Wednesday, July 27, 2011

दो मिनट शहर के

एक शख़्स :
मेरे पिताजी अक्सर कहते हैं अपने काम करने के समय से, "मैं कभी घर पर बैठूगां नहीं - अगर बैठा तो अपने काम से लेकिन अपनी उम्र से नहीं" आज ये बात सोच पा रहा हूँ। मेरे साथी ने एक बार कामग़ार शख़्स के बारे कहा, “कोई शख़्स अपने काम से वापस लौटता है - थका हुआ लेकिन दूसरे दिन फिर से तैयार हो जाता है उसी शहर में जाने के लिये।"

ये दोनों बाते एक दूसरे के लिये बिलकुल भिन्नता में है। पिताजी जब वापस आने को बोलते हैं तो वापस आना उनके लिये घर लौटना नहीं है। बल्कि वे वापस जाने को भी सोचने की कोशिश करते हैं। और मेरा साथी - वापस जाने को सोचा है आने को नहीं। घर लौटना उसको तैयारी देता है अगले दिन की। उस चिड़िया की तरह है जो उड़ान भरकर टहनी पर बैठी है। सुस्ताने के लिये नहीं बल्कि कहीं जाने के लिये। पर उसका टहनी चुनना, समय चुनना, आसपास चुनना, थकान चुनना उसके वहाँ पर आने मे निहित है। वे लौटती नहीं है -

वापस आने में परिवार उनके लिये बहाना नहीं है। काम उन्हे वहाँ पर फैंकने के लिये नहीं है। शरीर के लिये कोई आरामदायक जगह नहीं है। वापस आना मतलब उनके लिये उस रूप मे आना है जो इन सब बेरिकेडो से बनकर लोहा लेता है जीने का। बहस से बना है, जीने की जिद्द से बना है -

मैं जब ये सोच पाता हूँ तो उनका घर आते ही बाहर निकल जाना समझ मे आता है या कभी ना आना, देर से आना, किसी के साथ आना ये समझ मे आने की कोशिश करता है।

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एक और शख़्स :
मेरे लिये थकना बहुत जल्दी हो जाता है। मगर वो मेरे शरीर का होता है। मैं शरीर से थकने को मेरे थकने का नाम नहीं देना चाहता। जब मैं थकने को सोचता हूँ तो मेरे दिमाग में एक शख़्स का चेहरा आता है। जो मेरे पास साइकिल से 8 किलोमीटर का सफ़र तय करके आते हैं अपना कुछ सुनाने के लिये और जब मैं उनके सुनाने के बाद में उनसे कुछ सवाल करता या चुप भी रहता तो वे मुझे देखते रहते। कभी अगर कुछ लिखने को कहता तो तभी तुंरत लिखने बैठ जाते। तब लगता है थकान शरीर से ही है शायद, लेकिन उसमे रंग किसी और अहसास का भरा जा सकता है।

फिर आना - जाना, रास्ते लम्बे होने के अहसास से भी दूर हो जाता है। मैं सोचता हूँ कि मैं अपने जीवन के किन हिस्सों मे जाऊं जो मुझे इस तरह की थकावट में ले जाये? मगर उसमें मुझे वे नज़र आता है जो मेरे मन लगे काम से जुड़ा है। इससे बाहर नहीं है।

लख्मी

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