Tuesday, May 10, 2011

सवाल सामुहिक नहीं हो पायेगें

समय बहुत बदला है। अब की दुनिया में कई तरह के कलाकारों का अलगाव है। किसी न किसी रूप में काम करती या रमी ज़िन्दगी अपने कदम बढ़ाती रहती है। किसी जगह में किसी का परफोर्म और किसी का सत्य दोनों अलग है। और ये क्या है? क्या किसी को दिखाने और किसी में शामिल होने वाले दोनों रूपों का अमेल रूप किसी जगह की कल्पना करता है? अगर हाँ, तो पागल शब्द क्या इसका पीछा करने पर क्या दिखाता है?

सतपाल मूझे आज भी मिलता है। वो अपनी समान्य ज़िन्दगी जीता है। कुछ संतूलन करने, बनाने में अपने को व्यस्त रखता है। जब वो कहीं किसी जगह में जाता है तो उसे कुछ अलग महसूस नहीं तो शायद। शामिल होने की स्वयं की भूख क्या है? जो निश्चितता के सामने सत्ता के विरूध भी खड़ी हो जाती है। अपनी शैली का व्यापक नामूना लेकर।

कोई अपनी छवि के लिये कैसे लड़ता है? समाज में ये आबादी का उदाहरण मिलता है। आबादी सभी के लिये एक तरह का दुनिया बनाती है। जिसे भीड़ या झूंड़ भी कहा जा सकता है। भीड़ का एक सम्भव क्षेत्र जिसका सामान्य और असामान्य रूप है।

हम इसका एक हिस्सा है जिसमें खुद को दूसरे मानवों की तरह देखना चाहते हैं। जिसमें सब का अपना जीवन जीने का खास तरीका है। मान ले की कुशल ढ़ंग और जो कभी सहमती बनता है और कभी असहमती। सतपाल तो किसी से सहमत नहीं होता वो घर, बाहर अपनी सोच के बहाव को जारी रखता है। दो रास्तों से अलग उसकी राहें कहीं ओर ही जाती है। दो ज़ुबान तो हर वक्त सामने रहती है पर तीसरी ज़ुबान कहां है जो विपरीत में ले जाती है?

अगर जीवन में जो है, होना ही है को मान के चले तो क्या वे नियम है या जो सत्य जिसे बचपन से देखा जिसे दिमाग ने समझा, आंखो ने देखा और शरीर ने महसूस किया उसे ही आधार बना ले?

मेरा मानना है की ये अपनी ही सोच के साथ नाइंसाफी होगी। शरीर के जख़्म बदल जाते हैं मगर दर्द वही होता है। दर्द की ज़ुबां को भाषा कहाँ से मिलती है? किसी से डर भी ऐसी ही कन्डीशन से पैदा होता है जिसे न तो दूर किया जा सकता है और न खुद के पास रखा जा सकता है। फिर इसका होता क्या है? जीवन में आयोजित होने वाली दैनिकता जिसमे हर पल का हिसाब-किताब होता है इसमें हम अपने लिये केसी सम्भावनाएँ सींचते है? ये खुद से सोचना होता है।

रात और दिन का रिश्ता जैसे गहरा है और उनके साथ परछाई और रोश्नी दो रूप है। जो एक-दूसरे से टकराते है। ये हमारा अनुरूप है। जिसे हम शामिलता में जीते हैं। किसी को इसमें लाने के लिये हमारे पास क्या होता है और देने के लिये क्या? ये सोचना जरूरी है।

कभी - कभी लगता है कि जीवन मे कई सवाल कहीं बसे हुए है, उनको एक साथ बाहर निकाल दिया जाये। मगर सोचता हूँ की वे सवाल किसके लिये है? क्या अगर सवाल के भीतर ये "किसका" जुड़ा होगा तभी वे बाहर आ पायेगें? मैं अपने से पूछने वाले सवालो को अपने से बेदखल करके बाहर नहीं निकाल सकता।

मेरे "मैं" से मेरे "स्वयं" का रिश्ता अगर टूट जाये तो क्या सवाल सामुहिक नहीं हो जायेगे?

राकेश

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