Monday, September 12, 2011

वो हर वक़्त कुछ कुरेदते रहे हैं।

शिवराम जी, शमसानघाट से बाहर निकलते समय कभी पीछे मुड़कर नहीं देखते लेकिन जब शमसानघाट मे दाखिल होते हैं तो पीछे मुड़कर जरूर देखते हैं। वे कहते थे कि मैं जब यहाँ पर आता हूँ तो उसे जरूर देखता हूँ की मेरे पीछे कोन आ रहा है लेकिन जब यहाँ से बाहर जाता हूँ तो पीछे मुड़कर नहीं देखता क्योंकि मुझे लगता है कि मेरे साथ बहुत सारे लोग चलकर आये हैं।

उनका दिन यहाँ पर किसी ऐसी रात से कम नहीं था जिसे वे जीना चाहते हैं। जो बिना दायरे के और बिना समाजिकता के चल सकता है। जब हम उनसे कोई पूछता था की तुम ये काम क्यों करते हो?, ये तो हमारे खानदान मे किसी ने नहीं किया और जो समाज नहीं चाहता, उसे कोई नहीं कर सकता। तो वे अच्छी तरह से समझते थे कि उनसे क्या पूछा जा रहा है। मगर वे कहते थे कि बिना समाज के और बिना रिश्तेदारी के भी एक जगह है जो चल सकती है, जिन्दा रह सकती है। वे ये है।

इसलिये वे यहाँ से पीछे मुड़कर नहीं देख सकते थे और जब घर से यहाँ आते तो देखते थे।

उनके साथ बातचीत :

राजन ने पूछा, "आप अपनी थकान कैसे चुनते हैं? वो जो जिसे आप कोसना नहीं चाहते।”
शिवराम जी शमसानघाट में अस्थी की राख के ढेर में कुछ कुरेदते हुए बोले, “मैं पूरा दिन यहाँ आती भीड़ के भीतर अकेले महसूस होते हुए नहीं थकना चाहता।, राख मे कुछ कुरेदते हुये नहीं थकना चाहता, लोग आते हैं, कुछ देर बैठते और फिर चले जाते हैं ये मुझे बेहद अच्छा लगता है। मैं उनका फिर देखने के इंतजार मे नहीं थकना चाहता। मैं अखबार पढ़ते हुये और नये काम की सोचने मे नहीं थकना चाहता। यहाँ पर जब लोग आते हैं तो लगता है कि सारा रोना - धोना घर छोड़ आये हैं या वो जो जा रहा है वो इन सबके आंसू अपने साथ लेकर जा रहा है। मैं इन बातों मे रहकर मस्त रहता हूँ। इन्ही में रहना चाहता हूँ, इनको रात मे याद करते हुये कभी जिन्दगी मे थकना नहीं चाहता।"

राजन ने पूछा, “कब लगता है - मुझे अब अपने जीने के तरीके पर सोचना होगा?”
शिवराम जी अब भी उसी राख में से कुछ निकाल रहे थे - कुछ चुनते हुये बोले, “कई बार लगता है कि अपने आप को बदल लो, मगर वो सब नुकशान या मुनाफे के भीतर होता है। पर मुझे यहाँ पर आने के बाद मे लगा की ये जगह हमें ये सोचने के लिये नहीं कहती। लगता है कि यहाँ पर जीवन बहुत बदल गया है। खासकर उस जीवन से जो मुनाफे और नुकशान के जवाब मांगता है। मैं कहता हूँ की अगर मुनाफा और नुकशान से डरकर अगर आप अपने जीने के तरीके को बदलोगे तो ये तुमने थोड़ी बदला। ये बदलना पड़ा। मजा तो तब है जब बिना वज़ह के जीने का तरीका बदलना हो। जिसमें हमें जीने का जो तरीका है उसके बदलाव का पता हो ना कि उसके कारण का।"

राजन ने पूछा, “जीवन के वो कौन से पल या दर्शन हैं जो आपको अपनी छवि यानि जो अब हम हैं उससे खिसका देते हैं?”

शिवराम जी बोले, “मैं क्या हूँ और मैं क्या था, दिन में ज्यादा बार सोचा नहीं जा सकता। मैं इस जगह में जो करता हूँ उसे करते समय मैं खुद से पूछूँ की मैं तो ये पहले कभी नहीं करता था तो ये सब कुछ मेरी बेबसी की कहानी बन जायेगी। तब लगता है कि सारी खाल उतार दूं जो मैंने पहन रखी है। बहुत कुछ होता है एक ही दिन में जो पूछता है कि "तू कौन है"

राजन ने पूछा, “जीवन में कब "कहाँ" का ख्याल आता है?”
शिवराम जी अस्थियों वाले कमरे मे घुसते हुए बोले, “यहाँ पर आने के बाद मे लगता है कि "अब कहाँ" मैं यहाँ पर काफी काफी देर तक खड़ा रहता हूँ। कभी-कभी तो बातें तक करता हूँ यहाँ पर बैठकर। खुद को सोचता हूँ की मैं भी यहीं इन्ही के बीच मे कहीं पर लटका हूँ और कभी लगता है कि ये मेरे बस का नहीं है। मैं तो ये कगरा कितना शांत है, लगता है कि यहाँ पर लटकी हर थैली बात करती है। मैं कहाँ जा सकता हूँ यहाँ से? इन सबके अब ना तो कोई रिश्ते है और ना ही कोई काम, ये तो अपने कहाँ पर पहुँच गये हैं लेकिन मुझसे कह रहे हैं कि शिवराम तू आपको नहीं लगता ऐसा?“

राजन ने पूछा, “ये लौटना क्या है? हम कब "वापसी" को सोचते हैं?“
शिवराम जी बोले, “लौटना वो है जब आपके हाथ मे कुछ हो। लेकिन वापसी वो है जब आपके हाथ मे कुछ ना हो लेकिन आपके साथ कोई हो। मैं जब कुछ समान नहीं लेकर घर जाता था तो मेरी बीवी बहुत बातें मुझे सुनाती थी। लेकिन जब मैं कुछ समान अपने साथ लेकर जाने लगा तो वो उस समान को अन्दर ही नहीं लेती। मगर मैं दोनों हालात में घर के अन्दर दाखिल हो जाता था। मैं ये सोचता था कि मेरी बीवी को चाहिये क्या? वापसी क्या इनकी तरह नहीं हो सकती। जैसे यहाँ पर कोई वापसी नहीं करता। लेकिन यहाँ से वापसी करता है। मैं भी यहीं से वापसी करता हूँ।"

"वापसी" भीतर से सोचते हुये महसूस हुआ की जीवन में वापसी का अहसास अपने से बाहर लेकर जाने की कोशिश है ना की अपने भीतर ही लौटना है। शिवराम जी के साथ बातचीत में लगा की उनका घर लौटना और शमसान के मे वापस आना ही उनका जीवन के "कहाँ" के सवाल यहाँ आकर एक ठहराव लगा। मेरे उनसे बातें करने की कोशिश में। और बेकारगी के बिना जीवन की कल्पना करने की इच्छा उन्हे इस जगह से जोड़े रहती है। हमें “मेरी जिन्दगी में सब बदला कैसे मैं नहीं जानता लेकिन मैं बदलाव में कैसे बदला को मैं कई बार सोचा हूँ"

लख्मी

3 comments:

Neelkamal Vaishnaw said...

Rakesh & Lakhmi jee आपको अग्रिम हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं. हमारी "मातृ भाषा" का दिन है तो आज से हम संकल्प करें की हम हमेशा इसकी मान रखेंगें...
आप भी मेरे ब्लाग पर आये और मुझे अपने ब्लागर साथी बनने का मौका दे मुझे ज्वाइन करके या फालो करके आप निचे लिंक में क्लिक करके मेरे ब्लाग्स में पहुच जायेंगे जरुर आये और मेरे रचना पर अपने स्नेह जरुर दर्शाए..
MADHUR VAANI कृपया यहाँ चटका लगाये
BINDAAS_BAATEN कृपया यहाँ चटका लगाये
MITRA-MADHUR कृपया यहाँ चटका लगाये

सम्पजन्य said...

shandar vichar ...!!!

Ek Shehr Hai said...

बहुत बहुत शुक्रिया साथियों,

हम जरूर पढ़ना चाहेगें आपको और आपकी कल्पनाओं को। इन दिनों हम अपनी एक नई किताब को लिखने मे जुटे हैं। कोशिश करेंगे की वे आपको सम्मुख जल्द ही आये।

आप ऐसे ही अपने विचार, सवाल और बहस हमारे लिये रखते हैं। साथ ही कुछ लेखन भी हमें बांटे। हम इच्छुक हैं।

धन्यवाद
लख्मी