Friday, July 29, 2011

सुबह का चलना

हवा काफी तेज़ थी। दिया जलता और भवक कर बूझ जाता। माचिस मे तीली भी कम ही थी। उसने बहुत ओट बनाकर दिया जलाने की कोशिश की मगर दिया जलने का नाम ही नहीं ले रहा था। गलती से आज वो सुबह चार बजे की बजाये तीन बजे ही उठ गया था। सुबह – सुबह उसको पूरी तरह से आदत हो गई थी के चार बजे अपने आप आँख खुल जायेगी और वो रात के खत्म हो देख पायेगा। उसी मे उसका दिया जलाने का काम भी निबट जायेगा।

अपने कलोनी से वो काफी दूर आ गया था तो वापस जाकर माचिस लाना उसके बस का नहीं था और दिया भी उजाला होने से पहले ही जलाना था। वो यहाँ से वहाँ देखता रहा। ताकि कोई दिख जाये तो वे माचिस मांगले। लेकिन इस वक़्त मे कोई नहीं दिख रहा था।

अचानक से उसे दूर कहीं रोशनी मे कोई आता दिखाई दिया। यहाँ पर बस, एक ही दुकान के बोर्ड की लाइट पूरी जगह मे चकम रही थी। जैसे ही कोई उसके दायरे मे आता तो चमक उठता नहीं तो वो ऐसे गायब होता जैसे परछाई अंधेरे मे। हर कोई उस अंधेरे मे जाकर परछाई बन जाता।

ये कोई शख़्स था जो आता दिखाई दिया। उसने सोचा की इन्ही से माचिक मांग लेगा। वो शख़्स जैसे ही इनके करीब आया इसने आवाज़ मारनी शुरू की। "भाई साहब, भाई साहब" मगर वो तो सीधा चलता चला गया। ये कैसे हो सकता था की उनको न तो इसकी आवाज़ सुनाई दी और न ही ये दिखाई दिया। वो शख़्स पहाड़ी की तरफ मे चला गया और थोड़ी ही देर मे गायब हो गया। ये इधर -उधर फिर से नजरें घुमाने लगा। इतने मे इसे महसूस हुआ की इसके पीछे कोई खड़ा है। लेकिन ये पीछे मुड़कर नहीं देख पा रहा था। किसी के सांसे लेने की बहुत जोरो से आवाज़ आ रही थी। ये चाहकर भी पीछे नहीं देख पा रहा था। ऐसा लगा जैसे कोई इसके पीछे से इसकी कमर को पकड़ रहा है। इसने इस बार झटके से पीछे मुड़कर देखा। वही आदमी था जो अभी यहाँ से गुज़रा था। ये उस आदमी को देखता रहा। वो भी कुछ नहीं बोला और ये भी बस, उसे देखता रहा।


लख्मी

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