Friday, December 21, 2012

उसे कल रात मालुम हुआ की वो सड़क पर है





इंतजार करना

किसी जगह के इतना करीब आ जाना कि जिससे बाहर निकलना खुद के वश से भी बाहर हो जाये। उस अजनबी स्थान के जैसा जो अपने साथ कई छवियों की गुंजाइशें लिये चलते हैं। जैसे एक खुली तस्वीर हो और उसमें समय की छुअन को महसूस करने की आजादी हो। अजबनी कहां मिलते हैं? और जहां मिलते हैं वहां उनके सामने मैं क्या हूँ?

एक रास्ता जो भीड़ से लदालद है, कोई उसमें से अपने लिये कुछ खींच रहा है। वे क्या खींच रहा है वो अस्पष्ट है मगर वो नियमित किसी खींचने मे उसका आभाव समतल नहीं है। किसी विस्तार होती ध्वनि के सामने खड़े हुये खुद को पाने की कोशिश के समान। खुद को विभिन्नता लिये रूपों के बीच में खोने के जैसा या खुद को उस खोने के भीतर संभालने के जैसा। वे निगाह को तलाश रहा है। वे जो उसकी ओर आयेगी। वे जो उसकी निगाह से टकरायेगी। वे जो उसके लिये होगी। मगर इस समय के बहाव में रूपों की तेजी उसे अपनी ओर खींच ले रही है। वे कई निगाहों से टकरा रहा है। वे कुछ झणिक पलों में किसी के लिये उसका बन जाता है और फिर एक ही पल में फिर से वही बन जाता है जिस लिबास में वो आया है। ये नियमित चलता है। रूपों के मेले में किसी ऐसे किरदार की तरह जो कहीं चलते हुये रूक गया है। 

कोशिश की पोटली में छिटक कर गिरा व बचा हुआ समय जो किसी को मिलने के निकला है।




बिखरी हुई चीजों को उठाना

लकीरें खीची हैं, एक दूसरे पर चड़ी हैं, कहीं जा रही हैं, मिट्टी है तो कहीं पर गाढ़ी हो रही है। उसके पीछे कई पेरों की छापें दौड़ में है। बिना किसी आवाज़ व ध्वनि के वे किसी के होने के अहसास को जिन्दा बनाये रखे हैं। सुनाई देती है, कुछ कहती है। मगर वे किसकी है वे अहसास नहीं लगाया जा सकता। मगर उसके पीछे खुद को लपेटे हुये चला जा सकता है।

बेमूरत होती चीजें अपनी मौजूदा छवियो से बिफर गई है। विरोध मे हो गई हैं। कोई बड़ी मूरत नहीं है। बस, आड़ी तेड़ी, धूंधली गाढ़ी लकीरें हैं। जो किसी हूजूम को खुद मे बसाये हुये है।

चीजें खुद ब खुद समेट लेने की चाह में उन लकीरें में बस गई हैं। वे जो छाटने मे नहीं है और ना ही अपने वश मे करने मे हैं। वे उस चुनाव की चौखट पर खड़ी है जहां से चीजें अपने से दूर की नहीं होती। वे कोई धातू नहीं है। वे खुद को व्यक़्त करने की चाह में शक़्ल लेती है। कोई अपनाने मे है मगर इस अंधविश्वास के तहत की ये अपनाना अपना बनाने से बाहर है।

अनगिनत छाप किसी अनछुये अहसास की तरह किसी राह की रहनवाज होती हैं। जो उस न्यौतेगार की तरह है जिसमें बिना किसी रिश्ते के जिया जा सकता है।



कुछ खोना

कोई यहां आने वाला है और सब यहां से जा‌ने वाले है के बीच है अभी यह समय और जगह। ये बीच की धारा वापसी के लिये नहीं बनी। मगर फिर भी कुछ खोना - गायब हो जाने से बेहतर है। नक्शे मे नज़र आती उन तेड़ीमेड़ी राहों की तरह जिनके साथ चला जाये तो कब किस मोड़ पर चले जायेगे का अहसास जिंदा रहता है। वे राहें एक दूसरे को काट रही है या हम उस कटने के भीतर होकर उसे सिर्फ एक राह समझ रहे हैं में दुविधा है मगर फिर भी जीवंत है।

कब कोई पहचाना जाता है? शायद पहचाने जाने से पहले वो खोया हुआ है।

हर कोई कुछ खोता जा रहा है और खुद उस खोये हुये तालशने मे खोया है। दोनों के बीच मे बसी दुनिया उसे अपने मे समेट लेने के लिये है। मगर वो दुनिया जो छिद्रित और छोटे दृश्यों मे दिखती है उसका पूर्ण रूप गायब होकर भी अस्पष्ट है।




रोना (घर के बाहर)

दायरों के भीतर और दायरों के बाहर अपनी आकृतियां हर बार किसी नये रूप मे चली जाती है। इनका जाना कभी हमारे खुद के चुनाव से होता है तो कभी वे अकस्मात आकर चौंका जाती है। चुनाव के कटघरे मे ये आकृतियां अभिनय या लिबास मे खुद को चिंहित कर जाती है और अकस्मात आते रूप खुद को भी अपने ही सामने खड़ा कर देते है जिसमें हम खुद को पहचानने से इंकार करना भी चाहे मगर नहीं कर सकते।

अकस्मात आते रूप हमारे नहीं है, हमारे से है मगर महज़ हमारे लिये नहीं है। वे एक दुनिया खींचने के लिये बनते हैं और दुनिया को बनाने के लिये जीते हैं। मगर इस अकस्मात रूप का स्थान क्या है? विशाल कोना - जो अनेकों रूपो का ठिकाना बना है। इसमें अनेको लोग हैं। जो जहां से देख सकता है वो वहाँ से देख रहा है। अपने निजित्ता को छोड़ वो यहां आया हुआ है। वो भावनात्मक भी हो सकता है। मगर उसे कोई रोकेगा नहीं, कोई बांधेगा नहीं, कोई चुप नहीं करायेगा। इस कोने का आकार नहीं है, सरहद नहीं है।

किसी से अंजान और किन्ही अंजानों में खोना जाना की चाहत मे जीने कोशिश इसे सक्रिये रखती है। 


लख्मी

Wednesday, December 19, 2012

एक नई कहानी की शुरूआत

राकेश

रोशनी के बीच से

राकेश

एक जगह अदाकारी की

वो रह रोज़ बनठन के निकलता। कभी नाचकर तो कभी गाकर। हर रोज़ के लिबास से उसका कोई मेंचिग नहीं होता। हर दिन जैसे वो कुछ और बनने के लिये उठता और कुछ और बनकर निकलता। वे जो बनता, उसका कोई रूप नहीं था जिसे कामगार या पारिवारिक सदस्य नहीं बनाया जा सकता था। वे हर रोज़ सिनेमाहॉल की दीवार से टेक लगाये खड़ा हो जाता। घंटो वहां खड़ा रहता। वहां से गुजरने वाली हर नजर उसपर पड़ती और एक निगाह भरकर चली जाती। उसे कहां जाना है या वे कहां से आया है ये नहीं जाना जा सकता था। वे जैसे अपना कहां बना चुका था। भीड़ के बीच मे कभी तो कभी भीड़ से कुछ हटकर वे बालों में हाथ फेरते, इतराते, नज़रें घुमाते उस दीवार पर लगे बड़े बेनरों मे खुद को तलाशता। कभी तो उनकी ही तरह बन जाता है तो कभी उनकी तरह नहीं मगर उनसे खुद को बना लेता है।
ये दीवार उसके लिये क्या है? जहां वे खुद के बनने को दिखा पाता है या वे 'जहां' क्या है जहां पर वे खुद को बनने को दिखा पाये? जिसे घर, काम की जगह, खरीदारी की दुनिया से हटकर जी सके। वे जो खुद के खुल जाने के दृश्यों को ट्रांसफरिंग दुनिया मे ले जाये।

एक भीड़ लगी थी। हर कोई उस भीड़ का हिस्सा बनने के लिये उसकी तरफ भाग रहा था। कोई उस भीड़ के बीच में बैठा है। उसके सामने कुछ प्लेन तख्तियां पड़ी है। हर किसी मे वो बना रहा है। आसपास में लोग अपनी ही जगह पर खड़े कुछ आकृतियां बना रहे हैं। कोई बाजूबंद अदाकारी मे हैं, कोई पुकारने मे, कोई आसमान देखने में, कोई रक्षक की अदा में। हर किसी ने जैसे खुद को मोह मे डालने की कोशिश को खुद मे पाल लिया है। भीड़ मे कोई उन्हे कैसे देखे से पहले वे खुद को कैसे देखेगें की जिद् पल गई है। वे सबको उन प्लेन तख्तियों मे उतार रहा है।

वे कौनसा स्पेश होगा जहां ये दुनिया खिल पायेगी? या वे स्पेश ही उड़ा दिया जाये जहां ये दिखती है तो क्या रह जायेगा? वे जगहें जो महज़ बोद्धिक स्पेशों की कल्पना लिये ही नहीं जीती बल्कि वे जगहें जो खुद को प्रस्तुत करने व दुनिया के सामने लाकर खड़ा करने के लिये होती हैं। वे जगहें वे नहीं है जो शहर के नक्शे मे स्थानों के बंटवारें से जानी व बनाई जाती है। वो जगहें वे भी नहीं है जिन्हे किसी से भागने के लिये बनाया जाता है। वो जगहें वे हैं - बुनी जा रही है। हर वक़्त, हर दिन अपने रूप बदल रही है।

कोई आने वाला है। वो बहुत देर से तैयार है। स्टेंड से टेक लगाये वो बार बार खड़ी देखती और फिर से दूर सड़क के पार देखने लगती। हाथों मे लगे पेपर उसके लिये कुछ झंझट बन रहे हैं। इंतजार का गुस्सा उन्ही को मरोड़ने से हल्का हो रहा है। स्टेंड का टूटा हुआ शीशा उसके लिये किसी ब्यूटीपार्लर के शानदार आइने से कम नहीं है। वो टहलती, घूमती उस शीशे मे एक झलक खुद को निहार लेती। कभी पास खड़े लोगों से उसकी निगाह मिल जाती तो कभी उनसे दूर कहीं छिटक जाती। ये पूरा माहौल उसके लिये एक ही चेहरे की शिनाख्त बन गया था। वो जिसे देख रही है वो नहीं है मगर यहां के सारे चेहरों मे एक वही है।

इंतजारिया रास्ते खुद को समय की मजबूत झलकियों से दूर किये चलते हैं। उन सफ़रों में जिनके पार कोई मंजिल की तलाश नहीं है। तलाश उन बिन्दूओं की जिनमें खुद को रिकोंसीटूट करके जिया जाता है। जिनके चेहरे उसके नहीं जो कभी किसी मोड़ पर मिले हैं। उनके भी नहीं जो रोज़ मिलकर दूर हो जाते हैं या दूर हो गये हैं। उन झलकियों की तरह हैं जिनसे इन चेहरों के अक्श बने हैं।

लख्मी

बहुत समय लगता है

कहीं का हो जाना कैसे जीने की कोशिश करता है। ऐसा जैसे किसी भूमण्डलिये अंधी फोर्स के सामने खड़े हैं और वे जितना अपनी और खींचती है उतना ही पीछे की ओर धकेलती है। उसके सामने खड़े रहने पर कुछ नहीं दिखता। बस, कुछ आकृतियां बनती है और झट से गायब हो जा रही है। कोई धूंधली परत उन्हे अपने कब्जे मे ले रही है। मैं उसके सामने से रोज़ निकल जाता रहा हूँ। कोई डर मुझे उसके अन्दर दाखिल नहीं होने देता। ये डर उसके भीतर घूसने का नहीं है। किसी ने जैसे मेरे पांव पकड़े हुए हैं। रोज वहां से गुजरता, लोगों को उसके अन्दर खोते हुये देखता। पहचानने की कोशिश करता। कोई पहचान में नहीं आता।

मैं उसके अन्दर दाखिल हो गया। मेरे आसपास एक भीड़ की गरमाहट महसूस हो रही थी। कोई नहीं दिख रहा था अब भी। मगर गरमाहट इतनी थी के उसको अहसास किया जा सकता था। जब बाहर निकला तो कई लोग उसके अन्दर दाखिल होने को तैयार खड़े थे। मुझे देख रहे थे। वैसे ही जैसे मैं देखता था। मेरा रंग बदल गया था। मुझपर कुछ और चड़ा था। मैं जैसे खुद को पहचान नहीं पा रहा था। कुछ समय लगा मुझे उसमे से बाहर निकलने मे। मगर बहुत समय लगा मुझे वापस "मैं" बनने में। मैं कुछ समय के लिये कुछ और बन गया पर वो कुछ और मैं कभी नहीं बन पाया।


रास्तों की बुनाई मे सफ़रों को याद रखने की खुटियां नहीं गड़ी होती। वे बह जाने के लिये बनते हैं। कोई उनपर कैसे चल रहा है या कोई उनपर कहां है का रहस्य निरंतर बना रहता है। कभी किसी को मुड़ने पर विवश करते हैं तो कभी किसी को उड़ान में ले जाने को।

यहां कौन क्या है और कौन, कौन है के सवाल बेमायने रूप मे हैं। बस, मैं किसे अपने करीब खींच रहा है और किसके करीब खिंच रहा हूँ का जादू बेमिशाल होकर चलता है। ये अस्पष्टता जीवन को उन रास्तों सा बना देती है जो अपने हर कटाव पर एक दुनिया की झलक देता है। जहां पर रहस्य, अपरिचित, बेचिंहित जीवन की उपाधि पाने की कोशिशों के बाहर होने की फिराक में चलते हैं। उस बहकने के साथ जिनका मानना है कि घेरो के बाहर का जीवन जिन्दगी को उत्पन्नित बनाता है।

हर कोई ये कोशिकाएँ उधार ले रहा हो जैसे। वो अनोखी दुनिया इन टूटी हुई जीवित कोशिकाओं से भरी हुई हैं। वे जो हर वक़्त सक्रिये है - एक दूसरे को इज़ात कर रही है। बिना याद्दास्त के बन रही है। जन्म, मौत फिर से जन्म लेना और फिर से मौत – इस साइकिल से वे दूर हो जाती जा रही है।

रास्ते वे नहीं है जो कहीं ले जाते हैं, वे नहीं है जो बाहर हैं, वे नहीं है जो दिखते हैं, वे नहीं है जो मंजिल के लिये बने हैं, वे नहीं है जो नक्शे मे कनेक्शन से दिखते हैं, वे नहीं है जो जुडाव के लिये बने है। वे इनविज़िवल लाइनें है। रंग, लिबास, कहानियां जो अनुभव जाल से बाहर की है, अभिव्यक़्तियां और इशारें। सब कुछ पल भर के अहसास मे जीते हैं और फिर रंग बदल लेते हैं। जीवन की कल्पना इनसे उधार ली गई रंगत है। इसका कोई ठिकाना नहीं है, जैसे हवा के झोकों मे ये मिक्स होकर चलती है। इस हवा के झोकों के साथ जाना जीवंत रहता है। 

लख्मी

Monday, December 17, 2012

तबादले अब होने लगे हैं

ढेरों तबादले होने लगे। हर रोज़ कोई नया ही चेहरा देखने को मिलता। कभी कोई नाम पूछने चला ‌आता तो कभी कोई पते के बारे में मालुमात करने। नज़रे इनती शक्की हो चली थी की हर कोई एक दूसरे को किसी न किसी केड़ी नज़र से देखने के हमेशा तैयार था। हर रोज जैसे डायरियाँ भरी जा रही थी। उनकी डायरी मे ज्यादा कुछ नहीं होता था जो भी वो किसी के लिये इतना कठोर चिन्ह होता कि उसको हर रात उठा लिया जाता। डायरी नामों और पहचानो से भरी लदी थी। पते तो किसी के मिलना आसान नहीं था लेकिन नाम के साथ एक पहचान लिखदी जाती। पहचान जिसको आगे चलकर क्या तमगा मिलेगा ये किसी को भी नहीं मालुम होता था। ये पहचान कोई चिन्ह होता तो कोई जल्दी मे पुकारा जाने वाला एक और नाम। उनकी डायरियों मे क्या लिखा जा रहा है ये भी ठीक से किसी को पता नहीं था। हाँ कलम चलने का अहसास हर किसी को होता और उस डायरी मे अपना नाम लिख जाने का डर भी। जहाँ - तहाँ भी ऐसा कुछ नजर आता तो वहाँ से फौरन भाग जाने का रिवाज़ यहाँ पर गली गली मे चल चुका था।


जो भी यहाँ पर पहली बार अपनी ड्यूटी सम्भालने आता उसका काम होता, जाकर सड़क - सड़क और गली के कोने - कोने मे नौजवानों के नाम लिखना, साथ ही साथ उनकी उम्र भी। शुरू - शुरू मे तो किसी को पता नहीं था कि नाम लिखवाना क्या बुरी बात है। जिससे भी नाम पुछा जाता वो बड़े ताव से अपना नाम लिखवा देता। लेकिन बाद मे इसका अन्दाजा हो गया था। नाम लिखवाना यहाँ इस वक़्त के लिये किसी कहर से कम नहीं था। जैसे ही किसी नये चेहरे को अपने मोहल्ले मे देखते तो वहीं कट लेते।

इस वक़्त मे जो होता वो सब को पता होता लेकिन इसके बाद क्या होगा वो किसी को पता नहीं था। नाम, उम्र, काम और एक सवाल, सवाल मे भरी होती थी खटास और अक्कड़ जो किसी को बर्दास्त नहीं थी। लेकिन कर भी  तो कुछ नहीं कर सकते थे। बस, उस वक़्त बर्दास्त करने के प्याले गले से उतारने पड़ते।

जगह में जैसे पैसा लुट रहा था। रात में किसी को भी पकड़ लो बस, उसके पीछे उसके घरवाले तो आयेगें ही वही लायेगें सब कुछ, रात का डर लोगों में कहीं न कहीं बहुत गहरा छुपा होता। वो ये सब जानते थे। उस डायरी में जिस किसी को भी नाम लिखने की ड्यूटी की जाती। वो उसमे कई राते भी कैद कर लिया करता था। उसमे कई ऐसी रातें कैद थी या कैद होने की लाइन में खड़ी हो जाती थी। 

ये समय जहाँ पर कोने - कोने मे खड़े और बैठने के ठिकाने बना रहा था वहीं दूसरी ओर उन्ही ठिकानों मे समय के साथ उठने - बैठने के प्रोग्राम भी तय किये जा रहे थे। रात के शौर से कोई अन्जाना नहीं था। सबको उसके पीछे की तस्वीरो का अन्दाजा था। वो जानता था कि किस आवाज के साथ मे किस तरह की तस्वीर जुडी है। कौन कहाँ से भाग रहा होगा, कौन वहाँ पर रहता है, कौन कैसे फसा होगा। इसका भरपूर अहसास यहाँ सबको रहता। हर रात मे किसी न किसी तरह के नये शोर की उम्मीद यहाँ पर सबको रहती थी। शायद आज कल से अलग कुछ सुनाई दे। लेकिन खुद को अपनी आवाज़ नहीं सुनवाना चाहता था या फिर बनाना चाहता था।

रोज रात मे गोलू काम पर से लौटता था, उसे हर रात अपना रास्ता बदलना पड़ता। कभी वो जगंल के रास्ते से घर की तरफ मे आना होता तो कभी सीधे रास्ते से। ये कोई उसका खेल नहीं था इसमे दोनों रास्तो मे बसी गहरी छाप समाई थी। कभी जंगल कहर बरसाता तो कभी सीधे रास्ते पर कोई न कोई धमाल मचा होता। जिसका उसे पूरा पता था लेकिन उसका आना और जाना कभी बन्द नहीं हुआ था। वो बिना रुके बस, चला आता। कभी पाँव पूरी तरह से दुखते थे तो कभी आराम भरते। मगर उसे इन्ही  तीन सालों मे इस दुखने का अहसास गायब करना पड़ा था या ये कह सकते हैं की उसे उस चलने की आदत सी हो गई थी।

दरवाजा पीटने की बहुत जोर दार आवाज आई, लेकिन कोई सुनवाई नहीं। उसने दोबारा से दरवाजे को उसी तरह से पीटा, इस बार भी आवाज पर कोई सुनवाई नहीं हुई। गोलू ने इस बार दरवाजे पर हाथ मारने के अलावा अपने हाथ मे लगे भौपूं को बहुत से फूँक मारकर बजाया। उसके एक ही फूँक पर दरवाजे अन्दर से आवाज़ आई, “आ रही हूँ, क्यों गीत सुना रहे हो?”

वो तो अच्छा था की आस पड़ोस वालो की नींद अन्दर सोती अम्मा की नींद से ज्यादा गहरी थी। जिन्हे उनके भौंपू का पता भी नहीं चला। वो बाहर आई और बोली , “मैं जाग रही थी लेकिन उठने मे वक़्त लग गया।"

गोलू को भले ही  इस काम मे तीन साल हो गये हो लेकिन उसकी फूँक मे अभी वो बात नहीं आ पाई थी की वो किसी  ताल को सिनेमा हॉल की आखिरी कुर्सी तक पहुँचा सके। जिसका उसे बेहद मलाल रहता। इसी को वो कहीं पर बोल दिया करता। उसे आवाज़ मे वो पैनापन और भारी अहसास लाना था। जिसके बारे के बारे मे उसकी अम्मा भी बखूबी जानती थी।

गोलू ने उस भारी से भौंपू को अपने काँधो से उतारा और तैयार होने लगा खाने के लिये। आज कुछ खमोशी मे सोचने के लिये काफी कुछ था उसके पास। पूरा घर शांत लग रहा था, शायद आज गली के बाहर से भी कुछ शोर नहीं आ रहा था। तभी इतनी गहरी खामोशी सी लग रही थी। कुछ देर तक वो अपने भौंपू को देखता रहा। सोचने लगा की अगर आज कोई शोर नहीं हुआ तो वो इसके साथ मे कैसे खेल पायेगा। दरवाजे के बाहर वो थोड़ी देर के लिये खड़ा हो गया। खाना जमीन पर लग चुका था। अपने भौंपू को एक कोने मे खड़ा करके खाने के लिये बैठ गया।

कानों मे थोड़ा सा भी अगर शोर सुनाई देता तो उसका चेहरा फोरन दरवाजे की तरफ मे मुड जाता और आँखें मटकती रहती। खाने के हाथ रुक जाते। मगर शोर के साथ उसका रिश्ता कम नहीं होता।

"आज कहाँ गया था?" उसकी अम्मा ने पूछा।
"ज्यादा दूर नहीं गया था, पास मे ही जाना हुआ। जिसके घर मे शादी थी वहाँ किसी की मौत हो गई थी तो उसने सारा का सारा इंतजाम बाहर ही कर रखा था। तो वहीं पर हो गया।" वो टूक मुँह मे घुमाते हुये बोल रहा था।

इसके बाद मे उसकी अम्मा कुछ बोली नहीं, शायद मौत की सुनकर थोड़ा शांत हो गई थी। वो जल्दी से खाना खाकर छत की तरफ मे जाने की सोच रहा था। रात पता नहीं कब खत्म हो जाये इसका डर भी तो उसके दिमाग मे था और आज तो बिना किसी आवाज़ के उसको कोई डांट- फटकार न दे उसका भी खौफ था। आज तो आवाज मे धीमापन ही रखना होगा। क्या पता आज कोई जाग रहा हो, क्या पता आज किसी को नींद न आई हो। इसलिये छत पर जाने के बाद मे थोड़ा इंतजार भी तो करना होगा। वो खाते खाते ये सब सोच रहा था। प्लेट मे रोटी और सब्जी खत्म हो चुकी थी। वो आखिरी टूक को प्लेट मे मलकर उसमे प्लेट मे पड़ी सब्जी के तेल को रोटी के टूक पर चिपका रहा था। यहाँ पर आखिरी टूक मुँह मे गया नहीं की उसका पूरा ध्यान उसके भौंपू पर चला गया।

उलटे मुँह वो पूरे दिन की  थकावट से भरा खड़ा, थोड़ी ही देर मे वो कहीं जाने के लिये भी जैसे राह देख रहा था। गोलू हमेशा देर रात होने की राह तकता रहता। उसकी छत चाहें भले ही छोटी हो लेकिन वो गली के एक दम कोने पर थी। जहाँ से उसके ऊपर पड़ोसियों का साया नहीं था। ऐसा नहीं  था की पडोसियों की रिश्तेदारियों मे उसको जाना आना नहीं पड़ता था, वो तो था ही लेकिन जब वो अपने मे होता था तो बस, कहीं सोचने और पहुँचने की जल्दी नहीं होती थी उसे।

प्लेट खाली और साफ हो गई, उसके हाथ लेकिन उसकी किनारियों पर खेल रहे थे - जैसे कुछ नई लकीरें खींच रहे हो। पीछे से आवाज़ आई, “अब क्या पूरी प्लेट ही खा जायेगा?”

गोलू एक और उंगली मुँह मे दबाता हुआ उनकी तरफ देखता रहा। मगर कुछ कहा नहीं। बहुत सी शादियों मे जाना आना होता है लेकिन कभी - हर बार दरवाजे से ही वापस लौट जाने का काम होता है। न जाने कितनो की शादी मे जाते हैं, दुनिया को नचाते हैं, दुनिया फरमाइशे करती है और नाचती भी है। सबको दरवाजे तक जैसे ही पहुँचाते हैं कि तभी कोई हाथ पैसे बड़ा देता है और दिवाली के आखिरी बम की तरह फटकर वापस आना हो जाता है।

हर रात की  कहानी शुरू कुछ यूहीं होती है। दिवाली के आखिरी बम की  तरह शोर करती हुई आती है और बाद मे एक लम्बा सन्नाटा सामने लाकर डाल जाती। गोलू पिछले कुछ सालों मे इस शोर के बाद का सन्नाटा बना हुआ है। जिसमे उसे इतना मज़ा आता है की वो फूला नहीं समाता।वो खुश है कई सारी आवाज़ों के बीच मे अपनी आवाज़ को खोता महसूस करने मे। जहाँ पर लोग आवाज़ का गुम होना देखते हैं वहीं पर गोलू खुद की आवाज़ निकालने के लिये उसी शौर का इन्तजार करता है।

रात काफी हो चुकी है, सारे आलम एकदम गायब सा है। उसी बीच मे गोलू अपनी छत पर अपने उस बाजे के साथ मे छत की एक लम्बी सी दीवार की ओटक मे बैठने के लिये तैयार है। आज का आलम बेहद शांत है, जैसे कुछ भी बनने और टूटने की आवाज़ नहीं है, नहीं तो रात के नो बजे नहीं की किसी न किसी के एक दूसरे से लड़ने और भिड़ने की आवाज़ें आनी शुरू हो जाती साथ ही मे पुलीस के सायरन की आवा‌ज़ तो जैसे हर आवाज़ को पिरोने वाले धागे का काम करती।

पिछले कितने समय से गोलू एक ही गाना बजाने की कोशिश कर रहा है लेकिन वो सांस पर पूरी तरह बैठ नहीं रहा। उसके पिताजी कहते हैं कि तुझे अभी बजाना आया भी नहीं है और तुझे शादियों मे बैण्ड बजाने का काम भी मिल गया, ये पता नहीं कैसे हुआ। हम तो सालों के रियाज़ के बाद मे किसी के यहाँ पर रुके थे।

चाहें तो गोलू इस बात का रोज़ाना जवाब दे सकता है लेकिन वो इसपर बोलना वाज़िब नहीं समझता। वो बस, छत पर चड़ जाता और बाजे मे पानी मारकर उसे थोड़ा खंगाल लेता। तराई हो जाने के बाद मे आवाज़ की संजिदगी बेहद मासूम हो जाती। वो इन्तजार कर रहा था कुछ और समय बीत जाने का, छत के चारों तरफ कभी सामने तो कभी नीचे की तरफ देखने लगा। सड़क पूरी खाली थी। जैसे ही उसे कुछ अंधेरे मे परछाइयाँ नज़र आती तो वो अपना बाजा उठाकर अपने मुँह से लगा लेता लेकिन जैसे ही वो परछाइयाँ गायब हो जाती तो बाजा बिना घुन के ही नीचे उतर आता और सांस उसके गले मे ही अटक कर रह जाती। वो दोबारा से उसी तरह मे देखने लगता लेकिन जब तो कुछ नज़र नहीं आता वो कुछ करता नहीं। छत के चारों और भी कुछ नज़र नहीं आ रहा था। उसके और बाजे के बीच की दूरी कितने समय की हो गई थी, आज उसके हाथ भी काँप रहे थे कि आखिर मे क्या हो गया है जो कुछ नज़र नहीं आ रहा है। कहीं मेरी आँखें तो कमजोर नहीं हो गई, कुछ सुनाई भी नहीं दे रहा कहीं कान तो नहीं हल्के हो गये हैं। वो अपने मे ही कुछ कुलबुलाने लगा। मगर इससे क्या फायदा होने वाला था। 

सायरन की बहुत जोरो से आवाज़ उठी ऐसा लगा रहा था की कहीं कुछ जबरदस्त हुआ है। गोलू अपना बाजा लेकर तैयार हो गया। यहाँ तक पता नहीं कब वो शोर आये उससे पहले ही वो दीवार पर अपनी पोज़िशन लेकर बैठ गया था । उसका घर गली के नुक्कड़ पर होने के कारण उससे सड़क पर होने वाली कोई भी हरकत नहीं छुपी थी। उसी के साथ वो अपने बाजे की जुगाली करता था। जिससे उसके जोर से बजाने पर भी किसी कोई आपत्ती नहीं होती थी, ऐसा माहौल बन जाता था की शौर हो या संगीत सबको एक ही तरह से सुनकर लोग परेशानियाँ नहीं बनाते थे। सब कुछ घुल जाता था रात के समय मे। कोई कहाँ पर हल्ला मचा रहा है या कोई कहाँ पर कानों के नीचे बाजा बजा रहा है वो सब कुछ कभी नजदीक तो कभी दूर रखकर समझोते मे ले लिया जाता।

हाथों मे कुछ चमक रहा था ये बहुत सारे लोग थे, कौन छोटा है या बड़ा इसका पता नहीं चल रहा था। इतना पता था की सभी एक दूसरे के ऊपर चड़ने के लिये तैयार है। बहुत तेज आवाज़े थे। इतनी आवाजें थी के पता नहीं चल रहा था की कौन किसकी तरफ है बस, मारने - मर जाने की बहुत भंयकर माहौल था। गोलू ने भी उसी बीच अपना बाजा अपने मुँह पर लगाया और जोरदार सांसे उसमे फूँकने लगा। गाने बोल के साथ मे नीचे बज रही लड़ाई किसी बहस और कभी जुगाली की तरह से लग रही थी। पूरे मे हल्ला मच गया था की गली के बाहर लड़ाई हो रही है, लेकिन किसी को उस आवाज़ के पीछे बजते उस बाजे की आवाज़ नहीं आ रही थी।

इसका गोलू को कुछ लेना - देना नहीं था और न ही उन लड़ने वाले लड़को का। हर शोर उसी माहौल तक बना रहता जिससे वो बन रहा था और अगर किसी मे मिल जाता तो वो सबके लिये बन जाता। ये सारा उस सायरन की आवाज़ से पहले का खेल था, जिसमे गोलू बस, मौका देखता था अपने अन्दर की सांसों से बनी आवाज़ को किसी और आवाज़ के सहारे या अन्दर अपनी आवाज़ को बनाने का। ये खेल वो रोज़ खेल रहा होता। जहाँ पर लड़ाइयाँ यहाँ के माहौल और रहन – सहन को दर्शा रही थी वही पर गोलू किसी और माहौल की नींव उसी के अन्दर बना रहा था। ये दोनों के बीच की कुछ बहस थी, जिद्दी बहस।

कुछ ही देर मे वो शौर कम होने लगा, और गोलू खुद की सांसो को आराम देने लगा। सायरन की आवाज़ चाहे आये या ना मगर शोर के तेज और कम होने का समय कुछ ही क्षणों मे होने लगता। बहुत धीमी सायरन की आवाज़ आने लगी। लेकिन उस बाजे की आवा‌ज़ कम नहीं हो रही थी। गोलू आज अपने से बाहर हो चला था, शायद गाने की लय पकड़ ली थी, बहुत दिनों से गाने तक पहुँता और वापस की तरफ उतर आता लेकिन आज तो जैसे जुगाली करने का मजा आ गया था।

उसने बहुत देर के बाद मे जब नीचे देखा तो सब कुछ शांत हो चुका था, गोलू उस बाजे को लेकर नीचे उतरा और इधर – उधर देखते हुए वो बाजे को वापस उसी ऑधें मुँह दरवाजे से टिका जमीन पर लेट गया। कुछ देर लेटने के बाद मे वही शोर घर के बाहर दोबारा से सुनाई दिया। मन मे बहुत कर रहा था की फिर से बाजे को उठाकर जाऊ छत पर लेकिन शोर को अब सुनने मे ही उसका मन लग गया था। फिर से वही सायरन की आवाज़ और शौर ख़त्म।

लख्मी

एक कामग़ार शहर में

कोई सड़क पार कर रहा होगा
कोई गाड़ी को धक्का लगा रहा होगा
कोई नाले किनारे बैठा बीढ़ी पी रहा होगा।
कोई झूले को धक्का मारकर ले जा रहा होगा।
कोई टेंट उखाड़ रहा होगा।


कोई खेलों के लिए सड़क पोत रहा होगा।
कोई बस का इंतजार कर रहा होगा।
कोई सड़क के किनारे लगे पेड़ के नीचे पसीना पौंछ रहा होगा।
कोई स्टेशन के गेट पर खड़ा खिड़की खुलने का इंतजार कर रहा होगा।


कोई बस के पीछे लटक रहा होगा।
कोई कांधे पर बोरी लटकाए कुछ बीन रहा होगा।
कोई अपने हाथों से दूसरे हाथों में पेम्पलेट बाँट रहा होगा।
कोई बीआरटी कॉरिडोर को डर-डर के पार कर रहा होगा।
कोई सड़क पर लगे बोर्ड पढ़ रहा होगा।
कोई साइकिल की उतरी चैन लगा रहा होगा।
कोई पानी की रेहड़ी के छाते के नीछे छुप रहा होगा।
कोई पैदल पथ में कहीं सो रहा होगा।


कोई खम्बे पर चढ़ा होगा।
कोई भरी धूप में चिल्ला रहा होगा।
कोई उस चिल्लाते हुए कामग़ार को देख रहा होगा।
कोई आटो के मीटर की रेटिंग देख रहा होगा।
कोई टूटी हुई चप्पल से चलने की कोशिश कर रहा होगा।
कोई बस के गेट पर लटका होगा।
कोई साथ वाली लड़की को देख कर मुस्करा रहा होगा।
कोई किसी को लवलेटर दे रहा होगा।
कोई सिनेमाहॉल के बाहर बैठा होगा।




कोई सवारी उठाते आटो में फँसकर बैठा होगा।
कोई सड़क पर अपनी जेब से गिरा रूपया खोज रहा होगा।
कोई किसी की साइकिल पेंचर कर रहा होगा।
कोई किसी खड़ी गाड़ी के होर्न को बार-बार बजाकर भाग रहा होगा।
कोई कुत्तों से डरके गली में से निकल रहा होगा।
कोई किसी खिड़की पर खड़ा होगा मौसम को कोस रहा होगा।
कोई नौकरियों के फोर्म में अपने मुताबिक कुछ तलाश रहा होगा।



कोई छोले-भटूरे की दुकान पर खड़ा जैब टटोल रहा होगा।
कोई बस स्टेंड पर बैठा पेंटिग कर रहा होगा।
कोई धूप में अपनी किताब सुखा रहा होगा।
कोई बस स्टेंड पर लेटा किताब पढ़ रहा होगा।
कोई गली के कोने पर गुट में बैठा कोई अधूरी कहानी सुना रहा होगा।
कोई किसी दीवार पर रात में कुछ लिख रहा होगा।
कोई स्ट्रीट लेम्प की रोशनी में दीवारों पर पोस्टर चिपका रहा होगा।


कोई बाहर खड़े रिक्शे पर अपने सोने का इंतजाम कर रहा होगा।
कोई तेज हवा में दिया जलाने की कोशिश कर रहा होगा।
कोई किसी दरवाजे से कान लगाकर कुछ सुनने की हिमाकत कर रहा होगा।
कोई अस्पताल के बाहर खड़ा दुआ पढ़ रहा होगा।
कोई गले लगाने के लिये किसी को ढूँढ रहा होगा।
कोई बारिश से बचने के लिये कोई ओटक तलाश रहा होगा।
कोई किसी से माचिस मांग रहा होगा।


कोई वहाँ पर खड़ा होकर सोच रहा होगा की किसकी शक़्ल देखकर निकला था घर से।
कोई अपनी दुकान उठा रहा होगा।
कोई अपने घर का छप्पर ठीक कर होगा।
कोई देख रहा होगा उसके जैसे कितने लोग हैं।
कोई बंद होते मेले के सामने खड़ा है।
कोई रेडलाइट पर किसी का हाथ पकड़ने के लिये खड़ा है।
लख्मी

Wednesday, October 31, 2012

नौकरी की अर्जियों की तलाश में

दुनिया में कितनी ही तरह की नौकरियां है। हर कोई अपनी मनपसंद, ज़रूरत की जॉब के लिये खुद को तैयार करता है। नौकरी एक हावी सोच जो अपने में दुनिया की क्षमताओं को लपेटें में है। आप किस चीज़ के लायक हो और किस चीज़ के नहीं का नौकरी से सीधा इशारा मिलता है। दुनिया और दुनिया मैं अनेक जॉब की अपनी दुनिया और हर दुनिया का अपना अलग स्वाद।

क्या है जिसे छोड़कर किसी जॉब के लिये तैयार होना पड़ता है? "नॉनबॉयग्राफिल बायोडाटा" एक ऐसा पत्र जो शरीर की थिरकन से दिमाग की कल्पनाओं को सोच पाने की कोशिश करता है।
वे अनुभव जिसका कोई प्रमाणपत्र नहीं, जिसका कोई सबूत नहीं। जिसकी कहानियां है और ऐसी संभावनाएं जो एकांत को असंख्य बनाती है।

ये एक पत्र है जिसे हम इस माध्यम से बना रहे हैं जो इन अंदरूनी क्षमताओं और संभावनाओं मे गुथे मिले नये आइडियों को ला पाये। बनी बनाई ठोस सोच को तोड़ सके। भरिये और भेजिये। अपने जवाबों मे उन जीवनों को लाने की जिनकी छुअन और कहानी आपके होने को जिंदा करती है।

Wednesday, October 17, 2012

'दस्तक' किताब


सोचा जाये तो एक आम शख़्सियत हमारी ज़िन्दगी में क्या ला सकती है? महज़ ज़िन्दगी के उतार चढ़ाव या जगह की घनत्तवता, रिश्तों की बेरूखियां या बदलाव की हरकत, फैल होने का डर या समय की तलाश, फैसला लेने की कशमश या भीड़ की हिस्सेदारी, विरासत या जहदोजहद, वसीयत या सफ़र और क्या?

'दस्तक' एक छवि को हमसे परिचित करवाती है जिसका नाम है हसीना खाला। हसीना खाला एक ऐसी शख़्सियत जो आम है, जो अपनी राहें खुद से बना रही है और तय भी कर रही है। वे जो भीड़ में चलती हैं, वे जो भीड़ लिये चलती हैं और भीड़ में खो जाती है। वे जिन्हे अनदेखा भी किया जा सकता है। वे याद तभी रहेगी जब टकरायेगीं। भीड़ में हजारों हसीना खाला बने हम, ना जाने कितनों से रोज टकराते हैं और अनदेखे भी हो जाते हैं। मगर हसीना खाला उन अनदेखें चेहरों की बुनाई का एक अक्स है।
 
किताब किसी रचे गये व कल्पना किये गये शहर की दास्तान नहीं है वे जीते जागते उन अंदरूनी दृश्यों की तरफ इशारें करती हैं जिनके अन्दर से अगर कोई गुज़र जाये तो उसे भुलाया नहीं जा सकता। उन दृश्यों से शहर बनता भी है और धड़कता भी है। 'दस्तक' किताब ऐसा ही शहर लिये है। वे चल रही है तो दौड़ती नहीं, वे रूक रही  है तो ठहरती नहीं, वे सुन रही है तो बोलती नहीं। वे जाग रही है तो सोती नहीं और साथ ही साथ वे उन आवाज़ों से बनी है जो एक दूसरे में दाखिल होकर और कोई गाथा कह रही हैं। वे गाथायें जो किसी की निजी जिन्दगी से ताल्लुक रखती है लेकिन किसी अकेले की नहीं। 

हसीना खाला सिर्फ एक ही शख्स नहीं। किताब को पढ़ते हुए लगा की जैसे हसीना खाला कोई शख्सियत है ही नहीं। वे तो कोई परछाई सी बनी है। हल्की और विशाल परछाई सी। जो जिस पर गिर जाये उसी में ढल जा रही हैं। जैसे वो हर किसी में हो। इसलिये ये पूछना गलत होगा की हसीना खाला कौन है और कहां रहती है? हां, ये कहा जा सकता है की हसीना खाला कोई भी हो सकता है। वो भी घर से निकलने के लिये तैयार हो रहा है, वो भी जो घर लौट रहा है और वो भी जो घर आना ही नहीं चाहता।

जैसे जैसे दिन का बढ़ता जाता है वो अपने दिन और समय दोनों को एक साथ में रचती हैं। इस रचना में वो कभी अकेली व तन्हा नहीं होती। उनके साथ में होती है उनमें बहती वे सभी खुरदरी यादें , हसीन पल, अटपटे रिश्ते, अजनिबयत से भरी राहें और बिखरी व छुटी हुई मुलाकातें जो पहले से संजोई नहीं गई। वे रची जाती है। वो रचती है, अपने अन्दर बहते अनेकों लोगों की परछाइयों के साथ। वे परछाइयां जो एक बार मिली है, वे जो मिलती रही हैं, और वे जो कभी मिली ही नहीं सिर्फ सुनी गई हैं। हसीना खाला उन सभी अनेकों छोटे-छोटे दृश्य और अनदेखी परछाइयों को अपने साथ में लिये चलती हैं। जैसे वे सभी इनकी धडकन हो। वो लौट रही है तो अकेली नहीं। वो कहीं बैठी हैं, खड़ी हैं जैसे किसी भीड़ के साथ हैं। और अपने लिये जीने के साधन किन्ही अक्शों की तरह चुनती व बुन रही हैं।

'दस्तक' किताब में अगर हसीना खाला शहर में है तो शहर उनमें है। हसीना खाला अगर घर में हैं तो घर भी उनमें है का अहसास लिये हैं। वे हर बदलाव, जमीनी बुनाईयां व तोहफो में बंटती रवायतें व बनने और छूट जाने के हर पहलू को जानती व समझती है। उन्हे पता है कि शहर कहां की तैयारी में है। वे जानती है कि कहां पर आकर वे रूकता है। कहां पर टूटता है और कहां पर छूट भी जा रहा है। वे भागते शहर के पीछे नहीं बल्कि वे उन्हे चुन रही है जिनमें हजारों के होने का चिंह बसे हैं। किसी 'आफटर लाइफ'  की तरह जैसे उन्होनें खुद को रच दिया है। वे जिन्दगी जो किसी इवेंट के बाद से बनी है, बाद के लिये बनी है और बाद में बनी है। कभी कभी लगा की यशोदा सिंह उन अहसासों के बीच में खामोश हैं शायद तभी ये संभावनाएं नज़र आती हैं। 'दस्तक' मुलाकातों से बनी है। बिना किसी इंटरव्यू के। क्या इस किताब की कल्पना हसीना खाला जी के साथ लम्बी बातचीत से भी रची जा सकती थी? शायद नहीं, यशोदा सिंह का उनके साथ में रहना और बिना हसीना खाला जी के इंटरव्यू के इस किताब को बुन देना अपने आप में एक चैलेंज के समान है। बिना किसी फलसफे के, अपने लिखने वाले होने के प्रमाण देने के और ना ही किन्ही बड़े व उलझे शब्दों के इस्तमाल करने से। जिस जमीन से हसीना खाला जी अपने चुनाव और अंश बुन रही है 'दस्तक' की ज़ुबान भी वही है।

कहां जाये तो किसी के साथ किसी रिश्ते की बुनाई करने में घंटो सुनने की तैयारी में होना जरूरी नहीं। सिर्फ दो मिनट ही बहुत हैं। हसीना खाला उन दो मिनट को जी रही हैं। बिना कुछ अपना सुनाये, बिना किसी खास परिचय के। अच्छा हुआ यशोदा सिंह ने हसीना खाला जी को कोई कहंकार की तरह नहीं सोचा, नहीं तो हसीना खाला जी ही हर जगह जाकर अपनी ही गुजरी दास्तान सुना रही होती। यहां पर तो हसीना खाला उसी सादगी से जी रही है जिसे समान्य कहकर अमान्य करार कर दिया जाता है।

रवीश कुमार जी ने समाज कार्य विभाग के एक सेमिनार में कहा था, “हमने देखना छोड़ दिया है।"

हां, हमने सचमुच में देखना बंद कर दिया है। हम सोच रहे हैं कि हम देख रहे हैं। लेकिन हम वही देख रहे हैं जिनसे हमें टकरा जाने का और भिड़ जाने का डर है। असल में हम अपना बचाव कर रहे हैं तभी कुछ नहीं देख पा रहे। यशोदा सिंह की किताब ये नहीं कहती कि मुझे पढ़ो, वे कहती है मेरे साथ देखो। 'दस्तक' किताब का जब कोई एक लेख पढ़ते हैं तो साथ ही साथ शहर को भी चलते हुए महसूस कर पाते हैं। आसपास और दास्तान साथ में जैसे गुथी हुई चल रही हैं।

अभी बहुत कुछ है कहने और लिखने को। मगर अभी के दौर में यशोदा सिंह को बधाई देते हुए इसे रोक रहा हूँ। आगे जरूर बात करेगें। जरूर पढ़े।

दस्तक : यशोदा सिंह
वाणी प्रकाशन, 4695,21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली- 110002
मूल्य: 175 रूपये



लख्मी

Monday, October 15, 2012

नौकरियां ही नौकरियां - अर्जियां ही अर्जियां

लख्मी

परछाइयों की आकृतियां

राकेश

रंगो की अय्याशियां



पिछली रात अशौक ने रजनी के चेहरे पर कई रंग लगा दिये। रजनी को इन सबका पता भी नहीं था। वे मदमस्त नींद में मुस्कुराती हुई सो रही थी। अशौक ने रंगो से उसके चेहरे को पूरी तरह से रंग दिया था। लाल, पीला, हला और नीले रंग से इतनी लकीरें खींच दी थी की लगता था कई सारे इंसान के साथ रजनी आज बिस्तर मे है।

दूसरे दिन रजनी उठी तो हर रोज़ की तरह वो सबसे मिलने के लिये अपने कमरे से निकली। जो भी उसे देखता तो हंस पड़ता। वे समझ नहीं पाती। जो भी उससे बात करता तो बड़ी मुस्कुराहट के साथ। मगर रजनी अपने काम मे पूरी तरह जुटी हुई थी। वे जिस जिस के पास मे जाती वो ही उसे देखकर चौंक जाता। उसे करीब से जानने वाले उसपर हंसते और दूर से जाने वाले पूरी तरह से चौंक गये थे।

सब की हंसी का कारण बनी रजनी वापस अपने कमरे में पहुँची। खुद को संवारने के लिये जैसे ही शीशे के सामने पहुँची वे खुद चौंक गई और फिर जोरो से हंसी। काफी देर तक वे खुद को बस, देखती रही। रंगो को प्यार से छूती वे और भी ज्यादा बिगाड़ रही थी। जैसे खुद का ही चेहरा बिगाड़ रही हो। कुछ देर आइने के सामने खड़े होने के बाद में रजनी उसी हालत में फिर से घर के अंदर घूमी, अब की बार वो उन लोगों के पास मे गई जो उसे देखकर हमेशा नराज रहते थे तो कभी गुस्सा हो जाते थे। उनके सामने वे खड़ी रही। उन बच्चों के पास मे गई जो उसकी डांट फटकार पर भी हंसते थे। उन्हे डराने के लिये।

फिर दोबारा से अपने कमरे मे आइने के सामने आई और रंग को मलने लगी।


जिन्दगी मे कई बार ऐसे वक़्त आते है जब ये सोचना बेहद जरूरी होता है कि जीवन के किस हिस्से को आगे ले जाने की जरूरत है? उसे जो कामयाबी और नकामी का उदाहरण बनेगा या उसे जो कुछ नया गढ़ेगा। यह वक़्त नये और छूटने वाली अनेकों छवियों के बीच मे खड़ा कर देते हैं। क्या पकड़ा जाये और क्या छोड़ दिया जाये? असल में कुछ नया मिलना और कुछ छूट जाना हमेशा साथ साथ चलता है। कुछ छूट जाने का गम करना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना की नये की उमंग मे आगे बढ़ना। यह सोच उज्वल है। मगर शायद कुछ ऐसा भी है जिसे जीवन मे रिले करने की भूख रहती है। रिले करना विभिन्नताओ के अहसास में रहने के समान है। रिले ट्रांसफर है सोच का, छवि का, और समय का।

साथ ही वे मौके भी जब हम सभी खुद को एक बार ऐसे तैयार करते जिससे किसी को चौंका सके, हैरान कर सके, चिड़ा सके, लुभा सके, अपनी ओर खींच सके, डरा सके, पंगा ले सके या चैलेंज कर सके। कुछ तो बहुत कम समय के लिये बन पाते हैं तो कुछ कम समय के लिये होते मगर बार बार सिर चड़ जाते है। जीवन मे किसी वक़्त ने कोई चेहरा जैसे तोहफे मे दे दिया हो। वो याद तो रखा जायेगा मगर किस तरह?  उसे हम खुद से बुन ले तो क्या हो?


एक वक़्त ने उनके सामने भी ऐसे ही हालात पैदा कर दिये थे। जिनमे किन्ही दो रूपो में से उन्हे किसी एक छवि को अपनाना था। एक तो वे जो उन्हे पूरी तरह से इस दुविधा मे फसाये हुये थी कि वे कहां चली जायेगी और दूसरी वे जिसका बढ़ना पूरी तरह से तह होता है। पढ़ना, बढ़ना, शादी करना, मां बनना और फिर जिन्दगी के किसी पायदान पर रूक जाना। पायदान का दबदबा बेहद कठोर रहता है। समाजिक जिन्दगी का मान सम्मान बना रहता है। वे जो एक और रूप तैयार करता है जिसका रंगीले चेहरे से कोई लेना देना नहीं।

हर साल नाच मण्डली में हिस्सा लेती है। हिस्सा लेने से पहले वे कहां रहती थी व क्या करती थी। मण्डली का इससे कोई लेना देना नहीं होता था। शायद मण्डली का हर बंदा इसी रूप से नवाजा गया था। वे क्या छोड़कर आयी से ज्यादा वे इस बार क्या लेकर आयी है। नाच जमने से पहले यह जानने की रात हर साल जमती।

यह रात कई रोज की रातों से भिन्न होती। थकने और दुरूस्त होने से पहले की रात। कभी याद नहीं रहती। हर कोई दिन के शुरू होते ही क्या रूप धारण करके इस बार बाहर निकलेगा को रचता, बोलता और उसमे खो जाता। ऐसा मालुम होता की जैसे हर कोई वो बनकर निकलना चाहता है जिसमे वो खूबसूरत लगे, दुरूस्त लगे और यादगार लगे और कभी कभी तो होता की वे वो बनने की कोशिश मे है जिसे वो पहली बार खुद पर ट्राई करेगा।

एक पूरी रात उस किरदार मे ढ़लने के लिये होती। एक दूसरे को गहरी निगाह से देख सभी उस किरदार का अहसास करते। जैसे सपाट चेहरे पर उस किरदार का रंगीला चेहरा बना रहे हो। एक ही रात मे सभी अपने चेहरे मे दिखते चेहरे को पोत उन राहों पर निकल जाते जो अब भी अपने ही जैसे को तलाश रही होती है। उन पुते रंगीले चेहरे के पीछे के चेहरे को सभी ताकना चाहते और खोचना भी।

वे आज तैयार थी अपने चेहरे की शेप के भीतर किसी और को बसाये।

रूप वापस लौटते हैं। किसी समय को साथ लेकर। वे समय जिसे जवाब देना चाहते हैं या वे समय जिससे बहस करना चाहते हैं। समय जिसमें रूप खो गये थे, जाने नहीं जा रहे थे, नकार दिये जा रहे थे। समय उन पड़ावो को रिले करता चलता है जिसमें फिर से ये उम्मीद होती है कि वे रंग ले सकते हैं।

लख्मी

चार दीवार के बाहर

कभी "रैनबसेरा"

अनेक मे होना - उन अनेक में के बीच जो जीवित है।

लगा - जहां हर कोई किसी के भी नजदीक हो सकता है, दूरी बना सकता है, सुन सकता है और दूर से सुनने के अहसास ले सकता है। कई बातें एक साथ चल रही है।

सही मायने में - जब कोई अपने किसी वक़्त को दोहरा रहा होता है तो उसी वक़्त कई और जीवन दोहराने मे चल गुजर रहे होते है। एक दूसरे से मिक्स होते हुए। किसी बड़ी आवाज़ को रचते हुये। समय को भूलाते हुए या समय को याद बनाते हुए। स्पेश किसी आर्केश्ट्रा की तरह हमेशा बज रहा है।




रात में गली के कौने का माहौल

मिलने वाले एक दूसरे के साथ पहचान में है। कई टाइम से मिल रहे होते हैं। एक दूसरे को सुन रहे होते है। इतनी पहचान के बाद भी वे हर मुलाकात मे हो रही या निकलती बातों से हमेशा अंजान रहते हैं। मिलने के स्वाद इसी मे छुपा है। माहौल कभी एकांत मे नहीं होता। ये जरूर है कि वे किसी एकांत के लिये बनाया व चुना जरूर जा रहा है। माहौल उस बाघी दुनिया मे उतार देता है जिसने किसी रात तो फैसला किया कि इसे चारदीवारी या छुपने की जगह पर नही बिताया जायेगा।



ट्रेन के रद्द हो जाने से पहले - स्टेशन का वेटिंग रूम
जहां लोग जितने भी समय रूक जाये मगर, हमेशा हमसफ़र ही बने रहते हैं। जो कभी भी एक दूसरे से बिछड़ सकते है। खुद में सबको लेकर।



जनमासा -
जहां पर कुछ समय के लिये लोगों को रोका जाता है
जैसे - किसी बरात को, किसी सरकारी महकमे को, मुसाफिरों को,



मार्किट के बीच में बना शीशमहल
यहां पर सिर्फ लोग रात गुजारने के लिये आते हैं। वे किसी अकेले का नहीं होता।



मण्डी मे बना चौकीदार का कमरा
जो कभी घर नहीं कहलाता और ना ही मण्डी।



किसी का कमरा

बिना दिवारो के है या फिर कई खिड़की दरवाजे हैं जहां से किसी एक ही गुट या माहौल को कहीं से भी, कभी भी हर कोई देख सकता है या देख रहा है।



सुनते हुए महसूस हुआ की हर सुनने पर इस जगह की कल्पना बदल जाती है। निजी बातें नजदीकी बड़ाती जाती है और समानो को यहां से वहां करती आवाज़ें और नजदीकी में चली आती है। निजी बातें रिलेशपन में डूब रही है और दूसरी ओर सक्रियेता का बड़ता वज़न है।

एक पोइंट पर आकर लगता है वो कमरा जहां पर हम रोज जाते हैं और रूकते हैं। वे हमारे जाने से पहले क्या होता है? उसके सामने से गुजरने वाले, उसपर कोई काम करने वाले, उसके बगल मे रहने वाले के क्या? हजारों रूप एक स्पेश अपने मे बसाये हुए है। असल मे देखने वाला, बरतने वाला, सुनने वाला किस भाव से उससे मिल रहा है से भी स्पेश के प्रति छवि की रूपरेखा बदल जाती है।

लख्मी

अधपका सबके बीच

मैं पूर्ण नहीं हूँ, अपूर्ण भी नहीं हूँ, आधा - अधूरा, अधपका सबके बीच हूँ। मेरा रूप कितना विशाल, घना और तरलता में है, ये सफ़र अनिश्चित्त है। समय सदेव उसके साथ बहस में रहता है।

हम इसी समय को रचने के मौके में खुद को उतारते हैं। कब आप बोडी को मौजूद करोगें और कब आप बोडी को छोड़कर ख्यालों मे आसमान को मापोगे? समय इन दोनों रूपो को एक साथ एकत्रित करता है। इस निरंतर व्यवस्थित होने से निकाल के अपने लिए एक अनिश्चितता को तैयार करना, अपने आसपास इसके लिए जगह खुद बनाना। अपने को रचने के लिए बेपरवाह समय को रचना है। रास्ते में जो मिलेगा, उसे भी अपने साथ बहा लेना है।

मेरा शरीर मुझसे अपेक्षा नहीं रखता की मैं उसकी निगरानी करता रहूँ या उसकी निगरानी में रहूँ। उसकी नंगन्ता से मेरे साथ रिश्ता ड़र से ना शुरू हो। मैं जितना पोशाक से बाहर अपने आप को देखने का उनमाद रखता हूँ उतना ही बे-पोशाक होकर भी। ये अस्त्तिव मेरे शरीर को सिर्फ नाम देता है, पहचान देता है पर उसकी बे-परहावा छलांगे मेरे लिये रिक्स भी है। वो रिक्स जो मैने अपने से चुना है जिसमें ध्वस्थ होने का ख़तरा और अवारा होने की गुज़ाइश है पर अपूर्ण मे ही रहना है जिसमे मैं जीता हूँ। वही मेरी रचना और मेरे समय की अनिचता है मेरी टकरार मेरे सध्यात के बनाए ढ़ाचे से है। 

शरीर मुझे कहाँ फैंकता है, समय के दायरों का उल्घन करने की कोशिश करूँ तो कहाँ पहुँचता हूँ किसको रचने मे निकलता हूँ।
अनफिनिश हूँ और अपने आपको अनफिनिश रखने की कोशिश मे हूँ। इस अहसास से निरंतर अपने आपको रिवेंट करने में हूँ। मेरा समय अनिश्चिता मे है। ये कहीं पर टिकने या टिक जाने की बहस मे नही है। वो इस कि एक भाषा ढूंढ रहा है अपने आपको अपूरता मे चुनना वो थकान है जो मुझे तलाशती है, मैं जिसे तलाशता हूँ। मेरे पैर कहीं ले जायेगे और मेरा मूवमेंट उसको छोड़ देगा, मैं उस फलसखे से टकराता है। जो कहता है कि अस्थिर हो जाना समय का अस्थिर होना नहीं है। ये समय, मेरे अपनाये समय से बहस मे है। जो मुझमे फिट नहीं होता मगर मैं इस अनफिट से जीने की लरक मे चला जाता हूँ।

फिट ना होना, उसको लुफ्ट मे रखना नहीं है बल्कि वही जीवन को बना कर रखना है।

लख्मी

Thursday, September 13, 2012

एक बस ड्राइवर अपने आप में

उंचाई और निचाई से बने रास्तों ने हमेशा सर्तक रहने पर ही जोर दिया। बस, अपने साथ वाले पर नजर रखने की ताक में रखा। रूट तय है और लोगों को गिनकर चलना फिक्स। और बस अगर चलते वक़्त अपने जोश मे कभी आ जाती तो लोगों की गिनती में बड़ा परिवर्तन आ जाता है। ये करना तय नहीं है। मैंने रोज ये घटते बड़ते देखा है। और घटने को बड़ाने मे तब्दील करने का काम करते भी। दिन खत्म होता जाता है। घटने को कम करना और बड़ाने में उसे ले जाना हर रोज़ का बन गया है। जिस रास्ते जा रहे हैं उसी रास्ते वापसी। कहां पर रूकना है, कितना रूकना है मे टाइम की कोई जानकारी नहीं। इस सबके बीच मे मैं दिन को कैसे दोहराऊँ? लोगों की गिनती फटी और बिखर गई टीकट मे भी परिवर्तन मे आ ही जाती है। बस मे जो भी चड़ता या उतरता है उसकी गिनती रोज होती है। मगर चलाने वाले की उस गिनती से कोई लेना देना नहीं। 

पूरा रास्ता नफा कहां है और नुकसान कितना की सोच ने एक दिन मे गुजरे हर रास्तो को उसकी चमक से ही बाहर कर दिया। मेरी समझ में आज तक नही आया की नफा क्या है और नुकसान क्या? लोगों को गिनना या उनकी दूरी को गिनना? दूरी को गिनना बेमाइने है। दूरी जो रोज़ाना की तय होकर रास्तों पर निकलती है और लोगों को गिनना मुश्किल बनता चलता गया है। नफा व नुकसान के बने टोकरे मे दिन को धकेलना लोगों के बीच होने को गायब करता जाता है। हर रोज़ के एक ही रास्ते पर चलते चलते हैं  लगता है कि रास्तो के माहिर तो हो गये लेकिन मंजिल पर उतर जाने के बाद लगता कि रास्तों ने उस रफ्तार और खो जाने को खा लिया जिसमें हमेशा जागते रहने की शर्त छुपी है। मैं तो कभी किसी को लेकर खो ही नहीं पाया। कैसे खो जाऊँ? इस घटते जाने को बड़ाने की लड़ाई से बाहर निकलकर।


सोचता हूँ की रूट को बदल बदल कर चलूँ।
रास्तों मे छुपी ऊंचाई और निचांई के साथ खेल से भरा लुफ्त है। कौन मिला और कौन छूटा को सोचने की जरूरत के बिना सफ़र बहता चलेगा। जैसे रास्तों ने अपने रहस्य को दिखा दिया हो। जिसमे घुसना भी दिलचस्प है और ना घुसना भी। अगर हर रास्ते के बाद कोई मंजिल है तो बीच में तो रहस्य है। मजा होगा। कहां निकल जायेगें की उत्तेजना और ना निकल पाने में राह खोजने की चाहत रूट को भी मजेदार बना देगी। हर दिन सेंकड़ो लोग चड़ते हैं और अपनी अपनी दूरी के समान रहकर उतर जाते हैं। इनकी दूरी के साथ रास्ते के अन्दर के मोड़ ज्ञात होगें।


सोचता हूँ की किसी दिन बिना टीकट के लोगों को आने - जाने दूँ।
हर रोज़ एक ही रूट पर चलना या हर रोज़ एक ही रास्ते पर चलना क्या? रास्ते तो हमेशा ही लम्बे रहे हैं। बस सिर्फ इतना फर्क है कि चलने वाला अपना सफ़र कर रहा है या अपने कदम गिन रहा है। कदम गिनना ही रूट है। रूट रास्ते को भोगते जा रहे हैं और उंचाई - निंचाई उन सपाट रास्तों को जिनपर जागना सिर्फ किसी पर नज़र रखना नहीं है। यहां पर चलने वालों ने ऊंचाई और निंचाई को नफा नुकसान माना है।

रोज कई लोग आगे के गेट से चड़ते हैं। बिना कुछ बोले चुपचाप बोनट पर बैठ जाते हैं। कई लोग फिर वहीं पर जमा होते रहते हैं। ना जाने क्या बातें चलती रहती है। उन्हे कहां उतरना है जैसे कुछ समय के लिये भूल गये हो। उस्ताद जी, कहकर ये दिखाने की कोशिश करते हैं कि हमारी बहुत पुरानी जान पहचान है। सिर्फ टीकट की गिनती इन मुलाकातो को बता नहीं पाती। किसको कितनी दूर जाना है ये तह होना ठीक होता हो लेकिन मोड़ कभी कभी इसे भी बदलने को उक्सा जाये तो? एक दिन ऐसा हो की जिसको जहां जाना है जा सकता है। जिसको जहां उतरना है उतर सकता है। गिनती से बाहर होते लोग अपनी जगहों से कहां पर जाने के लिये निकलेगे।


सोचता हूँ किसी दिन सवारी बन जाऊ :
देख पाऊँगा की अंधेरे और उजाले दोनो के बीच में सिर्फ समय के फासले का ही खेल नहीं चलता। सवारी कहां है? और कितनी है? को चुनना अंजानी मुलाकातों को भूला देता है जो अपने लिये कुछ बुन के लिये आती है और फिर गायब हो जाती है। अगर दिन के खत्म होते होते उन मुलाकातों को दोहराया जाये तो कैसे?

नफा और नुकसान सफर में रहने को जोर नहीं देता। वे फिर सफ़र ही कहां है। कितना चले को सोचा जाये या कितनो को देखे और मिले को सोचकर अपने रास्ते को बुना जाये। हर रोज एक ही रास्ते पर चलते चले जाना उस बीच के हिस्से को गायब कर दिया है। जहां से गुजरने पर ये ख्याल ही दूर हो जाता है कि कौन कितने समय से मेरे साथ है। बल्कि कौन कहां जा रहा है और उसका इंतजार किसको अपने साथ लेकर जायेगा का भ्रम जिंदा रहता है। ये सफ़र उस भ्रम का सारथी कि तरह है।

ये सारथी कौन है -  चलाने वाला चालक, बैठे रहने वाला सहायक, हर किसी के रास्ते का हमसफ़र, रास्तों को अपनाने वाला कोई पागल, गलती से चड़कर उतरने का ठिकाना तलाशने वाला, चालक के रोल में कोई काम करने वाला या चलने को काम मानने वाला या नये लोगों के साथ मे रहकर जीने वाला, भागकर बस में चड़ने वाला, गेट पर ही रहने वाला, बस की सजावट में उसमें लाइने लिखने वाला, संदेश देने वाला, सड़क पर रहकर बस पर नज़र रखने वाला या रास्ते पर कौन कैसे चलेगा के रूट मेप बनाने वाला।


अभिनय बेशक बहुत छोटा व बनावटी होता है मगर हर बार के रोल में राहों के मेप बदल जाते हैं।


 लख्मी

हूटर पर नृत्य

आसमान में सो चक्कर लगाने के बाद पानी पीने उतरे एक पक्षी ने खुद के अक्श को देखते हुये सोचा -

कभी कभी सोचता हूँ की पनियल सा बनकर बस चलता चला जाऊं। लोग मेरे अन्दर से होकर निकलते जाये। मेरा अहसास हो उन्हे लेकिन मुझे चलने के लिये रास्ता ना दे। कभी किसी के साथ साथ चल दूं। उसे लगे की उसके साथ कोई है, मगर वो मुझसे दूरी ना बनाये। डरे नहीं, भागे नहीं।

घर, परिवार, यारो की गढ़ी नजरों को धोका दूं। या फिर उन्हे भी चौंका दूं। मुझे चिंहित करने वालो को परेशान करूं या उन्हे हैरान करूं।

रात मे चिपकने वाले उन पोस्टरो की तरह हो जाऊं जिनमे जाने - पहचाने चेहरे भी उस तरह अंजान बन जाते है कि उन्हे फिर से खोजना पड़ता है। हर आंख उसे उस तेड़ी निगाह से देखती है जिसमें यह तंज होता है कि "ये पहले मिला या नहीं" इस तंज़ को अपना लिबास बना लूँ।

या किसी नाटक के उस किरदार की तरह हो जाऊं जो बिना डायलॉग के खड़ा है या रामलीला के स्टेज पर दिखती उस परछाई की तरह दिखने लगूं जिसे सब देख सकते हैं कि वे उड़ रही है या मेकअप उतारते उस कलाकार की तरह बन जाऊं जो मेकअप में भी  अंजान था और मेकअप उतारने के बाद भी या ऐसा बन जाऊं या वैसा दिखने लगूं या तैसा बन जाऊं या.....या.....या.... या....

इस "या" की भूख कभी बूढ़ी नहीं होती। वे हमेशा जवान रहती है। अनेकों 'या' एक अकेला मन अपने मे लिये चलता है। फेलियर से बाहर निकालने वाला या, खो जाने के लिये बना या, तैयार होने के लिये या, चौंकाने के लिये या, जीवन मे "नहीं बन पाया" की भरपाई का या, चुनाव की कसौटी का या, शख्सियत बदलने के लिये या, डर से भरा या, उन्माद का या, मसखरी से सजा या, मजबूरी का या, सलाह सा बना या। आइने के सामने दिख रहे बिम्ब ने खुद के चेहरे पर हाथ मारते हुए इस पल में अनेकों 'या' के होने को जिया हो जैसे। दरवाजा सामने दिख रहा है। जिससे हर रोज़ जो अन्दर आयेगा, बाहर भी वही जायेगा के ऊपर करोड़ो सवाल बिछा दिये गये।

पक्षी सा मन आइने के सामने खड़े बिम्ब में मिक्स हो गया।


हाथ में कुछ किताबें लिये वे उस जगह पर पहुँच गये जहां से शहर मे निकलने का पहला दौर शुरू हुआ था। एक साइकिल पर रखी किताबें उन्हे जितना लोगों के बीच मे उतारती  उतना ही अपने अंदर भी ले जाती। उनके पास कोई नहीं आता। वे ही सभी किताबों को पढ़कर अलग अलग नाम लिख देते। उनके रजिस्टर मे लिखा होता - अशोक एक किताब ले गया है जिसका पता ये है। अनेकों लोग उनके नाम, किताबों के नाम और पते लिख वे ही सभी को पढ़ रहे थे। काम कि दुनिया के साथ खेल कर वे किन्ही भीड़ को खुद से रचते चले जा रहे थे।

सरकारी संदेश अनुसार किताबघर के बंद होने को बोल दिया गया था। वे अनेकों नाम लिख कर उन सभी किताबों को अपने घर ले गये। आज वे उन सभी को निकालकर उनमें खुद को तलाश रहे थे। जैसे वो एक परछाई हो और उड़ रहे हो।

पक्षी सा बन वे कमरे से बाहर निकल गये।

लख्मी

Tuesday, August 14, 2012

Tuesday, August 7, 2012

आसपास एक रोल मॉडल

आसपास न तो पड़ोस है, ना ही निजी दायरा और ना ही वे सीमायें जिनको हम अपने जीने के तरीके मानकर चलते है। "आसपास" सोचने और जीने के कई पहलु और अंदाज़ के साथ खेलता है व मिलता है। "आसपास" अन्दर इतना घुलामिले अहसास की भांति होता है इसे सोचना न भी चाहे तब भी ये हमारे साथ जुड़ ही जाता है। किसी ऐसी फोर्स के साथ जो ना तो बाहर निकलने देती और ना ही अपने अंदर आसानी से दाखिल होने देती। "तुम कौन हो?” सवाल लिये ये हमेशा बहस मे रहता है। जैसे हमारा परिचय इस आसपास के नज़रियों से बनता और बदलता हो नियमित। जीवन का शायद कोई ऐसा सार नही है जिसे लोगों और जगह के बिना सोचा जा सकता है। तो ये लोग और जगह मिलेगे कहां? आसपास वो कहां का रूपक है। हम अपनी जीवनी, जीवन, कहानी,  सोच,  सवाल भी सोचे तब भी हमारी नब्ज का भराव इस कहां से ही रचा जाता है। 

ये कभी 'जहाँ' बन जाता है तो कभी क्षितिज़। कभी इसमें घूमते लोग समय का रुप ले लेते हैं तो कभी भविष्य यानि आने वाले समय का संकेत बन जाते हैं। जैसे किसी सक्रियेता की भूख के अंदर हम स्वंय शामिल हो रहे हैं। इस समझ से जुदा की ये अंदर है या बाहर? हम आसपास है या हमारा आसपास है? के गहरे और हल्के सवाल के बीच में जीवन की इतनी छोटी लकीरें खीचते हम किसी चीज की बुनाई मे है - जैसे नियमित है और जो बुना जा रहा है या जो बुनकर तैयार हो रहा है उसे कह रहे हैं आसपास। – ये कहना शायद ही ठीक हो लेकिन इसकी प्रवृति इससे कोसों आगे की है।
हम जिसे देखते है, भोगते हैं उसे अपने सप्रुत कर उसे चिंहित करने लगते हैं।
एक लिखने वाले के लिये, जीने वाले के लिये और जीवन बनाने वाले के लिये आसपास आगे की कल्पना दे पाता है जिसमें हम भले ही सोचे की ये "मैं" कर पाया लेकिन रॉल मॉडल जिनमे हम टकराये, भिड़े, जुस्तजू मे रहे, चौंकने मे रहे, वे आसपास हमें जैसे तोहफे मे दे देता है। क्या हम कभी सोच पाते हैं कि हम किनसे इन्सपायर होकर किसी दिशा को भेद पाये हैं? वे कौन है? 

हर एक पल मे बदलता नज़ारा और हर एक पल मे बदलती सोच हमें जैसे हर वक़्त "कोई" बख्श रहा है भले ही वे हमारी दिमाग उपज बन जाये पर उस का अंकुर किसी फोर्स को लिये है। सवाल आता है कि खुद को, सोच को, जानकारी को, कुछ बनाने को हम टेस्ट कहां कर पाते हैं? ये कोई है कौन?” आसपास में इस कोई की पहचान क्या है?

यह "कोई" मिलेगें कहाँ? आसपास में, समुह में, किताबों में या खुद में? "आसपास"  किसी के लिये ये "कोई" बन जाता है तो कभी यह "कोई" आसपास का चेहरा। ट्रांसफर होती ये छवि सक्रियता को बड़ाये रहती है। अपनी जिन्दगी, जिन्दगी सोचने के तरीक में इस भिड़ंत के साथ टकराना व जूझना बेहद महत्वपूर्ण बनता है। अनेको "कोई" कि कल्पना को साथ में लेकर चलना हर बार चैलेंज से ही टकराने के समान रहता है। आसपास वो कोई है?

एक शख़्स से बात करते हुये लगा की जैसे उस शख़्स ने खुद को दोहराया तो, वे अपने साथ में किसी छुपे हुए एक और "कोई" को बना गया। वे "कोई" जिसके बारे में सुना है। मगर देखा नहीं। उसको देखने की चाह ने किन्ही और शख्सों के बीच में उतार दिया। सवाल उभरा - कोई अपनी जिन्दगी की किस छवि को अपने साथ आगे ले जाना चाहता है और कौनसी छवि को परछाई बनाकर जीना चाहता है?

कई बार किसी शख़्स से मिलाकात होती और वो किन्ही और जीवनों में भेज देता। तार से तार जुड़ते शख्स एक दूसरे से चिपकते नहीं बल्कि किसी करंट की तरह स्पार्क करते जाते रहे हैं। आसपास इस अचिंहित तार की तरह हैं - जिसके स्पार्क ट्रांसफर होते पहलू बनाते है और अचिंहित दिशा को भेद कर कोई रूप बना पाते हैं।

लुफ्त अगर यह "कोई" बनकर जीने में है। जगह को रचने में है। अनेकों "कोई" के मिलने की जगह। वे जो काल्पनिक है, वे जो बिखरा हुआ है, वे जो परछाई की तरह है। वे जो अंधेरे में गायब नहीं होती बल्कि पूरे शरीर पर छा जाती है। विभिन्न अभिव्यक़्ति इन "कोई" के पीछे छुपी है। आसपास इन अभिव्यक़्तियों के साथ नियमित बहस मे रखता है।

आसपास क्या है को अगर सोचा जाये की “किसका आसपास?” तो - 
घर के मुखिया का?
स्कूल के किसी बच्चे का?
किसी जवान प्रेमी का?
किसी लेखक का?
किसी सरकारी मुलाजिम का?
किसी भटके मुसाफिर का?

वही सपाट, तरंगफुल, शौरगुल, शहरी रूप में उभरता या बयां होता शहर चुनौतीपूर्णतह बन बहुमुखी हो जाता है और अभिव्यक़्तियों के समक्ष खड़ा हो जाता है। बहुमुखी हो जाना यहां पर उभरता है - जिसके अनेको द्वार है जो हर घुसने वाले को कहीं भी निकाल सकता है या खड़ा कर सकता है। किसी बेग्राउंड की झलकी की तरह। वे जो हर वक़्त जोश मे रहती है, सर्तक रहती है, चुनौतीपूर्ण है, वो जो कभी सिंगल अवस्था कि चिहिंत धारियों को तोड़ती है। जैसे आसपास की कोई चिंहित तस्वीर नहीं हो। वे जो जहां पर खड़ा हो गया। वहीं पर उसका आसपास बनने लगता है।
आसपास की सक्रियेता को सोचना क्यों जरूरी है? कोई कब तक खुद को दोहरा सकता है? खुद को दोहराने में वे क्या मनचित्र बना पाता है? वे कब खुद से बाहर हो जाता है? कब लगता है कि उसे खुद को अब दोहराने से बाहर होकर सोचना होगा? इर्दगिर्द जीवन की अचिंहित झलकियों से हम क्या दुनियावी तरंगे बुन सकते हैं? कई लोग जो इन तरंगों को बनाते हुए निकलते हैं उनके समक्ष रहना क्या है? आसपास कई अनकेनी दृश्यों से बना मण्डल के समान है।
कुछ साथियों का गुट जो स्कूल टाइम से साथ मे रहे हैं। जीवन के मूल्यवान फैसलो को अपने जीवन का कारण मानते वे कामयाबी और ना कामयाबी को अपना हथियार नहीं मानते। कहां फेल हुए या कहां पर पास रहे को सोचना उन्होनें जैसे कब का त्याग दिया है। नफा नुकसान से अपना दिन दोहराते हैं मगर इस तराजू बट्टे की सोच से वे अपने जीवन को नहीं दोहराते। जो हो गया वे मूल्यवान फैसले के अन्दर से निकला कोई फल है जिसे मीठा मानकर जीना उनके लिये वर्तमान को आगे की ओर धकेलता है। उनके लिये धकेलना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना की वे आगे की ओर जा रहा है ये सोचना। 

कुछ दोस्तो से मिला :



सुभाष पिछले कई सालों से सब्जी की रेहड़ी लगाता है। गलियों मे सब्जी की रेहड़ी लेकर घूमना उसके लिये महज़ कमाई का रूट मेप ही नहीं बल्कि वे खुद घूमने मे रहना चाहता है से है। उनकी रेहड़ी पर जब खरीदारो की भीड़ लग जाती है तो वे रेहड़ी पर रखी टोकरी रेहड़ी पर बिखेर देते हैं तो सबको चुनने के लिये बोल देते हैं। हर कोई उस सब्जी के ढेर मे से खुद के लिये चुनना शुरू करते हैं।

यह करना क्या है? आसपास चुनने और छाटने के बीच रहता है।

देवा – पिछले कई सालो से लिफाफे बनाने का काम करते हैं। लिफाफे बनाने के लिये वे किसी पास की कबाड़ी की दुकान पर जाकर हर रोज़ बेकी गई रद्दी को चुनते है। किसी कॉपी मे अगर कुछ ही पन्ने भरे होते हैं तो वे उसे फाड़ कर नया बनाकर रख लेते हैं और किताबों को भी। बाकी के पन्नो के लिफाफे बनाने के लिये बैठ जाते हैं। लिफाफे बनाना उनका काम है लेकिन इसके लिये पेपर छांटना और नया करना उनके जीने के तरीके को ताज़ा बनाता है।

जैसे उनके तीसरे साथी - रात मे पोस्टर चिपकाने का काम करते हैं। वे जिन दिवारों पर रात मे पोस्टर चिपकाते हैं सुबह होते होते उन्ही दिवारों से उनका रिश्ता उन लोगो की तरह हो जाता है जिनके लिये वे पोस्टर लगाये गये हैं। ये महीन बदलाव क्या सोचने के तरीके को पुश कर पाता है।

उनके चौथे साथी राजू – शहरी घुमतू जगहों पर फोटो खींचने का काम करते हैं। उनकी एक दुकान भी है। मगर वे अपनी दुकान पर कम और बाहर ही ज्यादा दिखती है। शहरी फेमस जगहें जहां पर सबसे ज्यादा मुसाफिर आते हैं वे उनकी फोटों खिंचकर – दूसरे दिन उन्ही जगहों पर जाकर बैठ जाते हैं। कभी कभी होता है कि वहां पर वही लोग दोबारा आये लेकिन फोटो खींचवाते समय ये मिलन दोबारा जरूर होता है। यह मिलना क्या है?

उनके घर पर हर महीने एक गुट बैठता है। जिसमें हम बार कोई ना कोई नया शख्स जरूर होता है। हर कोई कुछ ना कुछ लिखकर लाता है और उसे सुनाता है। सुनाने के बाद मे वहां बैठा हर बंदा उससे जुड़ता अपना कुछ सुनाता है। वो हर मुलाकात के सुनाने को रख लेते है और अपना कुछ बनाने के लिये चले जाते हैं।

घर और बाहर उनके लिये कोई फर्क नहीं रखता। जब घर उनका बाहर बन जता है और कब बाहर उनका घर। वो अपनी उम्र के शायद कई पड़आव इस बाहर को बनाने मे दे चुकजे है। बाहर उनके लिये जीने का वो ससाधन है जिसमे वे कई और लोगों के बीच मे उतर जाते हैं।

किसी को भी देखकर कुछ लिख लेना उनके लिये शौक भी है और परिचित होने की राह भी। वे कई लोगों जो उनके दोस्त ही थे। उनका लिखा पढ़ते हुये कभी ये नहीं सोच पाये थे की वो भी कभी लिख सकते है। लेकिन उनकी पढ़ने की भूख ने उन्हे बदनाम कर दिया। पढ़ने की भूख लिखने की चाहत से ज्यादा कारगर होते हैं। जिसमा लिखना कौशल नहीं है। वे पढ़ने की भूख को एक दिशा देने के लिये होती है। जो उनके अन्दर जैसे घर कर गई है।

आसपास मे झलकियां या आसपास की झलकियां नियमित इस टकराव मे रहती है जिन्हे अनदेखा कर नहीं निकला जा सकता।

लेकिन ये आसपास लेखन मे किस तरह से आता है?

लख्मी

Friday, July 27, 2012

दीवारों के कान रोशनदान

हवा जैसे इस कमरे में बिना किसी बंदीश के सफर करती हो और धूप कोनों में से आकर चूम जाती हो। मटको को एक के ऊपर एक रखकर बना एक कमरा। तीन तरफ मटको की दीवारों के दूरी से बने अनेकों रोशनदान।जिससे बाहर की हर चीज़ शामिल हुई हो। तो दूसरी तरफ कमरे के अन्दर का हर माहौल और समय बाहर की दरों - दीवारों को खुद में मिला ले रहा हो। ऐसे रोशनदान जो दीवारों को दीवारें बनने का ओहदा भी नहीं दे पाये। और जो रोशनदान होने के बाद भी रोशनदान नहीं बन पाये। सभी कुछ एक – दूसरे की तस्वीरों में निगाह जमाने जैसा कोई खास पहलू के समान हो गया हो।

दीवारें, मजबूती और महफूजियत का दम भरने से दूर होती जाती। और अगर कुछ बाँटा भी जाये किन्ही से तो दूसरी तरफ या इस तरफ के बीच का गेप खत्म होने आसरा बना देती। कमरे में जैसे दीवारें कम और खिड़कियाँ ज्यादा हो। हर छेद एक झरोखा जो यहाँ के हर हिस्से को एक – दूसरे से जोड़कर एक ही बना देता है। इसका कोई "एक तरफ" नहीं है। कभी कोई अगर आये तो दरवाज़े की ओर जाने से पहले ही वे किसी भी दीवार से कुछ मांग ले, तो कभी वहीं से कुछ पकड़ा दे। अदला-बदली के बीच में खींची लाइनें शख्त नहीं रह हो जैसे। दीवार छूकर ही कुछ भी पकड़ लेने का खेल हो जैसे।

जिसमें मज़ा हो, जब चाहे उन्ही मटको की दूरी से बने छेदों से किसी को आवाज़ लगाकर बुलाने का। अन्दर खड़े हो और एक बाहर बनाने का। रात हो या दिन ये कमरा अनेकों लोगों का बसेरा बन जाये तो कभी कोई भी इस जगह से कोई कोना चुराकर वहीं पर रूक जाये। जो भी आये, अपनी जगह चुन वहीं पर जम जाये।

कमरे की एक रात -
नींद का ख़ुमार जोरों पर छाया है। हर कोई उसके संमदर में डुबकियाँ मारना चाहता है। रात बहुत हो गई है। कमरे में नज़र का जाना वाजिव है। लटकते तार और उसमें लगा एक 200 वाट का बल्ब। जिसकी रोशनी बाहर निकल रही है। खम्बों में भले ही लाइट जले या न जले लेकिन यहाँ इस कमरे में लाइट का जलना जरूरी है। सड़क पर गुप अंधेरा है। बल्ब के जलते ही कमरे के सारे छेदों में से रोशनी इस कदर बाहर आती जैसे वो सारी रोशनी की तेज़ तारों से ही वो कमरा जमीन से जुड़ा हुआ है नहीं तो अब तक न जाने कहाँ हवा में उड़ रहा होता। वो तारें कमरे से निकलती और जमीन की तरफ में बड़ती। ऐसा एक तरफ ही नहीं बल्की कमरे के चारों तरफ हो रहा है। कमरा किसी मोड़ के बीच में बना है। आसपास में रखे मिट्टी के समानों, बर्तनो और मिट्टी के ढेहरों पर पड़कर उनमें जैसे कई सोते हुए मोतियों को भी जगा रहा हो। रोशनी अपनी तरफ में इशारा कर है आगे की ओर बड़ने का। अपने को देखने का। वो रोशनी की तारें कमरे को जमीन से कुछ इस कदर बांधे है जैसे वो कोई हल्के जारजट के कपड़े का बना हो जिसे उड़ने से रोका हुआ है। नहीं तो वो आकाशगंगा में तैर रहा होता। बाकि की रोशनी के एक – एक तार पर कोई पक्षी बैठा। एक भारी इंट की तरह।
कई पक्षी उड़ान भर रहे हैं उस कमरे की छत तक पहुँचने को, अपना घौंसला बनाने को पर छत हाथ नहीं आ रही है। छत को तलाशने के लिये सभी इधर से उधर उड़ रहे हैं। एक दूसरे से टकरा रहे हैं।

कमरे का हर कोना जिसमें अनेकों छोटे बैठने के ठिकाने बने जिनमें घूमतू आवारगियों का अहसास है। किसके लिये हैं इसका कोई खास नेमप्लेट नहीं हो जैसे। कमरे का दरवाजा दिवारों के बने छेदों मे कहीं गुम है। कमरा बंद है या खुला इसके बीच है। अन्दर वाला बाहर में खड़ा है और बाहर वाला अंदर को जी सकता है। जिसने सोने का कोना और बैठने के ठिकाने को मिला दिया है।

कमरा बिना किसी सख्त विभाजन के बना है। बसेरों और राहगीरों की तलाश से बनी रौनक से सजता हुआ। कभी सराये तो कभी रेन बसेरा, कभी बसेरा। मगर इतना तो तय हो की हर कोई एक – दूसरे की महक से यहाँ पर खिंचा चला आता और रूक भी जाता। कमरे का अहसास लोगों में जैसे किसी रोग की तरह से फैले। जहाँ हर कोई अपनी चाहतों का बिछोना लिए चलता - गुज़रता हो। कुछ पल के लिए ठहरता और दिन के उजाले में कहीं खो जाता। फिर जब लौटता तो उसका चेहरा कहीं गायब सा होता लेकिन उसके शरीर का अहसास इतना गहरा होता की वो अपने साथ कई और लोगों के होने का आभाष साथ में लेकर आता।

लख्मी

पंखिले अहसास

लख्मी

अमूल्य विवरण

राकेश

Monday, July 16, 2012

काग़जात बक्से मे रखकर जमीन को खोदा जाता है



मैं मानता हूँ, “कितनी ही जिद् और टेंशनें हैं - किसी जगह में आने की, जाने की, कुछ बनाने की और साथ ही साथ टूटने की। मगर असल में ये सब की सब मेरे अन्दर हैं वो शहर में और न ही मेरे आसपास नज़र आती। मैं ही अपने अन्दर खुद का टूटना और बिखरना लिये चलता रहा और बाहर को रूखा - रूखा मानकर भी। क्या मैं अपने अन्दर ही दबकर रह गया हूँ? क्या वहीं से सब कुछ उभरता रहा?”

            *****************************************
कौन है जो पूरी जगह की तरफ से बोल सकता है?
कौन है जो पूरी जगह को बता सकता है?
कौन है जो पूरी जगह का चेहरा है?
कौन है?
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पहला शख़्स– क्या वो है जो अपने साथ 100 लोगों को लिये चलता है?
दूसरा शख़्स - क्या वो है जिसने लोगों के सरकारी दस्तावेज़ बनाये है?
फिर से पहला शख़्स - शायद वो है जिसने यहाँ पर लोगों को राशन दिलवाया है!
तीसरा शख़्स – यहाँ के प्रधान है - जो रात में कोई न कोई बुरी ख़बर सुनाते हैं।
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"खुदी हुई जगह को रोज़ - रोज़ देखकर मैं हैरान था। इसको दोहराने के लिये शब्द आ कहाँ से जाते थे सबके पास। जबकी मैं शब्दों और बोलो से कमजोर पड़ रहा था। एक शाम मेरे साथी ने कहा, “बाहर जाओ और जगहों, लोगों को देखकर आओ उसके बाद में खुद से हर रोज़ एक सवाल पूछों।"

वो कौन – कौन से लोग होते हैं जो शहर की कल्पना और गढ़ना मे नहीं आते?
लेकिन किसी जगह के टूटने के वक़्त उससे जुड़ जाते हैं।
 
20 घरों की गली मे से दस घर टूटे पड़े थे।
  •     वहाँ से गुज़रने का मतलब क्या है?
जिसकी गली में कभी गाड़ी नहीं घुसती थी
वहाँ पर घूसने वाली पहली गाड़ी थी बुलडोज़र।
  • ये नज़ारा मैं कैसे देखूँ?
एक आदमी अपने टूटते हुए घर से दस कदम की दूरी पर बैठा
अपने घर को देख रहा है।
  • उसके सामने दस मिनट खड़े रहने का मतलब क्या है?
4 लड़कियाँ अपने रंगीन घर के तोड़े जाने पर ही रो पड़ी
जिससे पूरी गली आँसूओ से तर हो गई। वहाँ पर खड़ी
पुलिसकर्मी भी।
  • मैं वहाँ से भाग आया - क्यों?
जब उस डायरी पर लिखे सवालों को मैं देखता तो बनने और टूटने के बीच में खड़ा मैं एकमात्र शख़्स था जो खुद से लड़ रहा था। उस डायरी ने एक अपार दुनिया मेरे सामने खोल दी थी।

लख्मी

Thursday, July 5, 2012

सामने जो दिख रहा है

किसको देखना चाहता है दिल मेरा
कुछ पाना नहीं - कुछ खोना चाहता है दिल मेरा
खुद को देखने के लिये जब भी आया ये आइने के सामने
खुद को देखकर बस, चौंका है दिल मेरा।

रूप बदलता रहा हर वक़्त
कोई कहानी कहता रहा हर वक़्त
हर सुनने वाला खुद के बसाकर
बेज़ुबानी मे भी गुनगुनाता रहा दिल मेरा


राकेश

Friday, June 29, 2012

मेरे ही जैसा


एक शाम घुमने को मैं निकला....
एक शख्स मिला - जिसे मैं नहीं जनता था मगर उसके मिलने को जानता था.

राकेश

Monday, June 25, 2012

दैनिक जीवन का मॉडल

शहर क्या हैं?  जिसमें शामिल होते ही चटख भरी दिनचर्या से हमारी मुलाकात हो जाती है। जो चुम्बक की तरह  हमें अपनी तरफ खीचती है। जहां पर उसकी हर सुबह उन्नत वर्तमान के नये परीवेश में ले जाने लायक होती है तो उसी मे से कई चीजें आँचल बनकर आँखो के सामने होती हैं। "शहर" इसे जैसे किसी खबर की तरह, हर एक नजर को दे दिया हो। किसी न किसी श्रोता की प्रतीक्षा में धुंदली रेखाएं माहौल में विराजमान रहती है। मन की चैष्टाये धूप की तरह अस्तिव में बिखर जाती है।

फिर "भीड़" क्या है? शहर में घूम रहे शहरियों का कारवां जो कहीं ठहरता ही इसलिये है की भीड़ बने। ये अपनी ही परछाई से टकराते, दर्द जानते जैसे उसका अहसास खोकर वो भीड़ को बुन रहे हो। लेकिन अगर कोई डाकिया बिना पते के ही संदेश दे जाता तो?

सड़के सुनसान है - कई दिवारों पर सजे दिवान हैं। कहीं लोट कर आने के लिये अपने भी क़द्रान हैं। कोई धूमिल सा अधूरापन लिये रास्तों पर चलता है। किसी की जिन्दगीं में बसा किसी का स्वरूप भीतर से बाहर का निकास देता है। कभी पूर्ण क्षमताओ से टकराती जिंदगानी नज़र से नज़र मिला कर बातें करती है। तो कभी खुद को रोक कर  दृश्यो को सुनने का मन करता है। यहाँ कुछ गणितिय उदहारणों की आवश्यकता है। जैसे सब कुछ इक्वल ( = ) नहीं है।
अंनत समिकरणों में उलझी जीवन की गुत्थियां हैं। जिन्हे सुलझाने का भी समय नहीं मिलता। ठीक उस तरह जिस तरह शरीर भी सवालों और रोजमर्रा के प्रभावो में शाखाओ की भांति खुद में व्यस्त रहता है। इस व्यस्त्ता को प्रतिदिन अनूभव किये और यथार्थ के अहसास से भी समझने -सोचने की कोशिश की। तो आम और खास के बीच बने सभी बने फासले को देखा जिसमें स्वंय को चिराग लेकर खोजने की आवश्यकता है।  

उजाला क्षण भर है और अंधेरा काली रात का हमख्याल। रात जिसके तले स्वप्न पनपते हैं। परछाईयां पड़ाव डालती हैं। फिर सवेरा हो जाता हैं। एक नई उम्मीद में। किसी आक्रमकता में, फिर किसी तारे के जमगाने कोशिश होगी।

शहर की रफ्तार में अनेकों जीवन शैलियां मचलने लगती हैं। हम जिन्दगी बने शख्स मिलते हैं फिर अंजानता में छूकर निकल जाते हैं। हम क्या चाहते हैं? कुछ मांगते ही क्यों हैं? 

रोजाना भोर होते ही रात इस उजाले के सामने आस-पास ही कहीं अदृश्य हो जाती है। या फिर उसे आसमान निगल जाता है? शहर कहता है जरा धीरे बोलो "दिवारों के भी कान होते है" मगर शहर के इस ज़ुमले के तात्पर्य को चुपचाप होकर सुनने वाली मूद्रा बदल देती है। शहर की सांस आज जोर-जोर से चल रही हो मानो तो। कौन इसका हमदर्द है और कौन इसका सुख-मुख है? शहर में जिस तरह से रोमांचकारी जीवन बसा है, जो शहर की सडकों का बदलाव, बजंर जगहों पर बने सोपिंग मॉल,  जो बजंर जमीन की से ही फुटे है मानो तो जरा।

समय आधार है। जिसकी वजह से चट्टानों का सिना भी चेतना की अवस्था में जाता है। हामरे इस रोजमर्रा पर कोई तो छाप है, जो निशान छोड़ जाती है। जिसका वर्णन पत्थर है और अहसास मोम है। कहीं सब कुछ समझ आ जाने वाले नियम रूप है। तो कहीं मुश्किलें हैं तो कहीं हैरानी से लबालब भावनात्‍मक पहलू के बयान हैं। चाहें वो विराम चिन्ह हो या सार्वजनिक निर्देशो से मुखातिव होकर भटक जाने का विचार।

जगह में अदृश्य चीजों की गंद (महक)  जैसे किसी तस्वीर को सामने से गुज़र जाने का पता चलता है। कुछ लय है कुछ लय के बाहर और कुछ आकार भी हैं। उसके बाहर भी।  सब का आकार सबके पास भी है और सब अपने आकार को खोज भी रहे हैं। लगता है की ये अंनतता ही हमारी आँखों के सामने स्थिरता बना जाती है। जिसे दूर तक देख पाना शायद काबू में नहीं मगर अंदाजा लगा सकते हैं।

शब्दों से बने अनेको बयानों की वर्णमाला अदखुली काल्पनाओ का वर्णन क्या है? हम शहर को अपने शरीर का अंग मान ले तो शहर और हमारे बीच रिश्ता बनता है? कम से कम ये क्षमताओं का टिकाट तो मिल जाता है। जो चीजों से रूबरू होने के बाद उनकी उत्तेजनाओ को शरीर में लेना और छोड़ना होता है। ये चक्र चलता रहता है। रोजाना के चिन्हों इलैक्ट्रोनिक सिंगनलो की कसमकस से निकलने के बाद क्या नज़र आता है? तब शौर, शौर नहीं होता वो एक आवाज, गूंज बन जाता है।  जिसेको सुनने में किसी छवि का हस्ताक्षर शामिल है। जीवन के हलातों से उपजी विपरीत परीस्थितियां को बॉडी का स्वभाविक रवईया गायब कर देता है। क्योंकि हमारी कल्पनाओं का मॉडल होता है और वास्तव में होता है। उसके बड़ने की प्रक्रिया मौजूद हलात से टकराती रहती है।

फिर शहर क्या है?

राकेश

रात का चोर



लख्मी

Wednesday, May 23, 2012

मार्ग किसी अद्वश्य रेखा

तेजी से किसी की ओर जाने की और बढ़ने की प्रक्रिया की लाईन का किस कल्पना से रिश्ता होता है? जीवन विस्तार से अलग है या जीवन विस्तार के लिये कुछ रचना करने की समझ देता है? इन कारणों का विरोध धीमी गती के साथ बॉडी में उतरता है और किसी तेजी से बनने और बसने वाली जगह की तरह उठने की कोशिश करता है। 

मैं किसी ऐसी जगह की दिवार पर वो रोज बैठता हूँ जहां से निकलने वाला हर कोई कुछ पल के लिये तो किसी के साथ हो ही जाता है। कभी बैठे रहने से तो कभी साथ मे रास्ता पार करने से। किसी को नहीं मालूम इस बार उनके साथ मे कौन होगा। लेकिन इस बात का असर जरूर उनके चलने मे होता है कि कोई न कोई उनके साथ मे जरूर रहेगा। कितने क्षण के लिये नहीं मालूम, किस रूप मे नहीं पता, किस भाषा से नहीं जाता पर कोई होगा जरूर। हर रोज़ उस जगह पर ये बातें होती है। 

क्या है वो?  कौन है वो? मैं क्या हूँ? मैं कौन हूँ? जो सामने है वो कौन था।? जो मेरे पास है वो कौन है? कल्पना का मार्ग किसी अद्वश्य रेखाओं में चले जाता है।  वो किसी जड़ से जुडे होने पर अपना बीच का रूप नहीं दिखा पाता मगर उनके सांस लेने का पताचलता है। कपड़ों पर अनगिनत निशान और जगह-जगह बने छेदों में से निकले धागे जो हवा से हिलते हैं। उसका वक़्त किस तरह की अदाकारी करता है।   नए के साथ जुड़ा हुआ है। उस बने खुले रास्ते पर रोजाना किसी का खुद को मरम्मत की आवश्यकता होती है। काल्पनिक जीवन विस्तार के एक साधन मात्र जैसा हो सकता है। क्या ये विस्तार जीवन मे कोई छवि गेरता है? लगातार कोई जैसे किसी की नकल करने में मग्न है। रास्ते का शोर उस की खामोशी को तोड़ने में सफल नहीं हो पाता है। हासिल क्या होता है, उसका छुट क्या जाता है? इस कल्पना के बारे में या इसे खोजने के बारे में मिली कहानियों में कुछ छुपा रह जाता है। शायद, वो अभिव्यक़्ति जिस का मिटना असंम्भव है। उसकी शक्ल में कभी खुद का धूंदला सा चेहरा नजर आता है तो कभी खुद में खेलती सर्सारहट महसुस होती है। वो अलौकिक शक्ति किसी का हस्ताक्षर है। अपने आप में जो सौगात के रूप में वापस करने के लिए जीवन की यात्रा देती है। 

राकेश

छत पर सोया एक रात

आज तुम लोगों के साथ साझा करने के लिए एक अजीब कहानी बता रहा हूँ। 

वह एक घटना है जिसें मैं वास्तव में किसी समय इस बारे में नहीं सोच पाया था। लेकिन मेरा पहला असाधारण अनूभव की छाया में कई व्यक्ति शामिल हैं। छाया जिसे लोग एक रूप में व आमतौर पर जानते हैं। जो इन पारदर्शी अंधेरे के प्राणियों ( यह शब्द मैं इसलिये इस्तेमाल कर रहा हूँ क्योंकि मैं सिर्फ इंसानों की ही बातें नहीं करना चाहता) यानि सभी में दिखाई देते हैं और अनेक ढंग से गायब होने के लिए इसे छाया कहा जाता है।

चेहरे चाहे ताबें के हो या मास के वो असल में सुविधाओं के अभाव के जरिये, ज्यादातर लोगों एक दूसरे से परिचित करवाते हैं। व्यक्तिगत रूप से मेरे एक या दो दोस्त है। मेरी रोजमर्रा मे मिले इन लोगों को किसी भी कारण इस बारे में नहीं पता की मुझसे सच –झूठ तकाजा नहीं किया जाता। उन्होंने एक बार मुझे बताया है। इन छाया प्राणियों द्वारा सजाया जा रहा माहौल, कभी कभी घर से बाहर प्रकाश को स्वीकार करने को कहता है।

एक कोने में एक दूसरे विभाजन के लिए दिखाई देती लाइनें है। काफी सारी, आड़ी तेड़ी, कुछ दीवार पर गड़ी हुई है तो कुछ खुरचने से बनी है। घर की दूसरी मंजिल पर सोने के लिए दीवार का इस्तेमाल किया जाता रहा है। यह मंजिल छत के आँगन और एक बाथरूम के लिए उपयोग की जाती है। हम सभी फर्श पर गद्दे पर सोए हुए थे। हमें पूरे फर्श की जमीन आँख के स्तर के मुताबित दृश्य दे रही थी। बाथरूम शायद बहुत छोटा है। पानी का गिलास रखा दिखाई दिया। गिलास मे एक दाग दिखाई दे रहा है। साथ ही एक खिड़की या अंदर यह सूर्य के प्रकाश की चांदनी है। जिसका कोई एक दरवाजा नहीं था। इसलिए हम अपनी गोपनियता को छुपाने की कोशिश में एक पर्दा चौखट मे डाल दिया करते थे।

एक रात वहाँ लग रहा था कि सोना मुश्किल हो सकता है। बाकी सब सो रहे थे और केवल चांद का प्रकाश गिर रहा है। मुझे याद है शहर का प्रकाश और चांदनी यह वास्तव में एक किसी के लिये बैक लाइट की तरह है। उसके प्रभाव के कारण होता है। जैसे चांदनीरात ....   "दरवाजा" एक प्रोजेक्शन स्क्रीन के रूप में अभिनय करता है। दीवार पर फोकस बनाता है। किसी छाया को वो चांदनी की वजह छत की दीवारों पर बिखेर देता है। और फिर सपाट पर्दे पर वे झलक नाचने लगती है।  वास्तव में सुबह जल्दी से या देर रात में सोया था। मैं वहाँ बैठा हूँ।| आँखों में आश्चर्य है। फिर अचानक किसी बहस ने ध्यान को पकड़ा। गली के अंदर से किसी के तेज चिल्लाने की आवाजों ने रात को परेशान कर दिया था। शायद यही आवाज़ दिन मे अगर होती तो कभी अपनी ओर ध्यान नहीं खींचती। नीचे गहमागहमी और ऊपर छाया का आंदोलन जारी था। ध्यान अगर उसपर से हट जाये तो वे जैसे कि बदल गया हो, जो पहले था वो सब कुछ अब नहीं था।

मैं गिरती छाया को देखे जा रहा हूँ। वो क्या है उसे सोचे जा रहा हूँ। कुछ देर तो समझ मे नहीं आया की क्यों। वो कभी कोई लड़की सी बन जाती तो कभी किसी जानवर की तरह। मगर ऐसा लगता जैसे वो नाच रही है। हवा के संगीत पत झूम रही है और अचानक ही गायब हो जाती है। मैं उसे देख सोच रहा हूँ "ठीक है, यह शायद सिर्फ परछाई बन चलती हवा के साथ कहीं उड़ जायेगी। 

इस बिंदु पर अपनी आँखें बंद सोने की कोशिश करता तो अचानक फिर से इसी नाच के आंदोलन मे फंस जाता। इस समय कोई पर्दा नहीं, मैं ये खुद को मनाने लगता हूँ। छाया चलती है तो मैं स्थिर रहता हूँ।  मैं पर्दे कि ओर देख रहा रहा हूँ तो कुछ ही सेकंड के भीतर मुझे कुछ भी पर्याप्त नहीं होता। यकीनन मेरी दृष्टि पर मेरा खुद का ध्यान केंद्रित नहीं है।

कुछ ही समय के बाद में पूर्णरूप से ये अहसास होने लगा था की छत पर सोना नामुमकिन है मेरे लिये।

राकेश

Saturday, May 19, 2012

Wednesday, May 16, 2012

एक लेख पर मेरे साथी का कोमेंट

झलकियों के बीच नाच

पिछली रात अशौक ने रजनी के चेहरे पर कई रंग लगा दिये। रजनी को इन सबका पता भी नहीं था। वे मदमस्त नींद में मुस्कुराती हुई सो रही थी। अशौक ने रंगो से उसके चेहरे को पूरी तरह से रंग दिया था। लाल, पीला, हरा और नीले रंग से इतनी लकीरें खींच दी थी की लगता था कई सारे इंसान के साथ रजनी आज बिस्तर में है।
(रंगो से इंसान को कैसे तशबीह किया डियर? कुछ अटपटा सा है कि सिर्फ एक रंग एक शख्स? कइ रंग तो कइ शख्स का अंदाज़ा?? कैसे?)

दूसरे दिन रजनी उठी तो हर रोज़ की तरह वो सबसे मिलने के लिये अपने कमरे से निकली। जो भी उसे देखता तो हंस पड़ता। वे समझ नहीं पाती। जो भी उससे बात करता तो बड़ी मुस्कुराहट के साथ। मगर रजनी अपने काम मे पूरी तरह जुटी हुई थी। वे जिस जिस के पास मे जाती वो ही उसे देखकर चौंक जाता। उसे करीब से जानने वाले उसपर हंसते और दूर से जाने वाले पूरी तरह से चौंक गये थे।
(कमरे से बाहर निकलर घर में ही रही? रजनी अपने काम मे बुरी तरह जुटि हुइ थी मतलब किस काम में? घर के? गर घर के तो पुरा जानने वालो और दुर से जानने वाले इसमें थे?? कैसे?)

सब की हंसी का कारण बनी रजनी वापस अपने कमरे में पहुँची। खुद को संवारने के लिये जैसे ही शीशे के सामने पहुँची वे खुद चौंक गई और फिर जोरो से हंसी। (यहां तो रजनी खुद को दुर से जानने वाली भी लगी और करीब से जानने वाली भी- यहां रजनी ने दुर और पास से जानने का सेपरेशन तोड़ दिया है। इस लाइन से शुरु कर सकते हो टेक्सट) काफी देर तक वे खुद को बस, देखती रही। रंगो को प्यार से छूती वे और भी ज्यादा बिगाड़ रही थी। जैसे खुद का ही चेहरा बिगाड़ रही हो। कुछ देर आइने के सामने खड़े होने के बाद में रजनी उसी हालत में फिर से घर के अंदर घूमी, अब की बार वो उन लोगों के पास मे गई जो उसे देखकर हमेशा नराज रहते थे तो कभी गुस्सा हो जाते थे। उनके सामने वे खड़ी रही।(यहां रजनी के किरदार के बारे में कुच समझ नही आता..मतलब जिनसे दुखी थी उनके पास गइ? नहीं ना! तो फिर येह फिर से वैसे ही जाना समझ आता है। पर उसने लोगो का सलेक्शन किया कि किसके पास जाना है क्या करता है देखों!) उन बच्चों के पास मे गई जो उसकी डांट फटकार पर भी हंसते थे। उन्हे डराने के लिये।

फिर दोबारा से अपने कमरे मे आइने के सामने आई और रंग को मलने लगी।


हर साल नाच मण्डली में हिस्सा लेती है। हिस्सा लेने से पहले वे कहां रहती थी व क्या करती थी। मण्डली का इससे कोई लेना देना नहीं होता था। शायद मण्डली का हर बंदा इसी रूप से नवाजा गया था। वे क्या छोड़कर आयी से ज्यादा वे इस बार क्या लेकर आयी है। नाच जमने से पहले यह जानने की रात हर साल जमती।

यह रात कई रोज की रातों से भिन्न होती। थकने और दुरूस्त होने से पहले की रात। (bahut khubsurat – yeh har kisi ki har raat ke liye ban jati hai) कभी याद नहीं रहती। हर कोई दिन के शुरू होते ही क्या रूप धारण करके इस बार बाहर निकलेगा को रचता, बोलता और उसमे खो जाता। ऐसा मालुम होता की जैसे हर कोई वो बनकर निकलना चाहता है जिसमे वो खूबसूरत लगे, दुरूस्त लगे और यादगार लगे और कभी कभी तो होता की वे वो बनने की कोशिश मे है जिसे वो पहली बार खुद पर ट्राई करेगा।

एक पूरी रात उस किरदार मे ढ़लने के लिये होती। एक दूसरे को गहरी निगाह से देख सभी उस किरदार का अहसास करते। जैसे सपाट चेहरे पर उस किरदार का रंगीला चेहरा बना रहे हो। एक ही रात मे सभी अपने चेहरे मे दिखते चेहरे को पोत उन राहों पर निकल जाते जो अब भी अपने ही जैसे को तलाश रही होती है। उन पुते रंगीले चेहरे के पीछे के चेहरे को सभी ताकना चाहते और खोचना भी।

वे आज तैयार थी अपने चेहरे की शेप के भीतर किसी और को बसाये। (hme` kohish karni hogi esi lines se bachne ki jisme lage ki han hum isme kuch keh gaye....kyunki kisi aur ko isme basaye kise? Taiyar thi kaise pata chala? Nikal jata hai...aur esi lines se hume lagta hai ki dikh raha hai sab...gar by chance yeh line tumhara bhai pade to use smjh ajayega ki kya kehne ki koshish hai? Hutar pe nach pehle pehla bhag tumhara bhai bhi padkar smjh sakega kyun? Kyunki usme padne wale ke sath likhne wala bhi maza le raha hai....nazar ajata hai...ese maze se likhna hoga)


रूप वापस लौटते हैं। किसी समय को साथ लेकर। वे समय जिसे जवाब देना चाहते हैं या वे समय जिससे बहस करना चाहते हैं। समय जिसमें रूप खो गये थे, जाने नहीं जा रहे थे, नकार दिये जा रहे थे। समय उन पड़ावो को रिले करता चलता है जिसमें फिर से ये उम्मीद होती है कि वे रंग ले सकते हैं। 

maza nahi aya dear.....

धन्यवाद
मेरे साथी

Tuesday, May 15, 2012

आइने के सामने

राकेश

आह क्यू की सच्ची कहानी / लेखक - लू शून


आह क्यू की सच्ची कहानी / लेखक - लू शून :
इसमें एक बहस महसूस हुई।
लू शून कहता है - आह क्यू जिसे मैं मिला वे अतीत से दोहराया नहीं जाता। साथ ही भविष्य में अपने निशां लेकर जाने वाले कोई ऐसा किरदार भी नहीं है जिसे उदाहरणता रख उस जगह को बयां किया जाये जिसनें आह क्यू जैसे कईयो से मिलने का मौका दिया।

असल में ये दिलचस्प दिक्कत रही है जैसे - मेरी एक दोस्त है निलोफर - उसका दूसरा घरेलू नाम है नीलम। 

नीलम और निलोफर : नीलम एक कलोनी मे रहने वाली लड़की है और निलोफर शहर मे निकलने वाली। मैं जिससे मिला वो निलोफर है। जो खुद को ऐसा किरदार बनाकर जीती है जिसका कोई कलोनी नहीं। मैं अगर निलोफर को लिखता हूँ तो वो उस जमीन के लिये क्या सवाल उठा पायेगी जिससे वे निकलकर अपनी किसी अभिव्यक़्ति को रच पायी है। आह क्यू को लिखते वक़्त लू शून के दिमाग में जगह और शख़्सियत का आकंड़ा फिट होने मे नहीं था। वे अभिव्यक़्ति को सोचने से पहले उस जगह को सोच रहा था जहां के लिये वे सवाल बन पायेगा। निलोफर को नीलम के नाम से जाना जाता है उसकी उस जगह पर जहां से वो निकलती है। मगर निलोफर ने नीलम को भी निलोफर बनकर ही जिया है। तो सही मायने मे "नीलम" कोई है ही नहीं। मगर आसपास एक हिस्सा सिर्फ नीलम से ताल्लुक रखता है और निलोफर को समझने की कोशिश करता है। मगर वे एक नाम है - जिससे जगह को बयां कर पाना मुमकिन नहीं।

वैसे ही आह क्यू वर्तमान मे जीने वाला एक शख़्स है। जिसे कई नामों से जाना व पूकारा जाता रहा है। लू शून मिला उस आह क्यू से जो कोई भी काम कर खुद को किसी अतीत व भविष्य मे नहीं ढलने देता। लोग उसे दोहराते हैं कि "आह क्यू" कोई भी काम कर सकता है। आज मिले आज करा लो, जो मिले वो करवा लो।

सुनाई जा रही कहानी - जुबानी है और जब वे सुनाई जा रही है तो वो बाहर नहीं रहती वे किसी के अन्दर चली जा रही है। अनेकों स्पष्ट यानि दिखते लोग, इन्ही असपष्ट अनदेखे किरदारों से लाइफ पर गहरे सवाल उठा रहे हैं। देखने वाली निगाह, पूछने वाली जुबान और सामने खड़े होने वाले कदम सभी को उस जमीन से हिला दे रहे हैं जिनका मानना है कि हर वक़्त पुख्ता रहना या तैयार रहना जीवन को आसान बनाता है।

तो फिर "रिडिंग" के खिलाफ हो जाना क्या है? कोई हमें कैसे पढ़ रहा है या कोई हमें कैसे खुद के शब्दों मे ढ़ाल रहा है? मे उभरते इस "कोई" के साथ किस तरह संवाद किया जाये? "ये कोई है कौन?”

"कोई" :

यह "कोई" सतर्कता है, सत्ता है, पारिवारिक है, संस्थाई है, या कोई समुह है जो अपने मे मिलाने से पहले ही हमें हमारे स्वयं से बाहर कर छोड़ता है। बोलता है - तुम्हारे अंदर सब कुछ है। जहां से तुम आये हो वो भी और वहां पर क्या देख पाये हो वो भी। अब वो हमें चाहिये उन सभी मुद्दों के साथ जिनसे तुम टकरा कर आये हो। खुद को लेकर आओ मगर खुद के स्वयं को छोड़कर। इस बहसिया शर्त को कई मौलिक ढांचो और बातचीतों में महसूस किया मैनें। यह किसी परछाई की तरह है मगर कई रूपों में दिखता हो जैसे - यह मेरे जीवन में हमेशा रहा। कभी इससे उठने की ताकत मिली तो कभी इसमें काफी उलझा रहा। लेकिन जीवन की रचना में इस "कोई" का दाव समाजिक और बौद्धिक दोनों के भीतर ही है।

यह कभी थर्ड परसन बना रहा - जिसने मेरे होने को मेरे ना होने के साथ जीने का तर्क दिया, कभी सेकेंड परसन – जिसने दोबारा से तैयार होकर आने का पंच दिया, कभी समाजिक छवि - जो क्या कर रहे हो पूछकर – भविष्य की ओर देखने को कहा, कभी बौद्धिक छवि - क्या कर सकते हो - कहकर अपने सामने खड़े रह पाने का हर बार चैलेंज दिया।



बहस जीवन के सवाल को लेकर होती है मगर वे जीवन किन व्यक़्तित्व के अभिव्यक़्तिय बनेगा के सफर मे होता है।

लख्मी

Saturday, May 5, 2012

किनारो के बीच में नाव

मायनो से बाहर की दुनिया को रचना। जो आदतन छवि को नकार रही है और उसे ना बनाने मे मसरुफ़ है बल्कि दुनिया में किस तरह की रचना को रखना है, जहाँ पर दुनिया वश से बाहर की लगे और सबको इसमें घुसने के अपने साधन बनाने हो। दुनिया को नया बनाना नहीं है और पुराने को तब्दील भी ना करना हो, इसके बीच में बहते जीवन को देखने का फ्रैम क्या है हमारे पास?

दो ठोस किनारो के बीच में बहता पानी (तरलता) अगर दोनों किनारो को आधार ना माने तो फिर दुनिया में अपनी ही सोच का कुछ अंश जोड़ना क्या है?
जोड़,जो कुछ सत्यापित करने के लिए नहीं हैं।
जोड़,जो नियमितता का तोड़ है।
जोड़, जो किसी कोलिज़न से मिलकर अपनी चरम सीमा को बनाती है।
जोड़, जो कभी मिलने के लिए बना ही नहीं है।
जोड़, जो किसी अदृश्य छवि/जादु को दिखाने की चाहत या चैलेंज में है।

कारवां जिसकी संख्या की गिनती अनेकता और विभिन्नता दोनों में आंका जाना मुमकिन नहीं है, वो कारवां हर किसी को अपने साथ लेकर चलने का न्यौता देता है। मगर उसके साथ में न्यौता है,जो दोनो के मिल जाने के मुवमेंट से बनता है। उसकी आगोश में सबका हो जाने का सेन्स देखने को मिलता है। जीवन का रस ही सबका होकर,सबके बीच मिल जाने में है।

कारवां कभी अपना नहीं होता,पराया नहीं होता और इसके साथीदार ना अपने लिए कुछ बनाने में होता है और ना किसी के लिए कुछ रख देने के दम पर। इस झुंड की कल्पना का ख्याल उन नये आयामों और रिश्तो को जन्म देने में खुलता है,जो सामाजिकता और नैतिकता के ख्याल से परे होते हैं। आसामान में उड़ान भरने का ख्याल,हकीकत है या नहीं है,होगा या नहीं होगा के बंधन से परे,साथ को जीकर आगे निकल जाने में है। आगे निकल जाना सिर्फ़ खुद की बोडी को लेकर निकल जाना नहीं है,वो निकल जाना कारवां से छूटकर नये कारवां और काफिले को तैयार करने मे है।

हम अपनी दुनिया को हकीकत है ये मानकर जीते है और ख्याल बनाना और ख्याल आना,ये दोनो ही हकीकत से बहस में रहते है। ये हकीकत बन जाये हम ये भी नहीं चाहते और ये झुठ है,इसमें भी हामी नहीं भरते है। इन दोनो को दुर और पास लाकर,बहस करवा या टकरा,इनके बीच से अपने जीवन का मजा बनाते है। मैं अकेला हूँ, मुझमें भीड़ है..ये एकान्त से विशालता में जाने का सिर्फ़ चिन्ह है। मैं ही सबकुछ हूँ या मुझमें ही सब बसा है,ये दोनो चीज़े मानकर हम स्वंय को गिरावट में ले जाने की क़गार तक आते है। बाहर और अन्दर दोनो के बीच के क्लेश और पल में निर्धारण बनता है,फैसले के लिए नहीं बल्कि बनाने के लिए। दोनो एक दुसरे से होते हुए निकलते है और वापिसी के चिन्ह छोड़ते हुए जाते है। निकल जाना और वापिसी की मुमकिनता पुराने ढांचो को तोड़ देने की ललक से बनती है।

लख्मी

भीड़ के बीच मे गधा

सुनसानियत का अहसास करवाते वर्दीदार सैनिक किसी की नज़र को पकड़ने की कोशिश में शरीर को एकटक बनाये हुये खड़े है। सब कुछ कंट्रोल मे हैं, सब कुछ कंट्रोल मे करने की आंख तेजी से कहीं अटकी हुई है। कुछ तलाशने की कोशिश से बाहर जैसे उसने अपने किसी टारगेट को चुन लिया है। लाइन लम्बी है, दूर तक जाने के अहसास से बनी है, लाइन मे अनगिनत वर्दीदारी खड़े होने के आसार है और अनेकों के सामने खड़े होने के भी। ना जाने कितने चेहरे अपने आपसे से बाहर होकर यहां पर इसी लाइन मे घूसने की कोशिश मे होगे।

उनपर भारी, उनकी लाइन में खड़ा, उनकी स्थिरता से आंख को चुराता हुआ, चेहरे को छुपाने से ज्यादा चेहरे को दिखाने की कोशिश में, ब्लैकवॉल को खुद मे समा ले रहा है। पीछे छुपी और बिछी "ब्लैकवॉल" जहां वर्दीदारी सैनिकों को पूर्ण तरह से देखने का और अपना दाव दिखाने का मौका देती है वहीं पर वे उस इलाके को छुपा लेती हैं जिसके समक्ष इस तैयारी का शामियाना लगाया गया है।

स्थिरता से रची गई कट्रोंल करती गली को डकमगाता एक चेहरा। वे जो महज़ चेहरा ही नहीं है। वे जो चेहरे के जैसा है, वे जो पूरा शरीर है. मगर वे जो शरीर के जैसा है। बदन पर कपड़े इसानी, वे जो इसान जैसा है, दिखता है मगर वो एक गधा। हाथ में एक नोट् फ्लैग पकड़े वे भी इसी स्थिरता का वासी है। पर स्टीकनेश से भरपूर नहीं। वे कभी देखने वाले का हो जाता सा लग रहा है तो कभी किसी सजायेवक्ता जैसा। शरीर की निठाल होती सक्रियेता। उस तरफ पूरी तरह ताला लगा रही है जहां पर तन तक खड़े, हाथों मे हथियार लिये सैनिको को देखकर नज़र बजाकर छुप जाने का खेल होता है। लगता है जैसे सामने खड़े होने की ताकत देता ये 'गधा' पूरे पावर के अभिनय को खुद मे उतार लिया है।

किसी शांत दिखती लकीर की तरह बनते चेहरे /  अनेको अनुमानों को खोल दे रहे हैं। कुछ देर पल जैसे खामोश रहता है। चेहरा अपना रूप ले रहा है। कभी दांय तो कभी बांय होता लगता है जैसे हर पल में एक पाउज़ ले रहा हो। हर बार पाउज़ का विभिन्न रूप और वज़न है।

घंटो अगर यूंही खड़े रहने पर भी दिन गुजर जाये तो दिखने वाली छवि अपने साथ चल देगी। वे जिसमें हर देखने वाला खुद को आसानी से पिरो सकता है। या पिरोये बिना वे जा ही नहीं सकता। जैसे कोई एक सवाल जिसे तलाशा जा रहा है वे – इस रूप मे ढाल देगा। पावर अभिनय है, डर है, स्टिकनेस है, मगर उस स्थिरता में जो तैयारी होने को डरावना करती है। 'गधा' उस तैयारी को उसने स्टेज दे दिया है।

लख्मी

टहलता हुआ पहिया


तीव्र चमक अपने खत्म होते होते किसी स्पार्क की तरह उछल कर टकराने वाले पर पड़ रही है। टकराहट उतनी ही ताकत से चल पड़ती है। झटके के वार से धक्का खाता पहिया, खुद को बेलेंस करता हुआ, लुढ़कता और टहलता हुआ चीजों को धकेलने के तैयार है।

पहले से तैयार जमीन उसके लिये किसी टेस्ट तरह है या बना रही है। तेजी और धीमे के बीच से होता हुआ वे ऊंचाई और निंचाई के साथ खेलता है। जैसे ही वे अपनी रफ्तार को हल्का करता तो सतह का खुर्दरापन उस छलांग मारते पहिये को, भी धक्का मार के आगे की ओर उछाल देता है। उससे वो रूकना नहीं, गिरता नहीं, थमता नहीं पर सतह पर बने रास्ते से टकराकर वे उनसे खुद को बना रहा है। खुद को उल्लास के लिये तैयार करता हुआ। सतह उसकी रफ्तार के साथ मे दूरी और पास का नया रास्ता बनाती चल रही है। राह ने उसके साथ किसी खेल को बनाया है। वे कहां जायेगा का अहसास मिसिंग है मगर कैसे जायेगा का अहसास तय मालुम होता है। सब भागती जाती, अपने वज़न से अपनी रफ्तार बनाती हुई। हल्के पहिये वाला सतह से अपनी रफ्तार बना रहे हैं। गति उस तीव्र चमक को सतह से हवा की ओर ले जा रही है। सतह से हवा तक पहुँचते पहुँचते चमक अपने रंग बदल रही है और साथ ही साथ अपने फोर्स को भी।

आहिस्ता आहिस्ता चमक सतह को छुती हुई किसी अंत की तलाश में मूवमेंट बना रही है। कुछ देर तक चमक लहराती हुई थमी रही है। अपना रंग बदला, आसपास के रंग पर छा गई, और फिर ऊंचाई को चूमने की कोशिश में किसी ना दिखने वाले गर्म अहसास से उड़ चली। कुछ दूरी पर उसके आने के लिये तैयार हो रहा है। एक सुखा गोला, उस गर्म अहसास को अपने मे ले लेने के लिये उत्सुक सा लगता है। उसके ऊंचाई पर खड़े रहने से उसने नीचे गिरना दाव किसी चैलेंज की भांति है। उसने उस गर्म अहसास से एक रंग ले लिया है। रंग ने जैसे उसे उड़ने का मौका दिया। घुमना, घूमना, घूमना जैसे वो नाच रहा है। हवा को अपनी भाप देता हुआ। हवा उसके पीछे पीछे चल रही है। लहराता रंग रोशनी से आसपास के नजारे को चमक तोहफे मे दे रहा है। कुछ जमीन उससे ये रंग चुरा रही है। जैसे कुछ लुटाया जा रहा है और जमीन उसे लूटने के लिये तत्पर है। कुछ देर तक ये डांस चलता रहा। तब वे खुलकर, बिखरकर, पीछे दिखती परछाई से गायब नहीं हो गया। जमीन ने उसके रंग को अपने शरीर पर ले लिया। जमीन भी उस भाप की गर्मी से कुछ देर जल रही है। किसी खतरनाक रूह की भांति वो गोला अपने परर फैलाता हुआ दिखा। जमीन मे कुछ ही देर मे जैसे उस भाप को ट्रांसफर कर दिया। आग लेने वाला कुछ देर तक उसे संभालने का अभिनय करता रहा। जमीन से उसे हिलने नहीं देता। पर जैसे ही परत आग से खुद को खोने लगती है तो हवा का झोंका उसे घुमाकर फैंक दे रहा है। हवा से अपनी जलन को हल्का करता हुआ वे जमीन पर पड़े बिखरे तिनको से मिल गया। तिनको ने उसे ले लिया। तिनको ने अपने को फुलझड़ियों की तरह रंग बिखेरने दिया। कुछ देर सब कुछ उन्ही फुलझड़ियों मे खो गया। उसने आसपास को खुद मे डुबो लिया। आसपास गायब ही हो गया। धीरे धीरे करके जब उन रंगो की ताप ने जोर पकड़ा तो चीज़े दूर होने लगी। उसमे से कुछ लेकर भागने के लिये। जिसको जो चाहिये था उसे मिल गया। मगर अभी उसके लिये वो पूरा नहीं था। एक नाता भाप से तेजी का - बनने मे कुछ कमी थी। समय ने उसे रोके रखा। रोककर उसे भागने का मौके को सोचने के लिये। वो रूका, रूका रहा। किसी गुलेल की तरह उसे तैयार करने के लिये। उसका आसपास पूरी तरह उजाले मे था। रूद्र था। रोशनियों की चकम को संभाले हुये। जिसे भागना है वे तैयार है। उसे गर्मी महसूस नहीं हो रही। रूद्रता उसके पीछे है। उसतक आने के लिये अपना जोर पकड़ रही है। कोई एक लोह उसतक आने के लिये निकल चुकी थी। उसतक पहुँचने मे उसे वक़्त लगा। मगर वो बहुत तेज थी। भड़काव मे थी। उसे भी पीछे से किसी ने तेजी से मारा था। उस तक वो पहुँच चुकी थी। कुछ देर वो उसकी गर्मी की फड़फड़ाहट को झेलता रहा। खुद मे भरता रहा। वो उसे रोक नहीं पाया - खुद को भी नहीं। किसी डर से या किसी उड़ान से या किसी सक्रियेता से वे दौड़ चला। मगर उसे घबराने की कोई जरूरत नहीं थी। उसके डर को अपने अंदर समाने के लिये - फोर्स को थमाने के लिये दीवारें जैसे तनी खड़ी थी। टकराहट की तेजी उसके पार भी निकल सकती थी। उसने उसे जाने नहीं दिया। खुद मे समा लिया। रोक लिया। उसकी चटकने की तेजी को रोक उसने चमक की सक्रियता को उसकी खासियत बना दिया। ना जाने कितनी देर वो उस सक्रियता को संभाले रखेगा!

लख्मी

Tuesday, April 17, 2012

न्यूज़ पेपर



कोई खो गया है
कोई गायब है
कोई दिख नहीं रहा
कोई मिल नहीं रहा
कोई दिखना नहीं चाहता
कोई मिलना नहीं चाहता
कोई भाग गया है
कोई चला गया है
कोई कहीं रूकना नही चाहता
कोई रूकने से डरता है
कोई छुप गया है
कोई गुम है
कोई गुमसुम है

कोई, कोई, कोई, कोई, कोई, कोई, कोई, कोई,
..................

Wednesday, April 4, 2012

सम्मुखत्ता की विरूधत्ता

01

कल्पना की दुनिया में जाने की राह मचलते दृश्य के सामने खड़े होने के समान है। जो उन्माद मे है, उसके सम्मुख खड़े होना - विचारने और ठहराव की प्रत्येक चौहदियों के विरूध हो जाना है। लकीरों के बिना मगर कुछ परछाइयां बनाते हुये। भटके हुए राहगीर की तरह जो रेगिस्तान में कुछ देर खड़ा हो उसके सपाट होने में अपने मन को जीने के ठिकाने बनाने लगा है। जिसका मानना है कि यहीं पर वो है जिसे वे देख सकता है। किसी नई दुनिया की नीव पर सारी धाराएं वापस लौटने को तैयार हो जैसे। उन तरंगो की भांति जिसका किनारा तय है लेकिन उस बीच उसके मचलने की कोई सीमा नहीं।


02

तरंगे किसी जाल की तरह असंख्यता मे हैं, छोटी व अधूरी- एक दूसरे मे गुथी, पानी को लहरिया बनाने मे सक्षम होने को भूखी रहती हो जैसे। असंख्य इनके भीतर है, मगर अंत तक जाने की चेष्ठा के बिना। एकल होना सिमटे हुए से बाहर है। एकांत और असंख्य के बीच खड़े किसी बिम्ब की भांति। ध्वनियां उसके भीतर से निकलती हैं, निरंतर और चीखती हुई - उसे बिखेर देने के लिये।



03

सरफस के नामौजूद होने की बैचेनी हवा के किसी झोंके पर ले जाती हो जैसे। जिसका छोर वहां पहुँच जाने वाले के लिये भी शायद किसी बेतालादर की तरह हो। कौन निकला था घर से, कौन था रास्ते में और कौन पहूँच पाया वहां- ये किसी एक से रूबरू होने जैसा नहीं है शायद। किसी पके पत्ता के उस हिचकोले खाते समय को बोलने जैसा जो इस नामौजूद सरफस पर झूल रहा है।


04

किसी भीड़ के भीतर खड़ा होना, और उसपर अपनी निगाह को बार – बार लाना जो असपष्ट है मगर शायद इसलिये क्योंकि कोई निगाह उस तक नहीं पहुंच सकती। जैसे कोई अपने अनुमान को अपने भ्रम में से जोड़ जीने के लिये निकला हो। किसी तह की गई चीज़ की तरह – जिसकी हर तह के खुलने और बंद होने की चाहत पर एक अस्पष्टता की गहनता का अहसास होता है। स्वयं के दाव पर लगाने के चैलेंज से समय के टूकड़ों को जीवंत्ता में बदल रहा हो। उस शरीर को कैसे पकड़कर पायेगे जो किसी झूले की तरह है, जो हर चक्कर में वापस आता है मगर किसी नई रफ्तार और फोर्स के साथ। स्वयं से समझोता, स्वय के साथ डिमांड़ मे रहने की ज़द्दोज़हाद है। ये कैसे जान पाओगें की बराबर मे चलना और साथ में चलने मे क्या फर्क है?


05

गहराई से आती सांसे कभी जोश मे उठ पड़ रही है तो कभी आसमान से गिरती ओस पानी की सतह पर अपनी छाया की परत से उसे शंक्खिये बना रही है।

उन्होनें आखिरी पन्ने पर लिखा था। जिसे सबने तकरीबन एक बार तो पढ़ा ही होगा। पढ़ने वाला एक बार तो उसे शंक्ख की तरह उसे अपने होठों तक लाया होगा। कई आड़ी तेड़ी लकीरों के बीच में मुड़ी पड़ी ये दुनिया, दास्तान, ज़ज्बात, बात या कल्पना की ये बिखेरी हुई दुनिया का कोई किनारा नहीं। शायद डायरी को पढ़ते रहने वाले इसके आगे के पन्नों को पढ़ने के लिये एक तस्वीर तो बनाई होगी की शायद, इसका किनारा जरूर होगा। शायद, ये बंदा कुछ गा रहा होगा। शायद, इसमे दिल मे कुछ रहा होगा। शायद, इसके पास से कोई होकर गया होगा।


लख्मी