Monday, June 27, 2011

इसकी कोई आकृति नहीं है








इसकी कोई आकृति नहीं मगर फिर भी किसी संगीत की तरह इसके भीतर अनेकों तार एक दूसरे से हमेशा टकराते रहते है, रहे हैं।

इन बेजोड़ तारों के साथ बजने वाला संगीत इस कठोर ढांचे की उन कग़ारों को छू जाता है जिसका रूप बिना चेहरे के है। किस कण से इसके भीतर की जमीन को महसूस किया जा सकता है। संगीत से, हलचल से, गूंजल होती दृष्टि से, रफ्तार से, ट्रांसफर होती तीव्रता से।

मैं उन सभी दिशाहीन रूपों से खुद को कभी उलझा तो कभी दूर पाता रहा हूँ। कभी बिना किसी शौर के तो कभी बिना किसी शांति के। ये हर दम मेरे अन्दर के किसी हिस्से को सक्रिये बनाता रहा है। ये मेरे से बाहर है, मगर मेरे अन्दर को बनाता रहा है नियमित। ये मेरा रूप नहीं है मगर मेरी छवि इसकी रहनवाज़ है।

समय के बिना और समय के पुनर्चित मे :

लख्मी

Thursday, June 9, 2011

क्या डर होता है





शहर के बीच ही किन्ही स्पर्श को टटोलटी सांसे अपने ही शरीर की गिरफ़्त में है। ये आजादी नहीं मांगती इनकी मदहोशी किसी सीने में बसे दर्द की आवाज़ से जान सकते हैं।

चीजों को अपनी कल्पनाएँ करने दों वो भी किसी के पुर्ण:निर्माण में जाने की मांग करती हैं। जीवन उनके लिये भी स्पेस चुनता है। चीजों का क्या डर होता है? डर होता क्या है? जिसे जीने के रूप विभिन्न है।


राकेश

जिन्दगीं मे बसा किसी का स्वरुप



धुंधली रेखाएं

शहर आज क्या है जिसमें शामिल होते ही चटख भरी दिनचर्या से हमारी मुलाकात होती है? जो चुम्बक की तरह हमें अपनी तरफ खींचती है। उसकी हर सुबह उन्नत वर्तमान के परीवेश में होती है।

कई चीजों का आँचल आँखो के सामने होता है। किसी न किसी श्रोता की प्रतीक्षा में धुंधली रेखाएं माहौल में विराजमान रहती हैं। मन की चैष्टायें धूप की तरह अस्तिव में बिख़र जाती हैं। कोई शायद धूमिल सा अधूरापन लिये रास्तों पर चलता है। उसकी जिन्दगी में बसा किसी का स्वरूप भीतर से बाहर का निकास करता है। पूर्ण क्षमताओं से टकराती जिंदगानी नज़र से नज़र मिलाकर बातें करती हैं।

घूंघट से देखती वो (बदमाश ) नजरें जो किसी के रूप को चुरा लेने की फिराक में रहती हैं या किसी कलाकारी में व्यस्त हाथ जो किसी के शक़्ल-सूरत को गढ़ने के साथ, अपना वज़ूद गढ़ते चले जाते हैं। ये इशारों की वो रेखाएं है जो हमारे चारों तरफ खिंची हैं और इसके बीचो-बीच हम हैं जिनमें हम अपने निजी के दायरे को जीते हैं।

उसे साझा करने के लिये शहर में निकल पड़ने की जिद्द को लिये समाज के बँटवारे को बिना काटे हम अपनी कतारों से बाहर झांक कर देखें की कौन-कौन हमारे संम्पर्क में है।

हम निजी जब लाते हैं तो क्या दिखता है शहर में? ये सवाल ही अपने को किसी तत्व से बिल्ट कराता है। अपनी तस्वीर, अपनों के साथ अपनी आवाज़ें, आँधी मे आने वाली रातें जो सुबह का इंतजार नहीं करती। वो शिद्दत करती हैं उस विराट मौज़ूदगी की जो शहर के किसी कोने से उठती हैं और ख़बरिया चैनलों की भांती अपनी छवि लोगों से मुखातिव करवाती हैं।

बताने वाला और सुनने वाला दोनों शहर में कहां का स्पेस तलाश रहे हैं। शहर जो नक्शोवाला गुच्छा है और उसमें कई अदखुली गुत्थियाँ हैं जिसमें कोई आवाज़ लिपटी हैं और कोई सड़क तो कोई चीजों का अपने वज़ूद के साथ होने का अहसास करवटें ले रहा है।


राकेश

उस मेरे मैं की मिठास




मैं अधिक रूपों से खेल रहा हूँ। मैं कारणों में खुद को सुनिश्चित नहीं करता हूँ।

5 साल तक केबल लाईन अन्तराल में रहे है। कभी कम्पलेन्ट को कम्पलेन्ट नहीं समझा उसे रिलेश्नसिप समझते हुये सोचा। वो एक रचनात्मक शख़्स को प्राप्त करने की इच्छा से प्रेरित रहते हैं। "मेरे स्वंय के भीतर भी कोई है।"

पैदल घूमने का अनुभव ज़्यादा करता हूँ। जगह के वहां के बदलाव संबद्धित चीजों से परिचित है। "केबल के काम से मुझे बहुत प्रेम है।" तभी अपना हुनर अपने आप से बनाया और आसपास के लोगों से समझा है। फिर उसे सोचा की वो खुद के लिये क्या जगह बनाता है। अपनी तैयारी खुद की, कि किस तरह और किस आधार को लेकर जीवन जीना है। तैयारी जीवन में रफ़्तार लाती है। ठीक उस वक़्त की तरह जो अपनी बटोरी गई ढेरों इंद्रधनूषी रंगो में ढली परछाई को विराजमान देखता है।

ये बात आसानी से मान ली, सोचा चलों इस बहाने बाहर निकल जाने का मौका मिलेगा और अपने से कुछ कर सकुंगा। मुझे पहले केबल के ओफिस में सफाई करने को कहां गया मैंने कमरे की मशीनो की 3-4 महिनों कस के सफाई की।

जहाँ मैं था। उस जगह में मुझे अब नये जीने के मौकों की तलाश थी वो मिलने लगे। वहाँ सीखने को बहुत कम था मगर मेरे पास तो वही एक अधूरी मुर्ती थी जिसे मैं अपनी छवि कह सकता था। जिसपर जीवन उकेरने का मौका मेरे खाली वक़्त में निकलता था। वो खाली वक़्त जो कोरे पन्ने के समान होता..जिसपे अगर ठीक से लिखा नहीं जाता पर कभी पैन की शाही से अद्धबनें शब्दों को देख कागज पर पैन झटकने से शाही की छीटे पड़ जाती और उस पर आकृति का भी मतलब बना होता।


मेरा रूटीन अब बदल गया था एक नया सफर की तरफ। जहां मशीनों के बीच जीवन की शुरूआत होती। वहां से मुश्किलों का संमुद्र भी दिखता था। रूटीन वक़्त के पहिये की तरह चलता रहता...।

सुबह सात बजे भगवान की आरती और फिल्मी गाने। तब से लेकर नौ बजे से नई या पुरानी फिल्में। बारह बजे तक रिमिक्स गाने। उसके बाद, दोपहर के दो बजे से फिल्म 4:30 तक चलती

जहां वक़्त कभी अपने आप ही किसी कमरे में आकर ठहर जाता और कभी कुछ रोशनियों के टूट जाने पर फिर नयी रोशनियों के पैदा हो जाने पर जगह रोमांचक मोड़ ले लेती जिसमें कोई लिमिट नहीं नजर आती वो बस किसी सिरे तक झुका हुआ नक्काशिदार सजना नजर आता फिर कहीं से उपर उठा हुआ दिखता।

ये दो घंटे जो 8:30 से एक नयी रात का कथन कर देते और रात की फिल्म के शुरू होते ही इस बहाने बैठे हम अपने विचारों की गुथ्थम गुथ्था मे लिपट जाते। हम वहां होते भी और वहां कभी खुद को पाना भी कठीन होता कि हम किस बुनाई में हमारे सपनों को बसाने की कोशिश कर रहे है?

वक़्त का घेरा हमें रोक लेता ठहरा देता। लेकिन यहां कभी तो मैं अब मेरे लिए एक मिठास, एक खुशी है और एक प्रकाश है। मैं पहले अनुभवी कभी नहीं था। इसका अनुभव किया? तो जैसे किसी कमरे मे जल रहे मिट्टी के तेल वाले स्टोब में पम्प भरते जाना लगातार। ताकी उसकी बनी भवक मे शरीर से छूटते पसीनों से बनी तराई मालूम होती है।

उस मेरे मैं की मिठास, खूशी ने जन्म लिया। उस वक़्त। मेरा रोजाना का त्याग होता घर से, काम से, समाज के बोझ से तब कहीं मेरे चेहरे पर मुसकुरहाट के दो-चार बल पड़ जाते। असल में अपने आप को जानना वहीं था, जब भीड़ में स्वंय की रचना करके। वहाँ कई-कई बार मैं हुँ। शायद कि मैं नहीं। बल्कि खुद को सुनने के लिए सुन पाने से रिश्ता निभाना भी मेरे लिये जरूरी रहा है। दूसरों के लिये एक द्वार ( दवाजें-खिड़की -निकास ) को बनाया जाना। मेरे लिए एक कल्पना भी है और रोमांचक बात है।


राकेश...

Monday, June 6, 2011

कुछ निगल रहा है



भूलना और याद से लड़ना दोनों के बीच में से निकलते हम इसी कशमकश में है कि कब जीवन के अदृश्यता को सोचने का मौका मिलेगा?

अपने दोस्त का इंतजार करते हुये जब इस ओर देखा तो लगा की, किसी और कहाँ की तलाश मे कुछ गायब है वे क्या है उसका अहसास मेरे दिमाग में ओझल होते समय की शक़्ति का था। ऐसा लगता जैसे सब कुछ हाथों से छूट रहा है, कुछ भी ठोस और मजबूत नहीं है, कुछ उसे निगल रहा है। हम उस निगलने मे जा रहे हैं, हर रोज़, हर समय, हर भाव से उसमे जाते हैं और वे किसी अहसास को निगल जाता है।

ये पल इस निगलने को मुलायम बना रहा था।

लख्मी
(शायद इसका अहसास सब मे निहित है )