Thursday, March 29, 2012
Monday, March 19, 2012
उड़ान के भीतर
हम अपनी उड़ान कैसे चुनते हैं?
कोमल जी, “उड़ान और खुशी चुनने का मौका कहाँ मिलता है? यहाँ पर दिन रात थकने मे ही निकल गये लेकिन कभी ऐसी थकान नहीं मिली जिसमे खुशी मिली हो। सब कुछ दिया, कुछ नहीं रखा अपने पास पर परिवार को ये ताना कसना अच्छी तरह से आता है कि तुम हो कौन? काश की ये मैं खुद ही पुछ लेती अपने आपसे तो मैं कब की वहाँ से चली आती। मुझे पूरा मौका मिला था अपनी दुनिया चुनने का। पर मैं समझ क्यों नहीं पाई, ये मैं सोचती हूँ॥ मैं नहीं थकना चाहती घर के कामों मे, मैं भी बाहर जाना चाहती हूँ, काम करना चाहती हूं, नौकरी करना चाहती हूँ, मैं भी जब घर आऊं तो लगे की दुनिया देखकर आई हूँ। यहाँ पर आने के बाद मे कई किताबे पड़ी, उसमें लगा की मैं इसके अन्दर बस गई हूँ। पिछले कई साल मुझे पता भी नहीं था की मैं क्या पढूँगी? बाहर जाने का मतलब ये नहीं है मेरे लिये कि मैं कहीं कैद हो गई हूँ पर बाहर जाने का मतलब मेरे लिये बहुत जरूरी है। कहीं मेरे बच्चे भी मुझे उन लोगों की तरह न देखें जो मेरी मदद करने के बहाने मुझे पागल कह चले जाया करते थे। मैं पागल नहीं बनना चाहती। मैं भी दिखाना चाहती हूँ मैं अपनी जिन्दगी, अपना काम और अपनी थकान खुद से चुनूं।"
शामू चाचा, “मेरे लिये मेरी उड़ा और मेरी थकान तो अब बनी है, पहले तो मैं ऐसा था की समय को अपनी मुट्ठी मे बंद कर लिया करता था और दबादब ढोलक बजाता रहता था। सब मुझसे पूछते थे की शामू कितना बजा है तो मैं कहता था की कुछ नहीं बजा, अभी तो बजेगा। और सब लोग हँसने लगते थे। पर मैं अपने हाथ से टाइम को छूटने नहीं देता था। पर अब मुझे सोचना होता है कि मैं क्या करूंगा, तब सोचना होता है कि कौनसा समय, कोनसा काम और कोनसी जगह चुनू जिसमें मैं घंटो रहकर अगर थकू तो पता ही न चले। मैं समय को तो अब भी जकड़ा हुआ है, पर साला लगता है कि समय ने मुझे जकड़ लिया है, पर बेटा निकल जाऊंगा में इसके हाथों से, कोई नहीं पकड़ सकता मुझे। कोई नहीं।"
मुकेश भाई, “जिस काम या चीज़ मे मेरा बिलकुल कंट्रोल न हो, उसे करने मे मज़ा आता है। बस ड्राइविंग करते समय सोचता था की दिन में 10 चक्कर मारने के बाद में 200 रूपये मिलते हैं तो क्या मैं जल्दी जल्दी नहीं कर सकता। स्पीड़ तो मेरे हाथ मे होती थी तो उसे बड़ा दू और लंच से पहले के 5 चक्कर तो फटाफट मार लू और फिर घर मे जाकर आराम करूं। बहुत बार कोशिश की ये सब करने की, बहुत मजा आता था सवारी भी ऐसी मिलती थी की बंदा टाइम पर पहुँचा देता है लेकिन जब मैं स्पीड बडा दिया करता था तो गाडी मेरे कंट्रोल से बाहर हो जाती थी, पीछे बैठी सवारी को इसकी भनक भी नहीं होती थी मगर मैं अन्दर ही अन्दर डर रहा होता था। ये डर ज्यादा दिन तक मैं झेल नहीं पाया। छोड़ दी मैंने वो नौकरी, लेकिन अब लगता है कि एक बार फिर से वो डर महसूस करूं।"
बिमला जी, “उड़ान ही तो चुननी है तभी तो अपने जीने के तरीके पर सोचना चाहती हूँ॥ मैं दूसरों के जीवन से और काम से बाहर निकलना चाहती हूँ ताकी मैं क्या करूंगी और कैसे करूंगी सोचूं। कब तक करू मैं किसी के लिये। मुझे तो बदलकर रख दिया है, मै क्या हूं साला पता ही नहीं चलता। मैं भी अपना कुछ बनाऊं नहीं तो झुलसकर रह जाऊंगी और पता भी नहीं चलेगा। अपना शौक, अपना खाना, अपना पहनना सब कुछ अपने हाथ मे लेकर मैं बाहर रहना चाहती हूँ।"
श्याम लाल जी, “मैं चाहे बैठे - बैठे थक जाऊं पर मुझे ये न लगे की मुझे लोग ऐसे देख रहे हैं कि मैं निकम्मा हो गया हूँ॥ मेरा मन नहीं लगता एक जगह पर जमे - जमें। पहले की बात कुछ और थी, कि जिम्मेदारी करते करते लगता था की मैं थक भी जाऊ तो भी ठीक है, उसमे कई चेहरों की हंसी छुपी थी पर अब लगता है कि मैं निकल जाऊं। शाम में आऊं। लोग पूछे मुझसे की मैं कहाँ से आया हूँ, कहाँ जा रहा हूँ। नहीं तो लगता है कि आप गायब हो गये हो, गायब हो जाओं अच्छा है पर किससे गायब होओगे? अपने से गायब हो गये तो ठीक नहीं है, ये तो आंख का अंधा होने के जैसा होता है। उस बात से गायब हो जाओ तो तुम्हे कहती है कि तुम अब किसी काम के नहीं रहे। ये सबसे बड़ी बेज़्जती की बात है।"
लख्मी
कोमल जी, “उड़ान और खुशी चुनने का मौका कहाँ मिलता है? यहाँ पर दिन रात थकने मे ही निकल गये लेकिन कभी ऐसी थकान नहीं मिली जिसमे खुशी मिली हो। सब कुछ दिया, कुछ नहीं रखा अपने पास पर परिवार को ये ताना कसना अच्छी तरह से आता है कि तुम हो कौन? काश की ये मैं खुद ही पुछ लेती अपने आपसे तो मैं कब की वहाँ से चली आती। मुझे पूरा मौका मिला था अपनी दुनिया चुनने का। पर मैं समझ क्यों नहीं पाई, ये मैं सोचती हूँ॥ मैं नहीं थकना चाहती घर के कामों मे, मैं भी बाहर जाना चाहती हूँ, काम करना चाहती हूं, नौकरी करना चाहती हूँ, मैं भी जब घर आऊं तो लगे की दुनिया देखकर आई हूँ। यहाँ पर आने के बाद मे कई किताबे पड़ी, उसमें लगा की मैं इसके अन्दर बस गई हूँ। पिछले कई साल मुझे पता भी नहीं था की मैं क्या पढूँगी? बाहर जाने का मतलब ये नहीं है मेरे लिये कि मैं कहीं कैद हो गई हूँ पर बाहर जाने का मतलब मेरे लिये बहुत जरूरी है। कहीं मेरे बच्चे भी मुझे उन लोगों की तरह न देखें जो मेरी मदद करने के बहाने मुझे पागल कह चले जाया करते थे। मैं पागल नहीं बनना चाहती। मैं भी दिखाना चाहती हूँ मैं अपनी जिन्दगी, अपना काम और अपनी थकान खुद से चुनूं।"
शामू चाचा, “मेरे लिये मेरी उड़ा और मेरी थकान तो अब बनी है, पहले तो मैं ऐसा था की समय को अपनी मुट्ठी मे बंद कर लिया करता था और दबादब ढोलक बजाता रहता था। सब मुझसे पूछते थे की शामू कितना बजा है तो मैं कहता था की कुछ नहीं बजा, अभी तो बजेगा। और सब लोग हँसने लगते थे। पर मैं अपने हाथ से टाइम को छूटने नहीं देता था। पर अब मुझे सोचना होता है कि मैं क्या करूंगा, तब सोचना होता है कि कौनसा समय, कोनसा काम और कोनसी जगह चुनू जिसमें मैं घंटो रहकर अगर थकू तो पता ही न चले। मैं समय को तो अब भी जकड़ा हुआ है, पर साला लगता है कि समय ने मुझे जकड़ लिया है, पर बेटा निकल जाऊंगा में इसके हाथों से, कोई नहीं पकड़ सकता मुझे। कोई नहीं।"
मुकेश भाई, “जिस काम या चीज़ मे मेरा बिलकुल कंट्रोल न हो, उसे करने मे मज़ा आता है। बस ड्राइविंग करते समय सोचता था की दिन में 10 चक्कर मारने के बाद में 200 रूपये मिलते हैं तो क्या मैं जल्दी जल्दी नहीं कर सकता। स्पीड़ तो मेरे हाथ मे होती थी तो उसे बड़ा दू और लंच से पहले के 5 चक्कर तो फटाफट मार लू और फिर घर मे जाकर आराम करूं। बहुत बार कोशिश की ये सब करने की, बहुत मजा आता था सवारी भी ऐसी मिलती थी की बंदा टाइम पर पहुँचा देता है लेकिन जब मैं स्पीड बडा दिया करता था तो गाडी मेरे कंट्रोल से बाहर हो जाती थी, पीछे बैठी सवारी को इसकी भनक भी नहीं होती थी मगर मैं अन्दर ही अन्दर डर रहा होता था। ये डर ज्यादा दिन तक मैं झेल नहीं पाया। छोड़ दी मैंने वो नौकरी, लेकिन अब लगता है कि एक बार फिर से वो डर महसूस करूं।"
बिमला जी, “उड़ान ही तो चुननी है तभी तो अपने जीने के तरीके पर सोचना चाहती हूँ॥ मैं दूसरों के जीवन से और काम से बाहर निकलना चाहती हूँ ताकी मैं क्या करूंगी और कैसे करूंगी सोचूं। कब तक करू मैं किसी के लिये। मुझे तो बदलकर रख दिया है, मै क्या हूं साला पता ही नहीं चलता। मैं भी अपना कुछ बनाऊं नहीं तो झुलसकर रह जाऊंगी और पता भी नहीं चलेगा। अपना शौक, अपना खाना, अपना पहनना सब कुछ अपने हाथ मे लेकर मैं बाहर रहना चाहती हूँ।"
श्याम लाल जी, “मैं चाहे बैठे - बैठे थक जाऊं पर मुझे ये न लगे की मुझे लोग ऐसे देख रहे हैं कि मैं निकम्मा हो गया हूँ॥ मेरा मन नहीं लगता एक जगह पर जमे - जमें। पहले की बात कुछ और थी, कि जिम्मेदारी करते करते लगता था की मैं थक भी जाऊ तो भी ठीक है, उसमे कई चेहरों की हंसी छुपी थी पर अब लगता है कि मैं निकल जाऊं। शाम में आऊं। लोग पूछे मुझसे की मैं कहाँ से आया हूँ, कहाँ जा रहा हूँ। नहीं तो लगता है कि आप गायब हो गये हो, गायब हो जाओं अच्छा है पर किससे गायब होओगे? अपने से गायब हो गये तो ठीक नहीं है, ये तो आंख का अंधा होने के जैसा होता है। उस बात से गायब हो जाओ तो तुम्हे कहती है कि तुम अब किसी काम के नहीं रहे। ये सबसे बड़ी बेज़्जती की बात है।"
लख्मी
Friday, March 16, 2012
Wednesday, March 14, 2012
सवाल के कई जवाब
"आज का सवाल" जब भी स्कूल में इस लाइन को लिखा देखता था तो समझ नहीं पाता था की ये लाइन किसके लिये है? लिखने वाले के लिये, पढ़ने वाले के लिये, देखने वाले के लिये या सिर्फ यूंही है। और उसके नीचे लिखा सवाल तो और भी ज्यादा परेशान करता था की ये सवाल क्या है? क्या इसका जवाब मिल गया है किसी को तब लिखा गया है, अभी तक नहीं मिला है, अब भी ढूंढा जा रहा है, कभी मिल ही नहीं सकता, मिल गया है फिर और ढूंढना है - कुछ समझ नहीं आया। स्कूली दुनिया से बाहर निकल कर जब उन सवालों को दोहराया या समझने की कोशिश कि तो उनके मायने मिले - जवाब तो नहीं।
हम सवालों को किस तरह से सोचते है? क्या वे हमारी दिक्कतों को हल करते हैं?, नई दुनिया मे ले जाते हैं?, आगे का दिखाते हैं?, किसी से मिलवाते हैं?, पीछे का याद दिलाते हैं?, खुद से मिलवाते हैं?, ज्यादातर सवाल - उस असपष्ट दुनिया की ओर इशारा भर है जिसके बाहर खड़े हम उसके अनुमान लगाते हैं। वे हमारी है या हमारी नहीं है - की टाइट उलझनो से बेनज़र होकर। सवाल, पूछे जाते हैं - कहे नहीं, सवाल बताये जाते है- पढ़े नहीं, सवाल गढ़े जाते हैं - दोहराये नहीं। मगर कभी ये समझने की कोशिश मे रहते हैं की सवाल दोबारा जीवन मे लौटते हैं। पर सवाल कभी किसी एक फिक्स जवाब से मरते नहीं।
कुछ सवाल मेरे दिमाग मे रहे हैं - जिन्हे जब बातों मे डालने की कोशिश की तो जीवन की वे झलकियां सामने खुल कर आई जिन्हे मैं कभी अपने खुद के रिश्ते, एकांत, समुह मे नहीं सोच पा सकता था। उसके लिये मुझे इनसे बाहर जाना होता।
ये बातचीते हैं - उन सवालो पर जो मेरे दिमाग मे रूक गये। जिन्हे अपने आसपास में, घूमते शहर मे, सोते शहर मे, खोते शहर मे, इसे पाया।
सवाल , "हमें कब लगता है कि हमें अपने जीने के तरीके पर सोचना होगा?”
सोनम जी, “मैं अपनी जिन्दगी में काफी पीछे रह गई हूँ। सबसे अलग हो गई हूँ। मैनें अपनी पूरी जिन्दगी ऐसे आदमी के साथ बिता दी जिसने मुझे कभी ये सोचने ही नहीं दिया की मैं क्या हूँ। बस, घर और उसको संभालने मे लगी रही। मैं भी चाहती हूँ की बाहर निकलूं, कुछ करूँ, जो मौका मुझे आज मिला है वे पहले कभी नहीं मिला। मैं रोई, अकेली रही, सब कुछ छुपाया, किसी को कभी कुछ अंदेशा नहीं होने दिया कि मैं क्या झेल रही हूँ। लेकिन, अब ऐसा नहीं चाहती। मैं अपने हाथों मे लेना चाहती हूँ सब कुछ, ताकी मेरे बच्चे मेरे आने वाले टाइम को लेकर डरे ना। अब सोचने को मिला है। मुझे सबने खींचने की कोशिश की, मगर मैं वावली सी बनी रही। जैसे मुझे कुछ समझ ही नहीं है दुनियादारी की। बस, उसके और परिवार-परिवार करते हुए पूरा जीवन ही चला गया। मैं अब अगर किसी को बताऊँगी तो क्या। मैं याद ही नहीं करना चाहती वो 20 साल जिन्दगी के जो मैनें परिवार नाम से और मेरे हाथ पर जिसका नाम लिखा है उसके हाथ के नीचे बिताये है। मुझमे अब जैसे ताकत आ गई है। मैं बस, 2 साल ही तो दूर रही हूँ अपने उस नर्क से और इसी टाइम ने मुझमे जान डालदी। मैं बहुत खुश हूँ।"
शामू चाचा, “मुझे रोटी की चिंता नहीं है और न ही तेरा चाचा परिवार की चाहत रखता। मैं तो मस्तमौला हूँ। जब भजन था तब तक तो कभी खुद को सोचा ही नहीं था। उसके साथ रहना और चलना मुझे लगता था की तुझे और चाहिये क्या। पर अब वो नहीं है तो लगता है कि जो वो मुझे अकेला छोड़ गया है तो मैं अकेला होकर क्या करूगां। दारू पीकर जीवन खत्म नहीं करना चाहता मैं। मैं भी चाहता हूँ कि कोई शामू मुझे भी मिले और मेरे साथ रहे। उसके जाते ही सब कुछ मिटने लगा है अब मैं सोचता हूं की यार, क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, परिवार मे गया तो मुझे बाप बना लेगें और मैं बाप नहीं बनना चाहता। बाप बनना होता तो शादी कर लेता। जिन्दगी बीत गई अब नहीं होता ये सब। पर कुछ करूंगा, अकेला नहीं रहूँगा। ज्यादा कुछ दिल में आया तो पहुँच जाऊंगा भजन के पास। उसकी छत पर।"
राजू भाई, “एक ही तरह से जीते - जीते जब लगता है ना की कुछ बन नहीं रहा तो तरीका बदलना होता है। वैसे तो घर ऐसी चीज़ है कि ज्यादा समय तो आप एक ही तरीके से जी नहीं सकते। वो अपने आप बदलवा देता है। शादी हुई नहीं कि आपको सोचना होता है कि अब कैसे जिया जाये। क्योंकि आपका जीने का तरीका आपके अकेले का नहीं है, उसके साथ अगर कोई और भी जुड़ा है तो तरीके को बदलना ही पड़ता है। नहीं तो रहो जीवन मे उसी बासी रोटी की तरह जो ना फेंकी जाती और न खाई जाती।"
बाला जी, “जब बहुत हो जाये ना, तो बदलना पड़ता ही है। वैसे तो कोई बदलना चाहता नहीं है, मगर जब लगे की पानी सिर से ऊपर बहने लगा है तो बदलना पड़ता है। नही तो लोग तुम्हे पागल समझकर तुम पर चड़ जाते हैं और तुम चुपचाप रहते हुये सब कुछ करते हो। अगर भइया चुपचाप ही जीना है तो मत बदलों।
मैं घर से ज्यादा काम पर अच्छी थी, काम पर जाते हुए लगता था की कब तक कमाऊंगी और सबको खिलाऊंगी। तो घर पर बैठ गई। लेकिन घर तो चूस लेता है। बाहर जाती थी तो इतने लोग जानते थे मुझे की क्या बताऊं। 427 बस वाले, दूर से देखते ही बस रोक लिया करते थे की अंटी आ गई। मगर अब तो मुझे खुद नहीं पता की 427 बस चलती भी है या नहीं। स्टाफकैलाश में दुकान वाले, किस्त पर मेरे नाम से समान दे दिया करते थे। अब तो पता नहीं है की और कोन-कोनसे नये समान आ गये है। घर अपनी तरफ बुलाता है, मगर यहाँ पर बैठ जाना हमेशा के लिये ये बहुत बुरा साबित होता है। मैं समझा है, अब तो मैं कहीं जाने की ही नहीं रही। लेकिन ज्यादा दिन तक ऐसा चलने नहीं दूंगी।"
लख्मी
हम सवालों को किस तरह से सोचते है? क्या वे हमारी दिक्कतों को हल करते हैं?, नई दुनिया मे ले जाते हैं?, आगे का दिखाते हैं?, किसी से मिलवाते हैं?, पीछे का याद दिलाते हैं?, खुद से मिलवाते हैं?, ज्यादातर सवाल - उस असपष्ट दुनिया की ओर इशारा भर है जिसके बाहर खड़े हम उसके अनुमान लगाते हैं। वे हमारी है या हमारी नहीं है - की टाइट उलझनो से बेनज़र होकर। सवाल, पूछे जाते हैं - कहे नहीं, सवाल बताये जाते है- पढ़े नहीं, सवाल गढ़े जाते हैं - दोहराये नहीं। मगर कभी ये समझने की कोशिश मे रहते हैं की सवाल दोबारा जीवन मे लौटते हैं। पर सवाल कभी किसी एक फिक्स जवाब से मरते नहीं।
कुछ सवाल मेरे दिमाग मे रहे हैं - जिन्हे जब बातों मे डालने की कोशिश की तो जीवन की वे झलकियां सामने खुल कर आई जिन्हे मैं कभी अपने खुद के रिश्ते, एकांत, समुह मे नहीं सोच पा सकता था। उसके लिये मुझे इनसे बाहर जाना होता।
ये बातचीते हैं - उन सवालो पर जो मेरे दिमाग मे रूक गये। जिन्हे अपने आसपास में, घूमते शहर मे, सोते शहर मे, खोते शहर मे, इसे पाया।
सवाल , "हमें कब लगता है कि हमें अपने जीने के तरीके पर सोचना होगा?”
सोनम जी, “मैं अपनी जिन्दगी में काफी पीछे रह गई हूँ। सबसे अलग हो गई हूँ। मैनें अपनी पूरी जिन्दगी ऐसे आदमी के साथ बिता दी जिसने मुझे कभी ये सोचने ही नहीं दिया की मैं क्या हूँ। बस, घर और उसको संभालने मे लगी रही। मैं भी चाहती हूँ की बाहर निकलूं, कुछ करूँ, जो मौका मुझे आज मिला है वे पहले कभी नहीं मिला। मैं रोई, अकेली रही, सब कुछ छुपाया, किसी को कभी कुछ अंदेशा नहीं होने दिया कि मैं क्या झेल रही हूँ। लेकिन, अब ऐसा नहीं चाहती। मैं अपने हाथों मे लेना चाहती हूँ सब कुछ, ताकी मेरे बच्चे मेरे आने वाले टाइम को लेकर डरे ना। अब सोचने को मिला है। मुझे सबने खींचने की कोशिश की, मगर मैं वावली सी बनी रही। जैसे मुझे कुछ समझ ही नहीं है दुनियादारी की। बस, उसके और परिवार-परिवार करते हुए पूरा जीवन ही चला गया। मैं अब अगर किसी को बताऊँगी तो क्या। मैं याद ही नहीं करना चाहती वो 20 साल जिन्दगी के जो मैनें परिवार नाम से और मेरे हाथ पर जिसका नाम लिखा है उसके हाथ के नीचे बिताये है। मुझमे अब जैसे ताकत आ गई है। मैं बस, 2 साल ही तो दूर रही हूँ अपने उस नर्क से और इसी टाइम ने मुझमे जान डालदी। मैं बहुत खुश हूँ।"
शामू चाचा, “मुझे रोटी की चिंता नहीं है और न ही तेरा चाचा परिवार की चाहत रखता। मैं तो मस्तमौला हूँ। जब भजन था तब तक तो कभी खुद को सोचा ही नहीं था। उसके साथ रहना और चलना मुझे लगता था की तुझे और चाहिये क्या। पर अब वो नहीं है तो लगता है कि जो वो मुझे अकेला छोड़ गया है तो मैं अकेला होकर क्या करूगां। दारू पीकर जीवन खत्म नहीं करना चाहता मैं। मैं भी चाहता हूँ कि कोई शामू मुझे भी मिले और मेरे साथ रहे। उसके जाते ही सब कुछ मिटने लगा है अब मैं सोचता हूं की यार, क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, परिवार मे गया तो मुझे बाप बना लेगें और मैं बाप नहीं बनना चाहता। बाप बनना होता तो शादी कर लेता। जिन्दगी बीत गई अब नहीं होता ये सब। पर कुछ करूंगा, अकेला नहीं रहूँगा। ज्यादा कुछ दिल में आया तो पहुँच जाऊंगा भजन के पास। उसकी छत पर।"
राजू भाई, “एक ही तरह से जीते - जीते जब लगता है ना की कुछ बन नहीं रहा तो तरीका बदलना होता है। वैसे तो घर ऐसी चीज़ है कि ज्यादा समय तो आप एक ही तरीके से जी नहीं सकते। वो अपने आप बदलवा देता है। शादी हुई नहीं कि आपको सोचना होता है कि अब कैसे जिया जाये। क्योंकि आपका जीने का तरीका आपके अकेले का नहीं है, उसके साथ अगर कोई और भी जुड़ा है तो तरीके को बदलना ही पड़ता है। नहीं तो रहो जीवन मे उसी बासी रोटी की तरह जो ना फेंकी जाती और न खाई जाती।"
बाला जी, “जब बहुत हो जाये ना, तो बदलना पड़ता ही है। वैसे तो कोई बदलना चाहता नहीं है, मगर जब लगे की पानी सिर से ऊपर बहने लगा है तो बदलना पड़ता है। नही तो लोग तुम्हे पागल समझकर तुम पर चड़ जाते हैं और तुम चुपचाप रहते हुये सब कुछ करते हो। अगर भइया चुपचाप ही जीना है तो मत बदलों।
मैं घर से ज्यादा काम पर अच्छी थी, काम पर जाते हुए लगता था की कब तक कमाऊंगी और सबको खिलाऊंगी। तो घर पर बैठ गई। लेकिन घर तो चूस लेता है। बाहर जाती थी तो इतने लोग जानते थे मुझे की क्या बताऊं। 427 बस वाले, दूर से देखते ही बस रोक लिया करते थे की अंटी आ गई। मगर अब तो मुझे खुद नहीं पता की 427 बस चलती भी है या नहीं। स्टाफकैलाश में दुकान वाले, किस्त पर मेरे नाम से समान दे दिया करते थे। अब तो पता नहीं है की और कोन-कोनसे नये समान आ गये है। घर अपनी तरफ बुलाता है, मगर यहाँ पर बैठ जाना हमेशा के लिये ये बहुत बुरा साबित होता है। मैं समझा है, अब तो मैं कहीं जाने की ही नहीं रही। लेकिन ज्यादा दिन तक ऐसा चलने नहीं दूंगी।"
लख्मी
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