Tuesday, March 15, 2011

अपने से बाहर क्या?

शहर में निकला और खुद के परिवेश का दूसरे से जुड़ाव को समझना जो हो रहा है उसमें मौजूदगी के जरिये वास्तविकता से कल्पना करते हुए। अपने से होने वाले टकराव से उत्पन्न छवि को अपने बीच ले आना, जो कानो से दूर है। मगर सूनाई देती है। वो बीच का गैप जो अपने परिचय और दूसरे के अपने तक आने या जाने से अलग दिखता घेरा क्या है?

अपने से दूर जाने वाली चीजों, जगह, वक़्त की परछाईयाँ जो मौजूदगी को रचती है। उस रचनात्मकता को कैसे सींचा जाये? जिससे सम्पर्क में आने वाले ढ़ाँचे पर पढ़ने वाली स्पर्श रेखाओं का जिन्दापन खुद के होने का अहसास कराता है। अपने से बाहर जो है वो पाठक है। जो सुनना चाहता है, देखना चाहता है। उस के लिये स्वयं के पास क्या है? जिवंतता क्या? श्रम का जिवंतता क्या? अपनी सोच के विरूध? जीवन की कल्पना क्या? जो है उसके बाहर जो दिखता है उसके बाहर? वो तस्वीर जिवंतता पॉवर देती है? उसका नक्शा या स्ट्रचर कैसा होता है? जो संतुलन में असंतुलन दिखाता है।

राकेश

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