Friday, July 15, 2011

दो मिनट शहर के - पर किसके लिये?

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सड़के किनारे खड़ा वह शख़्स जिसे हर रोज़ वहाँ से गुजरने वाला देखता होगा। मगर शायद ही उसे कोई पहचानता होगा। उससे मुलाकात हर बार पहली बार की ही बनकर रह जाती है और वो मेरी याद में नहीं बनती। मैं उसे देखता हूँ, मैं उससे मिला हूँ मगर पहचान नहीं सकता। कभी सोचता हूँ उसकी तस्वीर खींचलू मगर वो पल में गुम हो जाता है। रेडलाइट की भीड़ में वो गायब हो जाने वाला चेहरा नहीं है मगर फिर भी खो जाता है। चेहरे पर हर मुलाकात मे वे नई दाड़ी मूँछ लगाये घूमता है - नई कोई ड्रेस में, नई किसी टोपी में - हाथों में पन्नी लिये आवाज़ नहीं मारता बस सीटी बजाता है। दाड़ी मूँछ नकली होती है मगर वो असली है। उसके लिये शहर के ये दो मिनट ही उस आठ घंटे की तरह है जिसमें वो उस झलक से कितनों के जहन पर अपनी ओर खींचता है। लेकिन हम दोनों का मिलन शहर मे खो जाने के बाद का है।



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एक आसान सा रास्ता - मेरा नहीं है मगर मैं उसका जरूर हूँ। वो मेरे वक़्त है मगर मेरे वक़्त का उसके ऊपर कोई जोर नहीं है। कोई खामोश निगाह नियमित घूर रही है। वो किसी की नहीं है। मगर सब उसके घेरे मे है। वे बदलती है और बदल सकती है। किसी खास लिबास मे नहीं है। वे गायब होना भी जानती है। कोई दूर खड़ा सोचता है ये निगाह मेरी है - और मैं पास मे खड़ा कल्पना करता हूँ ये निगाह उसकी है। हर कोई एक दूसरे की निगाह का कर्जदार बना है।



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रोशनी तीर सी जमीन पर गिर रही है। सब उसमें हैं - कोई बच नहीं सकता। कोई बचना भी नहीं चाहता। हर तीर उन नातों सी बनी है जो किसी को एक दूसरे का नहीं बनाती मगर एक दूसरे को बिना देखे जाने नहीं देती।

रेडलाइट पर गाड़ियाँ - रूकने हैं, ठहराव मे नहीं। समय के भीतर है जो गठ दिया गया है। पर ये कहने वाला कौन है? कहाँ है, किस रूप में है, किस लिबास में है? जो उस जगह को, रूकने को, गाड़ियों को एक साथ देख सकता है। जो शायद उसमें नहीं है - मगर शायद उससे दूर भी नहीं है। वे उसके साथ भी है लेकिन उसके भीतर नहीं है।

सफ़र मे है . . . .

1 comment:

रज़िया "राज़" said...

वो अनजान है पर ...तितर-बितर करके चला जाता है ज़िन्दगीयों को वो अनजान-सा।