Thursday, January 19, 2012

गुमनाम खत - पेज 02

अब तक इस ख़त की लाइनों में जीवित सांसो को महसूस करने की भूख मेरे शरीर को हिलाने लगी थी। जैसे आर्लम लगाये समय सांसो के साथ डांस कर रहा हो। मन हुआ इसे यहीं बन्द करदूं, फिर सोचा की मैं क्यों ना पढूँ इसे? इसलिये की मैं इसमे डूबना नहीं चाहता था या इसलिये की मैं किसी के इतने निजी मे आज तक गया नहीं था या फिर मुझे निजी होने मे घबराहटें थी।

कितने झोल मे जिन्दगी बसर करती है अपने उन सभी रिद्दमों से जो उसे हर भाव से रूबरू करवाते हैं। झोल जिन्दगी के नमूने हैं जिनसे रात और दिन के खेल का अंत होता है। झोल – किसी को वो नहीं रहने देते जैसा वो दिखता है या उसे कोई जैसे देखना चाहता है। ये उसके होने मे बसा है। एक पल को तो लगा की ये दास्तान या बोल मेरे ही घर के किसी छुपे कोने से है। लेकिन एक पल मे जब मेरे झोल खुलने लगे तो मैंने इससे दूरी बना ली और कट्टर बन उसे कोसने लगा जिसे मैं जानता ही नहीं हूँ। मैं ही क्या ऐसा कोई भी करता। अकेले मे नजदीक और भीड़ में सामुहिक हो जाने के खेल आसान और समझदारी वाला है इसे कौन नहीं खेलना जानता?

एक पूरी रात तुम्हारी हर बात को याद करके मैं खूब हसं रही थी। तुम्हारे उस कुएँ वाले किस्से को याद करके जब तुम अपने घर से साबून की छोटी सी टिकिया चुराकर नहाने गई थी और अपनी सारी सहेलियों से तुमने उस साबून को छुपाया हुआ था। तुम्हारे लिये वो बहुत महंगा साबून जो था। तुम्हारी बहन ने वो खुद के लिये खरीदा था। मगर तुम्हे उसके सफेद रंग से प्यार हो गया था। तुम भी ना अम्मा! पागल ही थी। कुएँ का पानी बहुत ठंडा था और तुम्हे नहाने की जल्दी थी। जल्दी जल्दी के चक्कर मे तुमसे वो साबून फिसलकर कुएँ के किनारे बनी एक पोखर मे गिर गया था। एक पल को वो तुम्हारे परेशान होना और एक पल के लिये तुम्हारा वो खुश होना दोनों मेरे समझ से बाहर था। लेकिन मुझे हंसी ही आए चली जा रही थी। उस पोखर मे तुम उतरी और उस साबून को निकालने लगी, बहुत ढूंढा था तुमने लेकिन वो मिला नही। तकरीबन 2 घंडा ढूंढने के बाद भी वो जब नहीं मिला तो तुम चुपचाप चली आई। घर मे ऐसे रही जैसे तुमने कुछ किया ही नहीं। ये सब तो ठीक था मगर तुम तो दूसरे दिन भी उस पोखर मे घूस गई थी उसे ढूंढने के लिये। क्या अम्मा तुम ना सच ही में पागल ही थी। भला वो मिलता तुम्हे? गल नहीं गया होगा, ये भी नहीं सोचा था तुमने।

उस लोटे पर किसी का नाम लिखा था क्या अम्मा जिसे तुम रोज देखती थी? मैं पूछ नहीं रही बस, ऐसे ही जानना चाहती हूँ।

तुम्हारा वो कमरा जिसकी दिवारों पर बस तुम्हारे लिखे कुछ अक्षर ही दिखाई देते थे। आड़े तेड़े, अधूरे, मिटाये हुए, एक के ऊपर दूसरे को चड़ाये हुए सारे शब्द ही थे। मगर किसी का नाम नहीं था। वो शब्द मुझे कभी समझ मे नहीं आये थे। वो क्या तुम्हे पसंद नहीं थे, पसंद थे, सुने थे, तुम्हे चिड़ाते थे, डराते थे या तुमने अपने कमरे को अपने लिये एक किताब बनाया हुआ था जिसे तुम ही लिखती थी और तुम ही पढ़ती थी। इतना शौर था तुम्हारे उस कमरे में आज भी है, बस दिवारें सपाट रही है, मुझे पता है क्यों - मगर उन सफेद पुती दिवारों के पीछे वो शब्द चिल्लाते हैं मैंने उनकी आवाज सुनी है। मैंने अपने कमरे को, वो आवाज सुनने वाला बनाने की बहुत कोशिश की लेकिन बना नहीं पाई। मैंने भी अपने कमरे को बोलने वाला बना दिया था। तुम एक पल भी उस कमरे मे रुक नहीं पाई थी। लगता था जैसे तुमने उसे अपना लिया है। तभी दूरी बना ली थी। मैं तुममे खुद को देख रही थी। शायद ये मेरी गलती है।

मैंने अपने दोस्तो के बीच में एक बार इस कमरे का जिक्र किया था। वो आपको प्यार मे डूबी और दुखी होने के ही बारे मे कहते रहे, शायद इससे ज्यादा वो समझ नहीं सकते थे। दोस्ती, प्यार और अफ्येर के बीच के फासले को वो शायद कभी समझ नहीं सकते थे। तीनों मे होती बातें, हरकतें, आदतें, डूबना एक ही तरह से होता है मगर अहसास का फासला इसमे महीन सी दूरी बनाता है वो शायद इनसे अंजान है।

मैं तुम तक पहुँचना चाहती थी, इसलिये इन सब को समझने की कोशिश मे थी। बैचेनी, तड़प, लरक इनका वास्ता जब जीवन से पड़ता है तब ये बदलती है, नहीं तो समझने का फासला बन नहीं पाता। ये मेरे दोस्तों के पास मे नहीं था। सच कहूँ, मेरे किसी दोस्त ने मुझे तुम तक पहुँचाने का रास्ता नहीं दिखाया था। ये मैंने खुद चुना।


लख्मी

Tuesday, January 17, 2012

एक गुमनाम खत -

मेरे दरवाजे पर पड़ा था एक खत शायद रात भर पड़ा होगा। मुझे सुबह मिला था। रात कितनी तेज बारिश पड़ी थी ये उस खत से जाना जा सकता था। घर के छज्जे के नीचे होने के बाद भी वो पूरा पानी से तर था। अगर उसे उसी वक़्त खोला जाता तो उसके टूकड़े हो जाते। वैसे तो जमीन पर पड़े हर कागज़ को उठाया नहीं जाता या हर पन्ने पर ध्यान नहीं जाता। मगर उसे इस तरह से मोड़ा और लपेटा गया था की दिमाग उसे उठाने और सुखाने की ओर एक दम चला गया। खत के अन्दर लिखे गये शब्दों के अक्श बाहर उभर आये थे। सभी पन्ने नीली स्याही से रंग गये थे।


मैं कभी भूलूंगी नहीं वो सब

प्यारी अम्मा -

ये ख़त मैं तुम्हे जहर खाने से एक घंटा पहले लिख रही हूँ। अगर जहर नही खा पाई तो घर से भाग जाऊंगी, मुझे पता है अगर मैं घर से भाग गई तो मेरे घरवालो को बहुत ज़लालत झेलनी पड़ेगी मगर अगर मैं एक दिन और इस घर मे रही तो मैं मर जाऊँगी, मेरे हाथ मे एक समय ज़हर की एक छोटी सी शीशी है जिसमें मेरे बाइस सालों का अंत दिखाई दे रहा है।

मैं मानती हूँ मैंने सबको बहुत दुख दिये हैं बस अब बहुत हो गया। अब मैं और दुख देना नहीं चाहती किसी को। चार दिन के बाद मे मेरी शादी है और वो रिश्ता भले ही जबरन रहा है लेकिन "हाँ" कहने की गलती मैंने ही की है।

अम्मा माफ कर देना मुझे मैं जा रही हूँ, शायद फिर कभी लौटकर ना आऊँ

मुझे अच्छी तरह से याद है वो ख़त जो मैंने उस रात मे अपने घरवालो को लिखा था। उसका एक एक शब्द मेरे दिमाग पर छपा हुआ है। उसमे समाया डर और दूर निकल जाने कि खुशी दोनों बहुत ज्यादा थी। मैं कभी डर को आने वाली खुशियों से दूर करती तो कभी आगे कुछ है भी ये सोच ही नहीं पाती। वो डर फिर अकेला मुझपर चड़ जाता।

अम्मा तुमने मुझे अपने जीवन की जो भी बातें बताई वो मेरे दिल को कसोटती जाती रही है। मैं तुम जैसी नहीं बन सकती। और ना ही बनना चाहती। अम्मा तुमने एक ही टाइम मे वो सब कैसे पी लिया जो इस छोटी सी जहर की शीशी से भी ज्यादा जहरीला था। मगर वो सारी बातें जो जब तुम सुनाती थी तो मेरे सामने धूंधली ही सही मगर कुछ तस्वीरें बना डालती थी। और उमने तुम जवान दिखती थी लेकिन सही बताऊँ तो तुम्हारी जवानी की शक्ल में मैं होती थी। तुम जो जो बताती जाती लगता जाता की वो सब मैं कर रही हूँ या मेरे साथ ही हो रहा है। मैं तुम्हारी कही हर बात मे, रात मे, कहानी मे सब कुछ करती जाती थी। क्या जब मैंने तुम्हे अपनी बातें बताई तो क्या तुम्हे भी मुझमे तुम दिखाई देती थी? मुझे लगा था की मेरे अब की बातों में छुपी लड़की तुम्हे जवानी की अपनी शक़्ल याद आती होगी। आखिर हमारे बीच में 30 साल का गेप मिंटो मे भर जाने का एक यही तो रास्ता था।

इतना समय बहीत गया है लेकिन उस खत का एक एक शब्द कभी बी मेरी आंखो के सामने नाचता है और मैं सहम जाती हूँ। मैं अगर जरा सा भी सोचू उस वक़्त को जब मेरे उस खत को पढ़ा गया होगा तो क्या हुआ होगा? उसको सपने मे भी देखूगीं तो मुझे ज़हर की भी जरूरत नहीं पड़ेगी बिना हिचकी लिये ही मैं मर जाऊंगी।

हमारे दो पड़ोसी 10 साल के बाद मे मुझे मिले जिन्होने उस दिन के बारे मे मुझे बताया, जिन सालो को मैं अपनी जिन्दगी का हिस्सा ही नही मानती थी वही मेरी जिन्दगी की देन थे। अम्मा, एक दिन तुम बहुत ग़ोर से एक लोटे को देखे जा रही थी। झाडू लगाते लगाते तुम उस बक्से की तरफ चली गई जो हमारे घर का एक मात्र तिजोरी बना रहा है। उस लोटे मे क्या था? तुमने कभी नहीं बताया। मगर जब तुम उसे देख रही थी तो मैंने पहली बार ये महसूस किया था की तुम मेरी अम्मा नहीं हो। वो तो नहीं हो जिसे मैं रोज देखती हूँ॥ कई बार सोचा था की उसके बारे मे मैं तुमसे कुछ पूँछू मगर मन नहीं होता था। इसलिये नहीं की तुम बताओगी नही या मेरे पूछने पर तुम्हे बुरा लगेगा। मगर इसलिये की उस तस्वीर को मैं भूलना नहीं चाहती थी जो मैंने एक पल के लिये देखी थी।

अम्मा मेरा सच मे मन नहीं है इस जगह से जाने का - लेकिन........

मैं फिर से बोलूँगी


लख्मी

रिजर्व और स्ट्रीट

हम "आरक्षित" को कैसे देखते व पढ़ते हैं – कोर्नर, बस की सीट, नोकरी, जगह यहाँ तक की खाने की टेबल तक। ये किसी ऐसी अवस्था मे जाने के समान है जो अपने चिंह छोड़ने के जैसा नहीं है बल्कि चिंह गायब करने के समान है। "आरक्षित" का होना एक बहस को उत्पन करता है। एक उदाहरण देना चाहता हूँ - अगर कोई दो लोग ये जिद् करले की वो खोना चाहते हैं एक – दूसरे से तो ये कैसे साबित होगा की पहले कोन खोया? एक शख्स सड़क के किनारे मे नाई दुकान चलाते हैं। हर रोज़ वो अपने कांधे पर अपनी कुर्सी और नाई का समान लेकर आते हैं और शाम तक रहते हैं फिर चले जाते। वे अपने सामने वाली सड़क पर कभी किसी को रोजाना नहीं देखते। ऐसा कोई भी चेहरा नहीं होता जो रोज़ दिखता हो। यहाँ तक की उनकी दुकान पर भी हर रोज़ वो बन्दे नहीं आते जिन्हे उन्होनें पहले भी देखा हो। लेकिन इस पढ़ाई में वो ये भूल जाते हैं की वो कितनों को इस सड़क पर रोज़ दिखते होगें। इस गिनती मे वे हमेशा गायब होते हैं।

शहर को सोचते हुए ये तस्वीर हमेशा खुलती है कि शहर को सोचने वाला या रचते हुए देखने वाला खुद कहाँ होता है? मैं कई दिनों से बाहर घूम रहा हूँ। ये बाहर मेरे दायरे मे नहीं आता तो बाहर लगता है। सब कुछ ठहराव मे लगता है, ऐसा लगता है जैसे मैं खुद को ठहराव मे देखना चाहता हूँ। लेकिन क्यों? अपने को कोई जगह दिलानी है तो पूरे इलाके को सोचने से पहले लोगों को अपनी धारणा मे क्यों बसा लेता हूँ? इलाका, घर, काम और वो स्पेश जिसकी तलाश है वो सब 'मुताबिक' क्यों? सड़क का किनारा जहाँ पर मैं पढ़ रहा हूँ किसी को, कोई मुझे भी पढ़ रहा है।

"दृढ़ होना" मगर इसके विरूध में "लचीला होना" ) शहर इन दोनों के बिना जीता है। शहर असल में कुछ भी नहीं है। वे महज़ एक परछाई है जिस पर पड़ जाती है वैसा रंग ले लेती। शहर किसी का दिया हुआ नाम है?, लिबास हैं?, आधार हैं?, पता है? या शब्द हैं? ये शब्द कहाँ से आते हैं?
रफ्तार, रूकना, खड़ा रहना, स्टाफ, चुप्पी, मंच, बिका, निजी, शिफ्ट, होर्न, सावधानी, चेतावनी ये शब्द किसके हैं, किसके लिये, इनमें कोन हैं, किसकी आवाज़ में है?, किसके चेहरे हैं?, कोनसी जगहें हैं और क्या कल्पनाएँ हैं?

मैंने शहर को सोचने की कोशिश की "Reserve or Street” से। ये किस तरह से भिड़ंत में हैं? जहाँ शहर अनबेलेंस और अननोन बना रहता हैं वहीं पर "आरक्षित" का एक खेल है और पुख्ता है। लेकिन शहर जब हम बोलते हैं, सुनते हैं या देखते हैं तो कोई भी जगह जो खुद से रखी या बनाई जा रही है। वो स्थिर तो होती है लेकिन स्थित नहीं होती और शायद ये परत ही इसकी असली तस्वीर हैं। जैसे - आज जो है वे कल नहीं होगी ये तय नहीं होता? आज हो बना है कल वो ताज़ा होगा ये भी पक्का नहीं होता। इस रिदम में शहर के भीतर जीना और शहर के साथ जीना जीने लायक समा बाँधता चलता है। ये शायद शुरूआत है -


खुद के सन्नाटे को शोर मे बदलने की कोशिश की है। जब हम सन्नाटे को सोचते हैं तब 'Reserve' समझ मे आने लगता है। ये मांग मे क्यों हैं?, बहस मे क्यों है?, लड़ाई मे क्यों है? असल में ये खुद को दिखाने के समान है। लिबास को शख़्सियत बनाने की लड़ाई है।

एक मात्र अगर देखा जाये तो सिर्फ सड़क का किनारे शहर के बीच मे बेसहारा रहता है। ये किसी का नहीं है। वैसे हर किसी का है। यहाँ पर कुछ "आरक्षित" नहीं है। ये शोर में इजाफा करने के लिये भी है और शोर से लड़ने के लिये भी। मैंने "आरक्षित" को सोचते हुए खुद को रखा है। ये खेल भी हो सकता है और अपना आपा रख पाने के जैसा भी। एक सवाल दिमाग मे आया - क्या सड़क का किनारा हमको इतना उक्सा सकता है कि हम उसे अपनी कल्पना मे ले ले?

बोर्ड कोर्नर - शहर को पढ़ना ये कहाँ और कैसे उभरता है? अगर हम शहर के उन जगहों पर जहाँ बड़े-बड़े बोर्ड लगे होते हैं वहाँ पर और किसी एक इलाके के मोड़ पर एक छाता और बुक सेल्फ लगा दिया जाये तो?


बस के अन्दर - सीटें हर रोज़ उठने - बैठने, नातों के कनेक्शन, छोटी मुलाकातों के अहसास और अजनबी कहानियों के जुड़ावों से भरी होती। बस जिनती भरी होगी उतनी वो सक्रिये होती है और सबसे नजदीक होती है उसकी सीट। लेकिन सबसे ज्यादा "आरक्षित" का अहसास उसी मे जुड़ा होता है। काश एक शहर ऐसा होता की घर से बाहर निकलते ही वे रिश्तों, कामो और अपने से दूर हो जाता। खो जाता। सीटों को अजनबियों के हवाले कर दिया जाये और एक इलैक्ट्रनिक बोर्ड ऐसा हो जो किसी रिड़िंग को सुना या पढ़वा रहा हो। एक कल्पना सफ़र की, मूव की और किसी के होने की।



कूड़े का खत्ता - सड़क का कोना जहाँ एक मात्र कहे तो जो दिखता है। वो है कूड़े का खत्ता। मेरे एक ने एक बार मुझे इवाइट किया था की अपने आफिस मे चाय पीने को। मैं जब उसके आफिस गया तो उसने और उसके कुछ साथियों के अपना आफिर बनाया था कूड़े के खत्ते के साथ मे एक किसी कमरे को साफ करके। ये देखकर मैं अटपटाया। हँसी भी आई लेकिन ये उस ओर ले जाने की कोशिश थी जो जगह को उसके भार से उतार देती है। एक ऐसी कल्पना मे ले जाती है जो उसको किन्ही और संभावनाओं मे ले जाये। ये एक ऐसा स्पेश है जो अवशेषों से बनता है। इस भार की भिड़ंत मे इसे कैसे सोचे? इसकी छत को ऐसी कल्पना में ले जाया जाये जो एक टेलीकास्ट और पेंटिंग की जगह बने। उस दूरी को नजदीकी लाने की कोशिश नहीं जो जगह से बल्कि उसे चूनौती देने के समान होगी।

स्ट्रीट बोर्ड - अगर कोई बीच सड़क पर जहाँ पर कोई किसी को नहीं सुनना चाहता या न कोई रूकना चाहता। वहाँ पर अगर कोई सुनाने का किनारा बना ले तो? ऐसा किनारा जो पारदर्शी नहीं है और न ही परदेदार है। उस स्पीड से टकराने के समान है जो रूकना नहीं जानती। खोये हुए को सुनना नहीं चाहती और खो जाने पा लुफ्त नहीं लेना जानती।

बिजली का खम्बा - दो अलग-अलग दूरी। गली, सड़क या किसी पार्क मे। खम्बों के बीच की जगह क्या करती है? खम्बा जो अपने नीचे मानले की अलग कहानी गढ़ता है। हर कहानी मे किरदार अलग-अलग होते हैं। उनकी दिनचर्या भिन्न होती है। लेकिन ये शहर की क्या तस्वीर है? क्या इसका कोई नाता है। मैं खुद को कई लोगों के बीच मे पाता हूँ। लेकिन भिन्न मगर जब किसी के सामने पाता हूँ तब लगता है की एक कोई महीम तार है जो खींचा है बीच मे। पर उसकी कोई निशानी नहीं है, आवाज नहीं है और न ही शायद उसका कोई जीवन है। मैंने सोचा की शहर के किन्ही दो खम्बों के बीच मे घंटियों की एक डोरी बांध दूँ। ये शोर जो दो अलग धाराओं को जोड़ता है। तब मेरी दोस्त ने कहा, “तुम सड़क के शोर में और इजाफा कर रहे हो या कुछ टकराव दे रहे हो?”

रेड लाइट - खाली रूकना ही नहीं है इसकी तस्वीर जाना भी है। लेकिन फिर भी इसे ठहराव के नाम से जाना और पहचान मे लाया जाता है। क्यों? जीवन रूकने और खुद को सुनने के लिये भी है लेकिन स्पीड को नवाजा जाता है। वक़्त के साथ चलो। ये चलना क्या है?

इनको कल्पना मे लेने की कोशिश है। शहर यहाँ से किस तरह अपनी उड़ान को लेता है और हम किस उड़ान की तरफ ले जा सकते हैं? उसको धाराणा मे लेकर कुछ स्टूमेंट रखने की कोशिश से समझने की भूमिका अदा की है।

लख्मी

Wednesday, January 11, 2012

फरार



कोई है वो जहां पर उसी के चेहरे का कोई मौजूद बैठा ख्यालों मे किसी को सुनता है।

राकेश

Tuesday, January 3, 2012

गैरमहसूस शरीर



राकेश

सड़क नहीं है कहीं पर भी




रोशनी जो मजबूती पड़कर उसे दिखाती है -
कुछ देर का ये ठहराव रोशनी को देखने के उस स्केल को बुनता जाता है जहां से रोशनी उस मजबूती को निगलती जाती है जिसे देखने मे मदद करती है।

लख्मी

अफवाहों का साल 2012

नया साल मुबारक

कई अफवाहों से उलझा साल आखिरकार दरवाजे पर हर साल की तरह धड़ल्ले से दस्तक देकर घर के अंदर दाखिल हो ही गया। सच मे..... ये बेहद सच्चे मन से मान ही लिया जाये की ये सारी अफवाहें इस साल मे सच हो जायेगी तब रोजमर्रा का रूप क्या होगा? क्या वे तब भी फसाद ही बनकर रहेगी या कुछ और रूप ले लेगी?

राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन की "आनंद" नाम की फिल्म के अनुसार जब किसी को ये मालूम हो जाये की उसका अंत कब है तो वो दुगना जीता है। रिश्ते, नाते, फैसले, नियम, काम और बैचेनी के रूप बदल जाते हैं। तब इस साल मे क्या होगा?

अफवाहों में इजाफा करते हैं - 2012 में दुनिया का अंत होगा। ये बात अगर सही मे सच हो जाये और ये पता न हो की वे कौनसे दिन व तारीख और समय मे होगा तो हर पल को इस तरह जिया जायेगा जैसे वे आखिरी है - इसके बाद मे वो फिर से नहीं आयेगा।

एक बार एक दिल्ली की बस्ती का विस्थापन किया जा रहा था। रात हो चुकी थी। सभी सवेरे होने वाले सरकारी खेल की कल्पना कर रहे थे। दिन का रूप क्या होगा ये किसी को नहीं पता था। किसी को नहीं पता था की कौन कहां पर चला जायेगा दूसरे दिन की शाम होते होते। बस, सभी रात को भोग रहे थे। कुछ देर के बाद वहां पर नाचना और गाना शुरू हुआ। वो गाना किस भाषा मे था इसको कोई सोच रहा था, वे बस उस रात का वो निवाला था जिससे रात को भोगा जा रहा था। ये भोग जीवन के चरनो मे था। कल के सवेरे के लिये।

उस रात के बीत जाने के बाद मे मेरे एक साथी ने कहा, "ये रात फिर नहीं आयेगी। रातें आयेगी, आती रहेगी मगर इसे ऐसे जी लिया मैंने जैसे ये दोबारा नहीं आयेगी।"

पिछले साल से बाहर निकला जाये - मगर साल से बाहर निकलना कैलेन्डर से ही सिर्फ बाहर निकलना होगा -
पिछली रात यूपी मे एक जोरदार अफवाह ने दस्तक दी - पूरे यूपी मे फैला की अगर "कोई रात मे सोयेगा तो वो पत्थर का हो जायेगा।" 2 जनवरी 2012 को शायद "रात"पूरी यूपी मे हुई ही नही या वो "रात" नही हुई जिसे सोने के लिये बनाया गया है। रात को जीने की परमपरा को इस एक अफवाह ने जोरदार वार से तोड़ दिया। रात भर लोग सड़क के किनारे खड़े इस रात के खेल को देख रहे थे और ना तो खुद सो रहे थे और ना ही किसी और को। रात अपनो से बात करने के लिये अब तक बन चुकी थी। ठण्ड क्या है और ओस क्या सबको इसने अपने पैरो तले रख दिया था।

साल की शुरूआत हो चुकी है। हर दिन और हर रात का आलम इन मीठी अफवाहों से भरा होगा। जीवन और मौत के बीच मे ये अफवाहें ना जाने कितने परमपरागत नितीयों को तोड़ेगी और जीवन सच मे खेलता नज़र आयेगा।

लख्मी