लटका होगा।
साथ वाली लड़की को देख कर मुस्करा रहा होगा।
सवारी उठाते आटो में फँसकर बैठा होगा।
सड़क पर अपनी जेब से गिरा रूपया खोज रहा होगा।
किसी की साइकिल पेंचर कर रहा होगा।
किसी खड़ी गाड़ी के होर्न को बार-बार बजाकर भाग रहा होगा।
कुत्तों से डरके गली में से निकल रहा होगा।
खिड़की पर खड़ा होकर मौसम को कोस रहा होगा।
नौकरियों के फॉर्म में अपने मुताबिक कुछ तलाश रहा होगा।
छोले-भटूरे की दुकान पर खड़ा जेब टटोल रहा होगा।
बस स्टेंड पर बैठा पेंटिंग कर रहा होगा।
धूप में अपनी किताब सुखा रहा होगा।
बस स्टेंड पर लेटा किताब पढ़ रहा होगा।
गली के कोने पर गुट में बैठा कोई अधूरी कहानी सुना रहा होगा।
किसी दीवार पर रात में कुछ लिख रहा होगा।
स्ट्रीट लैम्प की रोशनी में दीवारों पर पोस्टर चिपका रहा होगा।
बाहर खड़े रिक्शे पर अपने सोने का इंतजाम कर रहा होगा।
तेज हवा में दिया जलाने की कोशिश कर रहा होगा।
किसी दरवाजे से कान लगाकर कुछ सुन रहा होगा।
अस्पताल के बाहर खड़ा दुआ पढ़ रहा होगा।
गले लगाने के लिये किसी को ढूँढ रहा होगा।
बारिश से बचने के लिये कोई ओटक तलाश रहा होगा।
किसी से माचिस मांग रहा होगा।
अपनी दुकान उठा रहा होगा।
अपने घर का छप्पर ठीक कर रहा होगा।
भीड़ मे खड़ा देख रहा होगा कि वहाँ उसके जैसे कितने लोग हैं।
मेरे साथी ने एक बार एक लाइन कही थी जो अब 'बहुरूपिया शहर' किताब में है-
"शहर में रेड लाइटें नहीं होतीं होते हैं तो बस अनजबियों के हाथ"
लख्मी
Tuesday, September 7, 2010
दूर बनता शहर
बचपन के शरारते, बड़ों के खेल
बचपन मे खिलोने, बड़ो के बर्तन
बचपन की कहानियाँ, बड़ों के अनुभव
बचपन की बातें, बड़ों की दुनिया
बचपन के घरूए, बड़ो के घर
ऐसी ही कल्पनाओं और जूझने से बनता है कहीं किसी कोने मे शहर।
लख्मी
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