Wednesday, October 19, 2011

उल्टी पड़ती लहरें



कुछ आवाज़ें उन चेहरों की तरह होती है जिन्हे याद रखने के लिये कभी ख्यालों मे नहीं रखा जाता।

भिन्न होती आवाजें उस ओर जाने के लिये तैयार थी जहां का उन्हे रास्ता नहीं पता था
मेरी उलझने मुझे उन रास्तों का कहती है।
मेरे हर पल जो बितते हुए पलों से टकराते चलते थे
वो उन चेहरों मे बदलने लगे जिन्होनें उन रास्तों का कभी खुद को माना नहीं।

छोटे कागजों के टुकड़े इधर से उधर हवा मे तैर रहे हैं
कभी हवा उन्हे एक ही जगह पर रोक लेती है और कभी अपनी पूरी ताकत के साथ किसी और दिशा मे फैंक देती है।
मैं उन सभी कागज़ों को बीच मे खड़ा हूँ
ये देखने की कोशिश मे की, वे कब तक किसी एक ही जगह पर टिके रहते हैं।

राकेश

मेरी थकान

एक दिन मेरी थकान मुझसे बोली, तू मुझे लेकर जायेगा कहां?
मैं थोड़ा हिचकिचाया, थोड़ा हैरान हुआ - मेरी थकान मुझसे बात कैसे कर सकती है। क्या वो भी बोल सकती है। कुछ पल की शांति ने शायद ये किया होगा? शायद मेरे कान बज रहे होगें। वो तो मुझे मारती है, मेरे शरीर से उसकी दुश्मनी है, उससे मेरी रोज लड़ाई होती है। पर मैंने कभी उसे जीतने नहीं दिया। और अंत में मैं उसका कातिल बन गया।

पर वो तो मरती ही नहीं, बस शांत हो जाती है। आज वो बोली, "तू मुझसे जीतने का घमंड करता है। फिर भी तू रोज डरता है। तु सिर्फ इतना बता की क्या तू अपनी थकान को खुद चुनता है?"

मैं कहां सुस्ताऊंगा को चुनता हूँ,
मैं कहां ताजा होऊंगा वो चुनता हूँ
मैं कहां खो जाऊंगा वो चुनता हूँ
मैं कहां मिल पाऊंगा वो चुनता हूँ।

ऐसा क्या है जो मैंने छोड़ दिया, इस सवाल ने इन सबका रास्ता मोड़ दिया,

लख्मी

Tuesday, October 4, 2011

ये कोई अनोखी दुनिया नहीं है

पांचवा दिन - ओखला

डब्बा फेक्ट्री जो ओखला में है, वहां पर सुरेश नाम का एक शख़्स फैक्ट्री मे मोटे तौर पर मजदूर के ऊपर काम करता है। उनका दिल्ली मे आने का एक खास तरह का मक्सद था, पर वो उस मक्सद मे कामयाब नहीं हो सका लेकिन उसके बाद उन्होने कोशिस करना नहीं छोड़ा, काम की तलाश मे उनको ओखला में उनके जिले का एक शख़्स मिला। उसने ओखला मे काम करने वालो के बारे मे बताया और कहा की आप को मैं कहीं फिट कराऊगां। यहां पर वही जमता है जो जो कुछ कलाकारी जानता हो, यानी कोई ज्ञान होना जरूरी है। उसने सुरेश को अपने जीजा के साथ डब्बा बनाने की जगह मे भेज दिया जहां पर हर रोज छोटे और बड़े गत्ते कि डब्बे बनते थे। डब्बे बनाना सुरे को आता नहीं था। शुरूवात मे वो कारीगर के साथ उसकी मदद करने के काम मे लगा, जिसे हेल्पर कहते हैं।

500 किलो के कुछ पेपर को रोज मशीनो मे डालकर काटा जाता था। फिर पेस्टिंग कर उन्हे गोंध से चिपकाने के बाद कटिंग की जाती। तरह तरह कि मशीनो के सातह उसको रहने की आदत सी पड़ गई। वो रोज ओखला से, संगविहार जाता और अकेला ही वो अपने गांव से यहां संगमविहार मे रहता था। मगर उसका सारा धचयान अपनी मशीनो मे लगा रहता। 12 घंटे के काम के बाद भी उसका मन नहीं भरता था। उसका लगता था की वो घर आने के बाद भी वहीं उन्ही मशीनों मे है। सिखने के इस दौर मे और कमाई के सफर में उसके सपने तक बदल गये थे। शहर और उसकी आवाजों के साथ मशीन का शरीर और आवाज उसके कान मे हमेशा गूंजती रहती।

शुरू मे जब वो मशीनो मे रहता था तो उसका कैंद्र मशीनो के पुरजों पर छाया रहता था। वो उन्हे काटने और बनाने के काम को देखता रहता था। मशीन कैसे चलती है और काम कैसे करती है वो इसको बडी ध्यान से देखता और जब मालिक चला जाता तो मशीनो को स्टार्ट करके उन पर काम करने की कोशिश करता। ओखना वो साइकिल से ही जाया करता। अब बस में चड़ना - उतरना उसे परेशानी देने वाला सफर लगता। लेकिन बाकी मजदूरों के साथ काम करते करते उसे इसकी आदत हो गई थी। वो जब यहां आया था तो उके रहने का कोई इंतजाम नहीं था। और फैक्ट्री के मालिक को कोई ऐसा बंदा चाहिये था जो दिन मे काम भी करे और रात को फैक्ट्री मे रूक कर रात मे भी काम करवाना हो तो कारीगरों को कंपनी मिल जाये। ये काम भी हो जाये। सो सुरेश को काम की सारी शर्ते मंजूर हो गई थी।


सुरेश नया था मगर उसके काम करने का जूनून बहुत पहले का था। काम चाहे जो भी हो वो कोशिस करने से क्या नहीं हो सकता। वो इसे मानकर जीता था। वो ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था। मगर सेंटीमिटर, स्क्यर, मेप का उसे आइडिया भी हो गया था। उसके बाद फैक्ट्री मे एक शख़्स काम करने के आया। वो था मंगलू जो कभी गलियों में कबाड़ जमा करता था और गोदाम मे बेच आता था। मंगलू का अपनी अदा है। वो अपने काम को खुद करता है। नियम है कि कब क्या करना है और मोबाइल पर गाने सुनने का सुख बस इस मे अपनी दुनिया बनाया है और उसे बेशक जीता है। वो स्टींग मशीन पर ज्यादा काम करता है। जो मेप, द्वारा बनाई गये गत्तों को सही करती है। इस तरह की कुछ और भी मशीने है। जैसे लॉटरी पेटींग कटिंग, चैन लौटाल जिस पर सारे मजदूर काम करते हैं। घंटो का काम मिंटो मे होता है।

ये कोई अनोखी दुनिया नहीं है, असल मे कोई दुनिया अनोखी नहीं होती, उसे अनोखा बनाया जाता है। जो सुरेश, मंगलू और उनके साथ रहने वाले वो लोग जो किस दुनिया से आये है को कोई नहीं पूछता, बस जो सामने है उसे देखकर हंसते हैं जिन्दगी को।

राकेश

उनको पकी नज़रों से नहीं देखा जा सकता

15 ब्लॉक मार्किट – एक कमरा जहाँ पर सितारे बिखरे पड़े थे और कोई नहीं था। आशा वेदप्रकाश जिनसे मैं मिला। ये अभी बीए पास कोर्स कर रही हैं। उम्र ज्यादा नहीं है, मगर हर बार पढ़ाई छूट जाती है लेकिन इस बार इन्होने छूटने नहीं दिया। पीस बनाती हैं, घर-घर देकर आती है, काम के लिये औरतों को कनवेंश करती है और उनके साथ काम करती है। हर रोज़ पीस लेने ये सुबह निकलती है और साथ ही जो हर दिन के हिसाब से काम करते हैं उनका पैसा लाती है और जो महीने के हिसास से काम करती है उनका हिसास लिखवाकर लाती है। हर रोज़ सबके कहने के अनुसार ये काम लाती है।

पूछने वाला, "हमें कब लगता है कि अपने समय को अब हमें खुद से बांधना होगा?”
आशा वेदप्रकाश, “ जब लग रहा हो की अपने लिये कुछ भी निकालना नहीं हो पा रहा है। कितना भी कोशिश करलो लेकिन निकालना मुश्किल हो रहा हो तब मन किलसता है- गुस्सा भी आता है मगर इसी के अन्दर कोई काम अच्छा हो रहा हो तो लगता है कि अपने लिये टाइम क्यों चाहिये? पर हर वक़्त तो नहीं ऐसा नहीं चाहिये। कुछ पाने की खुशी ही सब कुछ नहीं होती है ना! अगर यूंही समय को नहीं खुद से बांधा गया तो एक ही चीज़ को करने में रह जायेगें आगे कुछ नहीं होगा।"

पूछने वाला, "समय के बंधन के बाद मे खुद की कल्पना किस रूप या प्रकार मे करने की कोशिश उभरती है?”
आशा वेदप्रकाश, “मैं ये सोचती हूँ की मेरी क्या पहचान होगी? मुझे लोग कैसे जान पायेगें? मैं चाहती हूँ कुछ करूँ, कुछ ऐसा जो मैंने किया हो। मेरे परिवार मे किसी ने ना किया हो। अभी मालूम नहीं है मगर करना चाहती हूँ। जब हम समय के बंधन से बाहर है या समय को खुद बांध रहे हैं तो ख्याल उड़ने लगते हैं। तब तो आप कहीं भी जा सकते हो। इन्ही के बीच में मैं कल्पना करती हूँ कि लोग मेरे पास आये मुझसे बात करने और मैं लोगों के पास जाऊँ। बस मेरे आसपास माजमा जमा हो।"

पूछने वाला, "कब हम किन स्थितियों से अपने आपको एकांत और असंख्य में देख पाते है? उस एकांत में होना या असंख्य में होना क्या होता है?”
आशा वेदप्रकाश, “मैं हर रोज़ के झमेलों से दूर जाना चाहती हूँ लेकिन इनमें मुझे रहना पड़ेगा। मुझे एकांत पसंद नहीं है, अगर वे खमोशी मे जाये तो। इतना शोर है आसपास में क्यों मैं दबी सी रहूँ। क्यों ना बातें करूँ, दूसरों की सुनूँ। लेकिन कभी लगता है कि जब हमें इन्ही झमेलों से, घरेलू कामों से और इसकी बंदिशों से नफरत होने लगती है तब लगता है कि एकांत हो। इनसे बाहर निकला जाये। किसी ऐसी जगह पर जाया जाये तो इन सबसे बाहर हो, इतनी बाहर नहीं की वापस ना आया जाये लेकिन बाहर हो। थोड़ी दूरी पर।"

पूछने वाला, "हमारे लिये कोई जगह बनाकर देगा तब हम जीना तय करेगें या हम भी कभी बनाने वाले बनेगें? कब ये सोच आती है कि अब हमें बनाने वाला बनना है?”
आशा वेदप्रकाश, “अब तक तो ऐसा होता आया है कि हमारे लिये किसी ने जगह बनाई है। घर मा-पिता ने बनाया और बाकि सब सरकार ने बनाया। लेकिन एक जगह है जो किसी ने नहीं बनाई बस बन गई। जैसे मेरी मां का घर, वे किसी को बुलावा नहीं देकर आई फिर भी हर रोज़ घर में कई औरतें आकर बैठती है और फिर शुरू होता है दिन। वे सब ऐसे बातें करती हैं जैसे फिर कभी नहीं मिलेगी। अगर किसी ने बात शुरू करदी तो आज ही खत्म करके जायेगी चाहें कितनी ही देर उसे हो जाये। और मेरी मां भी इसी मे खुश रहती है।"

पूछने वाला, "कब लगता है कि हमें अपने याद और अतीत के बाहर जाकर जीना होगा?”
आशा वेदप्रकाश, “हम अपने बारे मे कब तक बता सकते हैं? हर वक़्त तो यह नहीं किया जा सकता। जब तक हम यह नहीं समझ सकते तो क्या अपने आने वाले समय को सोच पायेगें? बिलकुल नहीं। जब मैं अपने बीते समय को सोचती हूँ कुछ नज़र नहीं आता। लगता है जैसे आँखों से मिट गया है। जब उससे बाहर निकलकर देखती हूँ तो कुछ साफ तो नहीं दिखता लेकिन फिर भी लगता है जैसे अब जाया जा सकता है।"

पूछने वाला, "इसमें "तलाश" क्या है? तलाश को किस तरह समझे? उसमें कितनी जगहों का असर मौजूद रहता है?”
आशा वेदप्रकाश, “तलाश तो होती है, बिना तलाश के तो कुछ नहीं है। कौन जितना वो कर पाया है उसमें खुश रहता है? मैं तो खुश नहीं रहती है। तलाश तो हमें एक्टिव रखती है। ऐसा लगता है कि अभी बहुत कुछ करना बाकी है। महज़ अपने लिये ही नहीं बल्कि अपने साथ कई औरों के लिये। तलाश दो चीज़ों से तो बनी होती है - पहली : अपने लिये और दूसरा : अपने से किसी और के लिये।"

पूछने वाला, “अगर किसी चीज़ का अंत का पता न हो तो वे जीवन में जिन्दा कैसे रहती है?”
आशा वेदप्रकाश, “तभी तो वो जिन्दा है, अगर अंत हो गया तो समझो वो गई। वो जिन्दा रहती है ऐसे की उसे कुछ और नहीं चाहिये। वे हर रोज़ आपके सामने आकर खड़ी हो जायेगी। लगेगा जैसे कुछ बोल रही है। लेकिन शायद हमें समझ मे नहीं आता। रोज़ उससे मिलकर जाओगे, शाम को आकर मिलोगे, अपने साथ लेकर जाओगे और वापस भी लेकर आ जाओगें मगर वो मरेगी नहीं।"

लख्मी