Tuesday, July 26, 2011

दो मिनट शहर के

सबमे कहीं जाने की होड़ सी लगी है। हर कोई किसी न किसी सफ़र में खुद को जबरदस्ती घुसा दे रहा है और कहीं निकल जा रहा है। सब लगते जैसे सबसे दूर और अलग जाना चाह रहे हैं। हर रोज़ एक गाडी आती जो शहर घुमाने के लिये लेकर जाती। सब तैयार होकर उसमे बैठने के लिये मारामारी करते। मगर किसी - किसी को ही उसमे सीट मिलती। मैं भी हर रोज़ उसकी लाइन में खड़ा होता हूँ अपना सबसे अच्छा और खूबसूरत कपड़ा पहनकर। एक दिन उसमें सीट मिल ही गई।


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रंगीन छत के सड़क के बीच में आते ही सबकी नज़र उसके वश में हो गई।
एक शीसे से बना मकान फुटपाथ पर खड़ा है।
बीस हजार पन्नों की किताब बस स्टेंड पर रखी है।
80 मीटर लम्बा पेन रेड लाइट के नीचे पड़ा है।
500 लीटर का मटका सड़क के किनारे रखा है और लोग उसमे से पानी पी रहे हैं।
एक पारदर्शी दिवार है जिसमे अनगिनत किताबें रखी हैं।
200 फिट बड़ा स्पीकर लगा है जिसमें से ढेहरों आवाज़ें लगातार आ रही हैं।
एक हैंड बेग जिसमें 350 जेबें हैं।
एक बस जिसमे दरवाजे ही दरवाजे हैं।
सड़क के किनारे बना शौचालय जो शीसो से बना है।

जो शहर दिख रहा है उसे एक बार और देखने के लिये आंख बनानी होगी।

लख्मी

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