Friday, July 29, 2011

नंगा सा किस्सा

ये एक छोटा सा कमरा था जहाँ कोई भी आता और अपना कोना या जगह पकड़कर बैठ जाता। यहाँ पर सबसे ज्यादा बच्चे थे। शायद ये उन्ही का कमरा था जिसमें बड़ो का कोई काम नहीं था। सारे बच्चे एक लाइन मे बैठे थे। अपनी-अपनी कॉपी निकाले। वहीं पर उनके सामने एक औरत बैठी थी जो इन सबकी टीचर थी। इतने मे वहाँ पर एक और बच्चा आया जो एक दम नंगा था। वो आया और उन्ही बच्चों मे आकर बैठ गया। उसके पास कुछ भी नहीं था। सभी बच्चे उसे देखकर हँसने लगे। टीचर सबको शांत करते हुये बोली, “बेटा इतनी गर्मी पड़ रही है और तुम नंगे घूम रहे हो। लू लग गई तो बिमार पड़ जाओगें। जाओ कुछ पहनकर आओ।"

वो बच्चा बस, हँसे जा रहा था। अपने हाथों को अपने टांगों के बीच मे रखकर वो मुस्कुराता जाता।
“बेटा जाओ और कुछ पहनकर आओ। मम्मी को बोलो कुछ पहना दे।"

वो दूसरे की किताब मे लग गया। उसे नहीं कुछ लेना था की वो कहाँ पर बैठा है और यहाँ पर आने के लिये उसे क्या करना चाहिये? वो दीवार से टेग लगाकर बैठ गया और सबको वहीं से देखने लगा।

“अगर तुम हमारे साथ घूमने जाओगे तो चलों जल्दी से जाओ और कपड़े पहनकर आओ।"

“नहीं टीचर जी मुझे अभी काम पर जाना है। मैं मटकापीर के पास मे खड़ा होकर लोगों से दुआ माँगता हूँ। मैं तो रोज़ वहाँ पर ऐसे ही जाता हूँ। मेरी माँ और मैं वहाँ पर जाते हैं।"
“दुआ मांगते हो लोगों से मतलब?”
“मतलब लोगों से पैसे मांगता हूँ। 100 रूपये मांगकर लाता हूँ। सारे पैसे अपनी माँ को दे देता हूँ। तब मेरी माँ मुझे पाँच रूपये देती है। उसकी मैं खूब चीज़ खाता हूँ। ये अपने दोस्त को भी खिलाता हूँ।"

इसके बाद मे सारे सवाल या तो बंद हो जाते हैं या फिर वो सवाल पैदा होते हैं जिनका इस दुनिया में कोई काम नहीं होता। टीचर जी के पास कहने और सुनने को कुछ नहीं था। वे क्या कहती? जब कुछ नहीं बचा कहने तो पूछा, “क्या तुम स्कूल नहीं जाते?”

लख्मी

सुबह का चलना

हवा काफी तेज़ थी। दिया जलता और भवक कर बूझ जाता। माचिस मे तीली भी कम ही थी। उसने बहुत ओट बनाकर दिया जलाने की कोशिश की मगर दिया जलने का नाम ही नहीं ले रहा था। गलती से आज वो सुबह चार बजे की बजाये तीन बजे ही उठ गया था। सुबह – सुबह उसको पूरी तरह से आदत हो गई थी के चार बजे अपने आप आँख खुल जायेगी और वो रात के खत्म हो देख पायेगा। उसी मे उसका दिया जलाने का काम भी निबट जायेगा।

अपने कलोनी से वो काफी दूर आ गया था तो वापस जाकर माचिस लाना उसके बस का नहीं था और दिया भी उजाला होने से पहले ही जलाना था। वो यहाँ से वहाँ देखता रहा। ताकि कोई दिख जाये तो वे माचिस मांगले। लेकिन इस वक़्त मे कोई नहीं दिख रहा था।

अचानक से उसे दूर कहीं रोशनी मे कोई आता दिखाई दिया। यहाँ पर बस, एक ही दुकान के बोर्ड की लाइट पूरी जगह मे चकम रही थी। जैसे ही कोई उसके दायरे मे आता तो चमक उठता नहीं तो वो ऐसे गायब होता जैसे परछाई अंधेरे मे। हर कोई उस अंधेरे मे जाकर परछाई बन जाता।

ये कोई शख़्स था जो आता दिखाई दिया। उसने सोचा की इन्ही से माचिक मांग लेगा। वो शख़्स जैसे ही इनके करीब आया इसने आवाज़ मारनी शुरू की। "भाई साहब, भाई साहब" मगर वो तो सीधा चलता चला गया। ये कैसे हो सकता था की उनको न तो इसकी आवाज़ सुनाई दी और न ही ये दिखाई दिया। वो शख़्स पहाड़ी की तरफ मे चला गया और थोड़ी ही देर मे गायब हो गया। ये इधर -उधर फिर से नजरें घुमाने लगा। इतने मे इसे महसूस हुआ की इसके पीछे कोई खड़ा है। लेकिन ये पीछे मुड़कर नहीं देख पा रहा था। किसी के सांसे लेने की बहुत जोरो से आवाज़ आ रही थी। ये चाहकर भी पीछे नहीं देख पा रहा था। ऐसा लगा जैसे कोई इसके पीछे से इसकी कमर को पकड़ रहा है। इसने इस बार झटके से पीछे मुड़कर देखा। वही आदमी था जो अभी यहाँ से गुज़रा था। ये उस आदमी को देखता रहा। वो भी कुछ नहीं बोला और ये भी बस, उसे देखता रहा।


लख्मी

Wednesday, July 27, 2011

दो मिनट शहर के

मैं भी :
मैं क्या कर रहा हूँ और मेरे करने में क्या है? मैं जो कर रहा हूँ उसमें कौन है? क्या वे मुझसे ताल्लुक रखता है तो उसमें मेरे इर्द-गिर्द का क्या रोल है और अगर इसमे मेरा इर्द-गिर्द है तो मेरे होने का क्या रोल है। परिवार हमेशा कहता रहा है, “हमारे लिये कुछ मत कर लेकिन खुद के बारे में सोच" मगर ये खुद में कौन-कौन है?

मैं चले जा रहा हूँ किसी तलाश में - रोज निकलता रहा हूँ लेकिन शायद कोई देखे - जाने हुए पते को ढूँढने। ये तरीका मुझे कहाँ ले जायेगा? से मुझे डर रहता है। मैं उसी जगह पर पहुँच जाऊंगा जहाँ के बारे में मेरे पहले कई लोग जानते आये।

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एक शख़्स :
एक बार मैनें अपने एक दोस्त ने पूछा, “तुने कभी अपने को लेकर सोचा है?”
वो बोला था "हाँ" सोचता हूँ लेकिन वैसे नहीं जैसे तुने अपने को लेकर सोचा है। मैं अगर तुझसे ना मिलूँ, तेरे घर ना आऊँ, तेरी बातें ना करूँ और अपने घर पर भी कभी न लौटूँ, दिन को बाहर निकलो और शाम में वापस आ जाओ।क्या ये जिन्दगी होती है? इससे तो अपने को सोचूँ ही नहीं तभी अच्छा है।

जब वे ऐसे बोलता था तो लगता था कि कोई बड़ी कल्पना लेकर जीने की बात करता है। वे अपने बारे में नहीं, उस तरीके के बारे में बोल रहा था जो "मैं" और "वो" साथ और एक तरह से जीते हैं। ये वाक्या मुझे सोचने पर मजबूर किया की मैं अपने शरीर को किस लिबास के थ्रू देखने कि कोशिश में हूँ।

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कब लगता है हम वापसी पर है? मैं हमेशा सोचता रहा की आखिर में वापसी" के मायने क्या होते हैं? वो वापसी जो काम और रिश्तों से बाहर होती है। जो लौटना नहीं होती। जो समय के गठबंधन से बाहर नहीं होती। 'वापसी' घर आना या सोच मे जाना। अधूरे को पूरा करना या अधूरे से नया बनाना।

दो मिनट शहर के

एक शख़्स :
मेरे पिताजी अक्सर कहते हैं अपने काम करने के समय से, "मैं कभी घर पर बैठूगां नहीं - अगर बैठा तो अपने काम से लेकिन अपनी उम्र से नहीं" आज ये बात सोच पा रहा हूँ। मेरे साथी ने एक बार कामग़ार शख़्स के बारे कहा, “कोई शख़्स अपने काम से वापस लौटता है - थका हुआ लेकिन दूसरे दिन फिर से तैयार हो जाता है उसी शहर में जाने के लिये।"

ये दोनों बाते एक दूसरे के लिये बिलकुल भिन्नता में है। पिताजी जब वापस आने को बोलते हैं तो वापस आना उनके लिये घर लौटना नहीं है। बल्कि वे वापस जाने को भी सोचने की कोशिश करते हैं। और मेरा साथी - वापस जाने को सोचा है आने को नहीं। घर लौटना उसको तैयारी देता है अगले दिन की। उस चिड़िया की तरह है जो उड़ान भरकर टहनी पर बैठी है। सुस्ताने के लिये नहीं बल्कि कहीं जाने के लिये। पर उसका टहनी चुनना, समय चुनना, आसपास चुनना, थकान चुनना उसके वहाँ पर आने मे निहित है। वे लौटती नहीं है -

वापस आने में परिवार उनके लिये बहाना नहीं है। काम उन्हे वहाँ पर फैंकने के लिये नहीं है। शरीर के लिये कोई आरामदायक जगह नहीं है। वापस आना मतलब उनके लिये उस रूप मे आना है जो इन सब बेरिकेडो से बनकर लोहा लेता है जीने का। बहस से बना है, जीने की जिद्द से बना है -

मैं जब ये सोच पाता हूँ तो उनका घर आते ही बाहर निकल जाना समझ मे आता है या कभी ना आना, देर से आना, किसी के साथ आना ये समझ मे आने की कोशिश करता है।

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एक और शख़्स :
मेरे लिये थकना बहुत जल्दी हो जाता है। मगर वो मेरे शरीर का होता है। मैं शरीर से थकने को मेरे थकने का नाम नहीं देना चाहता। जब मैं थकने को सोचता हूँ तो मेरे दिमाग में एक शख़्स का चेहरा आता है। जो मेरे पास साइकिल से 8 किलोमीटर का सफ़र तय करके आते हैं अपना कुछ सुनाने के लिये और जब मैं उनके सुनाने के बाद में उनसे कुछ सवाल करता या चुप भी रहता तो वे मुझे देखते रहते। कभी अगर कुछ लिखने को कहता तो तभी तुंरत लिखने बैठ जाते। तब लगता है थकान शरीर से ही है शायद, लेकिन उसमे रंग किसी और अहसास का भरा जा सकता है।

फिर आना - जाना, रास्ते लम्बे होने के अहसास से भी दूर हो जाता है। मैं सोचता हूँ कि मैं अपने जीवन के किन हिस्सों मे जाऊं जो मुझे इस तरह की थकावट में ले जाये? मगर उसमें मुझे वे नज़र आता है जो मेरे मन लगे काम से जुड़ा है। इससे बाहर नहीं है।

लख्मी

Tuesday, July 26, 2011

दो मिनट शहर के

सबमे कहीं जाने की होड़ सी लगी है। हर कोई किसी न किसी सफ़र में खुद को जबरदस्ती घुसा दे रहा है और कहीं निकल जा रहा है। सब लगते जैसे सबसे दूर और अलग जाना चाह रहे हैं। हर रोज़ एक गाडी आती जो शहर घुमाने के लिये लेकर जाती। सब तैयार होकर उसमे बैठने के लिये मारामारी करते। मगर किसी - किसी को ही उसमे सीट मिलती। मैं भी हर रोज़ उसकी लाइन में खड़ा होता हूँ अपना सबसे अच्छा और खूबसूरत कपड़ा पहनकर। एक दिन उसमें सीट मिल ही गई।


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रंगीन छत के सड़क के बीच में आते ही सबकी नज़र उसके वश में हो गई।
एक शीसे से बना मकान फुटपाथ पर खड़ा है।
बीस हजार पन्नों की किताब बस स्टेंड पर रखी है।
80 मीटर लम्बा पेन रेड लाइट के नीचे पड़ा है।
500 लीटर का मटका सड़क के किनारे रखा है और लोग उसमे से पानी पी रहे हैं।
एक पारदर्शी दिवार है जिसमे अनगिनत किताबें रखी हैं।
200 फिट बड़ा स्पीकर लगा है जिसमें से ढेहरों आवाज़ें लगातार आ रही हैं।
एक हैंड बेग जिसमें 350 जेबें हैं।
एक बस जिसमे दरवाजे ही दरवाजे हैं।
सड़क के किनारे बना शौचालय जो शीसो से बना है।

जो शहर दिख रहा है उसे एक बार और देखने के लिये आंख बनानी होगी।

लख्मी

Monday, July 25, 2011

दो मिनट शहर के - पर किसके लिये?

तेज आंधी थी। कोई भी चीज़ जमीन पर नहीं थी। दीवारों पर चिपके पोस्टर फड़फड़ा रहे थे। कोई उन्हे फिर से चिपकाने वाला नहीं था। लुढ़कती चीजें अपने से भारी सहारे से टकराकर वहीं पर जम जाती। कोई गा रहा है। उसकी तेज आवाज़ आंधी के साथ बह रही है। कभी लगता है जैसे वे बहस कर रही है। आंधी को अपने काबू मे कर रही है। आंधी के बीच से निकलते कई लोग उस आवाज़ तक जाने के लिये भटक रहे हैं। हर किसी को जैसे उसके पास जाने की तलब है। वे कभी अपने अलाप पर होती तो कभी उस नमी मे जैसे वे आंधी को पी गई है। हर कोई उसके साथ अब गाने लगा है। आंधी से लड़ने के बहाने के जैसा। कोई किसी को देख नहीं सकता। सब जहां खड़े हैं वहीं पर रूक गये हैं। वहीं से उस आवाज़ के साथ अपनी आवाज़ को भिड़ा रहे हैं। कभी कोरस बन जाते हैं तो कभी जुगलबंदक। समा में आवाज़ें नहीं है, किसी एक तार मे खो गई हैं। एक हो गई है। आंधी की धूल छटने लगी है। पूरा शहर एक ही जगह पर खड़ा है। मगर बिना किसी को पहचाने की कोशिश मे।


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एक हूजूम सड़क से निकल रहा है। किसी मदमस्त हाथियों के झुण्ड की तरह। हर किसी के पास एक तस्वीर है। हर तस्वीर मे कोई नहीं है। जैसे जगह उनके साथ उठकर कहीं जा रही है।

कोई छूट गया मगर लगता नहीं है कि छूटा है। वो यहां रह गया मगर लगता नहीं है कि रह गया।
वे यहां का हो गया मगर लगता नहीं है कि वे यहां का हो गया।
वे यहां कुछ देर रूकेगा मगर लगता नहीं है कि कुछ देर रूकेगा।
वे यहां बसेगा मगर लगता नहीं है कि वे यहां बसेगा।
वे खत्म होगा मगर लगता नहीं है कि वे यहां समाप्त होगा।

वे समाप्ति से बाहर होकर आया है। वे कहीं भी जा सकता है।

हूजूम अपने साथ जो लेकर गया है उसे कहीं ज्यादा वे छोड़कर गया है।


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बंद बोरे सड़क के किनारे किसी एक जगह पर पड़े। जिन्हे खोलकर देखना किसी के बस का नहीं है। हर रोज़ वहाँ पर कभी तीन तो कभी दर्जनों के हिसाब से छोटे बड़े बोरे कोई न कोई फैंक ही जातान जा रहा है।

लख्मी

Saturday, July 23, 2011

दो मिनट शहर के - पर किसके लिये?

मीलों का सफ़र करके घर लौटा, मैं जहां लौटा वो घर नहीं था।
वापस उसी रास्ते पर गया, मैं जिस रास्ते को लौटा वो रास्ता नहीं था।

मैं कुछ देर चला, मैं कुछ देर रूका, मैं कुछ देर ठहरा, मैं कुछ देर अटका, मैं कुछ देर भटका
फिर मैं घर को लौटा, मैं जहां लौटा वो घर था

मगर मैं "मैं" नहीं था।

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कुछ भगदड़ मची थी। लोग एक दूसरे से टकराने के लिये तैयार थे। हर किसी को टकराने के अहसास था। पर, टकराने वाले से अंजान थे। भीड़ मे होने के बाद भी भीड़ से कोसों दूर थे।

कोई सड़क के बीच मे खड़ा पैगाम बांट रहा था। किसी के पास उसे सुनने के वक़्त नहीं था। मगर पैगामों के मनचले भागमभाग मे वे सब फंसे थे।

वो हर चक्कर पर अपने हाथों से एक पन्ना उड़ा देता। कई पन्ने पूरी सड़क पर बिखर रहे थे। उन पन्नों को पकड़ने की कोई कोशिश भी नहीं कर रहा था पर वे जानता था कि सब अपने नाम का पन्ना तलाश रहे हैं।

कुछ देर वो यूंही पन्ने लुटाता रहा। फिर कई कोरे पन्नें सकड़ पर ही चिपका कर चला गया।

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बेइंतिहा धूंआ छाया है। रोशनी कभी उसे छेद देती तो कभी उसके पीछे किसी आशिकी जोड़े की भांति गुपचुप कुछ कहती। अचानक से कोई उसमे से निकल आता। कोई गा रहा है, कौन है ये पता नहीं। मगर उसकी आवाज़ में धूंएँ के पीछे जाने की लरक पैदा की हुई है। हाथ डालकर कुछ निकालने की तड़प ने धूंए को खतरनाक पौशाक से बाहर कर दिया है।

“मैंने अपने जीवन से कुछ नहीं दिया तुम्हे। तुम ही मेरे से हमेशा कुछ मांगते रहे। जब तुम जिद् करते थे तो मैं डर जाया करता था। मैं छोड़े जा रहा हूँ वो सब डर और उनमे छुपे वो तमाम किस्से जो तुम्हे तुम्हारी मांगी हुई चीज ना देकर कोई बात बता दिया करता था। वो तुम्हे फिर से शायद वही दर्द देगीं लेकिन मेरे उस डर का अहसास जरूर करवा पायेगीं जो मैंने हमेशा महसूस किया है।"

धुंआ बहुत बड़ गया है।

लख्मी

Friday, July 15, 2011

दो मिनट शहर के - पर किसके लिये?

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सड़के किनारे खड़ा वह शख़्स जिसे हर रोज़ वहाँ से गुजरने वाला देखता होगा। मगर शायद ही उसे कोई पहचानता होगा। उससे मुलाकात हर बार पहली बार की ही बनकर रह जाती है और वो मेरी याद में नहीं बनती। मैं उसे देखता हूँ, मैं उससे मिला हूँ मगर पहचान नहीं सकता। कभी सोचता हूँ उसकी तस्वीर खींचलू मगर वो पल में गुम हो जाता है। रेडलाइट की भीड़ में वो गायब हो जाने वाला चेहरा नहीं है मगर फिर भी खो जाता है। चेहरे पर हर मुलाकात मे वे नई दाड़ी मूँछ लगाये घूमता है - नई कोई ड्रेस में, नई किसी टोपी में - हाथों में पन्नी लिये आवाज़ नहीं मारता बस सीटी बजाता है। दाड़ी मूँछ नकली होती है मगर वो असली है। उसके लिये शहर के ये दो मिनट ही उस आठ घंटे की तरह है जिसमें वो उस झलक से कितनों के जहन पर अपनी ओर खींचता है। लेकिन हम दोनों का मिलन शहर मे खो जाने के बाद का है।



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एक आसान सा रास्ता - मेरा नहीं है मगर मैं उसका जरूर हूँ। वो मेरे वक़्त है मगर मेरे वक़्त का उसके ऊपर कोई जोर नहीं है। कोई खामोश निगाह नियमित घूर रही है। वो किसी की नहीं है। मगर सब उसके घेरे मे है। वे बदलती है और बदल सकती है। किसी खास लिबास मे नहीं है। वे गायब होना भी जानती है। कोई दूर खड़ा सोचता है ये निगाह मेरी है - और मैं पास मे खड़ा कल्पना करता हूँ ये निगाह उसकी है। हर कोई एक दूसरे की निगाह का कर्जदार बना है।



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रोशनी तीर सी जमीन पर गिर रही है। सब उसमें हैं - कोई बच नहीं सकता। कोई बचना भी नहीं चाहता। हर तीर उन नातों सी बनी है जो किसी को एक दूसरे का नहीं बनाती मगर एक दूसरे को बिना देखे जाने नहीं देती।

रेडलाइट पर गाड़ियाँ - रूकने हैं, ठहराव मे नहीं। समय के भीतर है जो गठ दिया गया है। पर ये कहने वाला कौन है? कहाँ है, किस रूप में है, किस लिबास में है? जो उस जगह को, रूकने को, गाड़ियों को एक साथ देख सकता है। जो शायद उसमें नहीं है - मगर शायद उससे दूर भी नहीं है। वे उसके साथ भी है लेकिन उसके भीतर नहीं है।

सफ़र मे है . . . .