Friday, December 31, 2010

वापसी नज़र



क्या कुछ छूटने का अहसास होना जरूरी होता है? चीज़ें जिस ओर लेकर जाती है उसी ओर को बन्द भी कर देती है। जो चीज़ या जगह हमें सबसे ज़्यादा महफूज़ करती है वही चीज़ हमें किसी दायरें मे भी रख छोड़ती है। एक दम राजधानी ट्रेन की तरह - जिसमें हर चीज़ पैक होकर आती है। लगता नहीं जैसे हम भी किसी पैकिंग में लगातार चले जा रहे हैं।

लख्मी

Thursday, December 16, 2010

मेरा अपहरण

आवाज़ें रोज़ मेरा अपहरण करती है और ऐसी जगह पर ले जाकर छोड़ देती है जहाँ पर पहले से मौज़ूद छवियों से मेरा कोई समाजिक रिश्ता नहीं होता। सिर्फ आवाज़ों के साथ रिश्ता बनाना और उनको कोई मतलब देना ही नहीं है। सुनना खुद के साथ एक रियाज़ और प्रयोग है जो बिना किसी रिश्ते के बुनता जाता है।

आज सुनने के साथ एक खास तरीके से मुलाकात हुई - इसमें खुद की परिक्षा लेने के जैसा अहसास था। खुद को सुनना और खुद के अन्दर कई तरह की आवाज़ों को महसूस करके आसपास को सुनना। दोनों के बीच में एकांत और शोर का मेल – जोल था।

किसी आवाज़ तक पहुँचना क्या होता है? और उस आवाज़ तक पहुँचना जो बहुत तरल और हल्की होती है लेकिन उसका खिंचाव अपनी चरमसीमा पर होता है? बहुत धीमी आवाज़ मगर बहुत ऊंची। एक मिनट कानों को जोर से बन्द करके सुनने की कोशिश की। लगा जैसे खुद के अन्दर बैठे और खोये चित्रों को झिंझोर रहा हूँ। मैं सोच रहा था की इन सबको अगर भूल जाऊँ या छोड़ दूँ तो क्या हासिल कर पाऊँगा?


एक तस्वीर उभरती हुई मेरे चारों ओर घूम रही थी। जिसका मेरी याद के साथ और मेरे आज के साथ कोई नाज़ुक या कठोर रिश्ता नहीं था। ऐसी आवाज़ जो घुमावदार है जो मेरी सांसो के शोर को अपनी आवाज़ बना लेती है और उसके जरिये मेरे शरीर में सफ़र करती है। कुछ ही पल मे महसूस हुआ की मेरे अंदर चलती कई सारी हलचलें मेरी नहीं थी, उन्हे किसी ने अपहरण कर लिया था। मेरी आँखों में बसी तस्वीरें मेरे होने को झुठला रही थी।


मुझे खुद ही सोचकर एक खास तरह का अहसास होता की आवाज़ें - ये आवाज़ें क्या हैं और क्या वे अकेली हैं या सिर्फ सुनकर, सोचकर और कहने तक ही हैं या फिर उनके ऊपर कुछ करने के जैसा। क्या ये जीवन को समझने में कोई मदद नहीं करती?

वे आवाजें जो हम कमरे के भीतर सुनते है वही आवाज़ें, वही जगह, वही टाइम और वही सवाल हमारे साथ रहता है लेकिन स्थान अगर बदल जाये तो? कुछ देर के लिये मैं छत पर चला गया। सोचा की यहाँ पर मैं अपनी सोच की कैद से बाहर निकलकर कुछ नया पिरो पाऊँगा? छत पर जाने के बाद में लगा की आवाज़ कभी अकेली नहीं होती। आवाजें छत तक आने में कई और आवाज़ों का सहारा लेती हैं और शेम्पू के बुलबुले की भांति कोई आकार लेती हुई छत तक आती हैं। ऊपर की ओर आते-आते एक धमाका करती हैं। मगर इस धमाके में वे अपना दम नहीं तोड़ती बल्कि एक बड़े आकार में शामिल हो जाती हैं। इसी में सारा समझना, रिश्ता, पहचान छुपा होता है। ये आवाज का ब्लास्ट हो जाना असल में खुद के साथ कोई कनेक्शन होने के समान ही था।

मगर सिर्फ हमारे सवाल और हमारे समझने के साथ समझोता ही नहीं थे। आवाज़े खाली सुनने और समझने के साथ रिश्ता नहीं बनाती। बल्कि आवाजों का ठहराव, परत और तेजी किसी वक़्त को इस तरह जोड़ देती है जिससे की वे उसकी राहगीर बन जाती हैं।

ये सफ़र की तरह बढ़ता चलता है -
लख्मी

Friday, December 3, 2010

इशारे भर शहर







लख्मी

कुछ याद क्यों आता है?

काफी दिनों से शहर मे ऐसे घूम रहा था जैसे कुछ तलाश रहा हूँ। लेकिन इस घूमने के बाद जब सोचता तो साफ लगता की तलाश मे हो रही चीजें, गुजर रही बातें सबको खुद से जोड़ रहा हूँ। काफी घूमने के बाद मे थोड़ा खुद को तोड़ने की इच्छा हुई। सवाल उभर रहा था खुद से कि सफ़र को अगर खुद के साथ न जोड़ा जाये तो वे क्या चिंह खोलता है रास्ते और शहर को सोचने के? क्यों किसी को दोहराया जाये और क्यों किसी को याद किया जाये? क्या दोहराना याद करना होता है? या याद मे रखना एक दिन दोहराने मे तब्दील हो जाता है?

दिन और दोहपर मे घूमते हुए आज ये गाना अचानक याद आया। “जीनव के सफ़र में राही - मिलते हैं बिछड़ जाने को।
और दे जाते हैं यादें तन्हाई मे तड़ पाने को"

असल मे याद नहीं आया बल्कि लगा जैसे ये इस सफ़र के लिये ही बना था। चेहरे लगातार बदल रहे थे जिनको याद में रखना कोई जरूरी नहीं था। लेकिन कभी किसी मोड़ पर उसे दोहराया जरूर जाया जा सकता था। दोहराने की उम्र बहुत कम होती है। इसकी जगह दिमाग में बहुत कम होती है। जैसे ये ट्रांसफर होने के लिये बना है। बिलकुल उन यात्रियों की तरह जो बस में चड़ते हैं और गेट के पास ही खड़े हो जाते हैं।

पूरे दिन में आज इतने लोगों की छूअन ले चुका था की अब तक कितने अक्श मेरे होने को बना रहे हैं ये सोचना और कल्पना आसान नहीं था। ये खाली मेरे अंदर कितने चेहरें बस गये हैं, ये नहीं था बल्कि मेरे बाहर चलते शहर की मात्रा कितनी घनी हो गई है इसको सोचना मेरे लिये बहुत महत्वपूर्ण हो गया था। बगल से निकलने वाला, टकराने वाला, कुछ पूछने वाला, कुछ बताने वाला, साथ मे बैठने वाला, मुझे सुनने वाला, मुझे देखने वाला। इनके चेहरों को याद रखना जरूरी नहीं है। बल्कि ये क्या चिंह छोड़ जाते हैं उन चिंहों को दोहराना ही सफ़र है।

कभी-कभी लगता जैसे लोगों को याद रखा ही कब जाता है? वे किसी वक़्त के साथ दोहराने के लिये कुछ समय ठहराव लेते हैं। कोई काम, खेल, रास्ता, अदा और बैचेनी की चाश्नी में घुले कुछ चेहरे मटमैले हो जाते हैं। चेहरा याद ही कहाँ रहता है। याद तो वो चाश्नी रहती है। जिसको बार-बार चटखारे लेकर दोहराया जाता है।

ये गाना - मुझे मुझसे बहुत दूर ले गया था। लगता था की शहर को खुद मे डालने के लिये इसे गा रहा हूँ। उन दृश्यों को इसकी तस्वीर बना रहा हूँ जो मेरी आँखों से दूर होते ही शहर मे घुल जाती है। या हवा हो जाती है। जिनको दोबारा से पकड़ा नहीं जा सकता। हाँ, उसके जैसे दिखने वाले दृश्य से पिछले का अंदाजाभर लिया जा सकता है।

घुलते हुये इस शहर मे जब हम बेनाम और अंजानपन से चेहरों से दूर कर रहे होते हैं तब अपने भीतर भी उनको किसी वक़्त से भिड़ा रहे होते हैं। ये भिडंत क्या है? क्या ये देखने वाले की कशमकश है या उसकी तेजी है?

घूमना अब भी जारी है -
लख्मी

Thursday, December 2, 2010

ठहराव और रफ़्तार के दरमियाँ

भागते और ठहरते हुए समय को हम कैसे सोचते हैं?

ये एक ऐसा कोना है जो कई नक्शे तैयार करता है। अजनबियों का एक ऐसा रास्ता जो शहर को बनाने मे मदद करता है। चलता है, रूकता है, भागता है, सोता है, सांसे लेता है और फिर से कहीं चल पड़ता है। कहीं पर अगर आँख रूक जाये तो इस पूरी जगह को तोड़ने का काम करती है। तोड़ना यानि खुद को मौजूद रखना।



लख्मी