Tuesday, September 28, 2010

सच और सजीव के पीछे क्या?

झूठ क्या है? कितना आसान और सुलझा हुआ सा सवाल है? इसी में जुड़ा है निर्जीव क्या है? बौद्धिक रूप से देखा जाये तो कुछ भी झूठ और निर्जीव नहीं होता। हम एलीमेंटस को निर्जीवता से आंकते हैं और सुनने - समझने को झूठ का जवाब। लेकिन, अगर सब कुछ अनुभव हैं तो और सबका अनुभव सबका अपना सच होता है तो फिर झूठ क्या है?

झूठ एक संभावनात्मक रूप से जीता है। जिसके आधार अगर न कहकर भी तलाशा या जिया जाये तो वे फलता - फूलता है। इसके अवशेष कई कथाओं को जीवन देता है। सही मायने मे अगर इसके चिंह खोजें जाये। ये महज इसका रिश्ता कहने और सुनने के साथ होता है। झूठ की अपनी कोई तस्वीर नहीं है। ये मानना और माने जाने के साथ बहस करता है। झूठ तब आता है या तब होता जब सच्चाई होना होता है। यानि झूठ को अकेले नहीं समझा जा सकता वे सच्चाई के सामने खड़ा होकर पैदा होता है।

जीवन को जीने के कई कारण, निर्णय और समझोते हैं जिनमें खुद को उसमे ढालने और रमाने का एक खास अहसास जुड़ा होता है। इनको अपने मानने और किसी और समझाने की कल्पना को सोचा जाये तो ये संभावनात्मक बनता है। यहाँ इस अवस्था में हम झूठ और सच को सोचे तो लगता है की जैसे दो पार्टीशन को जीने की बात कर रहे हैं।

सबसे मजेदार बात होती है कि झूठ मे किसी दूसरे की कल्पना समाई होती है। सच खुद में होता है लेकिन झूठ हमेशा किसी दूसरे का अहसास करवाता है। झूठ अपने से बाहर होता है। अपने अंदर का झूठ भी खुद के अनुभव का सच बनकर बाहर आता है।

इसके अहसास क्या है ?
सच बहुत ठोस होता है लेकिन झूठ तरल और न होने की छवि में बनाया और पिरोया जाता है
झूठ रूपकों से बयाँ किया जाता हैं
झूठ में एक समय का अहसास होता है
झूठ में कभी अकेला नहीं होता वे किसी माहौल, शख़्स या कहानी का पात्र बनकर उभरता है

कैसे ये अहसास होता है कि ये जगह किसकी है? इसमें बँटवारा ये हो सकता है कि "हमारी - तुम्हारी" या फिर इसको सोचा जाये की "सबकी"। इसको कैसे चिन्हित किया जाये?

ये एकदम अधूरा और कटा हुआ है। समझ लें की जीवन के अक्श अभी किसी 'पज़ल गेम' की तरह से टूकड़े होकर बिखरे पड़े हैं। ये टूकड़े मरने के समान नहीं होते बल्कि इनको जोड़ा जा सकता है। दोबारा से बनाया जा सकता है।

लख्मी