Friday, June 29, 2012

मेरे ही जैसा


एक शाम घुमने को मैं निकला....
एक शख्स मिला - जिसे मैं नहीं जनता था मगर उसके मिलने को जानता था.

राकेश

Monday, June 25, 2012

दैनिक जीवन का मॉडल

शहर क्या हैं?  जिसमें शामिल होते ही चटख भरी दिनचर्या से हमारी मुलाकात हो जाती है। जो चुम्बक की तरह  हमें अपनी तरफ खीचती है। जहां पर उसकी हर सुबह उन्नत वर्तमान के नये परीवेश में ले जाने लायक होती है तो उसी मे से कई चीजें आँचल बनकर आँखो के सामने होती हैं। "शहर" इसे जैसे किसी खबर की तरह, हर एक नजर को दे दिया हो। किसी न किसी श्रोता की प्रतीक्षा में धुंदली रेखाएं माहौल में विराजमान रहती है। मन की चैष्टाये धूप की तरह अस्तिव में बिखर जाती है।

फिर "भीड़" क्या है? शहर में घूम रहे शहरियों का कारवां जो कहीं ठहरता ही इसलिये है की भीड़ बने। ये अपनी ही परछाई से टकराते, दर्द जानते जैसे उसका अहसास खोकर वो भीड़ को बुन रहे हो। लेकिन अगर कोई डाकिया बिना पते के ही संदेश दे जाता तो?

सड़के सुनसान है - कई दिवारों पर सजे दिवान हैं। कहीं लोट कर आने के लिये अपने भी क़द्रान हैं। कोई धूमिल सा अधूरापन लिये रास्तों पर चलता है। किसी की जिन्दगीं में बसा किसी का स्वरूप भीतर से बाहर का निकास देता है। कभी पूर्ण क्षमताओ से टकराती जिंदगानी नज़र से नज़र मिला कर बातें करती है। तो कभी खुद को रोक कर  दृश्यो को सुनने का मन करता है। यहाँ कुछ गणितिय उदहारणों की आवश्यकता है। जैसे सब कुछ इक्वल ( = ) नहीं है।
अंनत समिकरणों में उलझी जीवन की गुत्थियां हैं। जिन्हे सुलझाने का भी समय नहीं मिलता। ठीक उस तरह जिस तरह शरीर भी सवालों और रोजमर्रा के प्रभावो में शाखाओ की भांति खुद में व्यस्त रहता है। इस व्यस्त्ता को प्रतिदिन अनूभव किये और यथार्थ के अहसास से भी समझने -सोचने की कोशिश की। तो आम और खास के बीच बने सभी बने फासले को देखा जिसमें स्वंय को चिराग लेकर खोजने की आवश्यकता है।  

उजाला क्षण भर है और अंधेरा काली रात का हमख्याल। रात जिसके तले स्वप्न पनपते हैं। परछाईयां पड़ाव डालती हैं। फिर सवेरा हो जाता हैं। एक नई उम्मीद में। किसी आक्रमकता में, फिर किसी तारे के जमगाने कोशिश होगी।

शहर की रफ्तार में अनेकों जीवन शैलियां मचलने लगती हैं। हम जिन्दगी बने शख्स मिलते हैं फिर अंजानता में छूकर निकल जाते हैं। हम क्या चाहते हैं? कुछ मांगते ही क्यों हैं? 

रोजाना भोर होते ही रात इस उजाले के सामने आस-पास ही कहीं अदृश्य हो जाती है। या फिर उसे आसमान निगल जाता है? शहर कहता है जरा धीरे बोलो "दिवारों के भी कान होते है" मगर शहर के इस ज़ुमले के तात्पर्य को चुपचाप होकर सुनने वाली मूद्रा बदल देती है। शहर की सांस आज जोर-जोर से चल रही हो मानो तो। कौन इसका हमदर्द है और कौन इसका सुख-मुख है? शहर में जिस तरह से रोमांचकारी जीवन बसा है, जो शहर की सडकों का बदलाव, बजंर जगहों पर बने सोपिंग मॉल,  जो बजंर जमीन की से ही फुटे है मानो तो जरा।

समय आधार है। जिसकी वजह से चट्टानों का सिना भी चेतना की अवस्था में जाता है। हामरे इस रोजमर्रा पर कोई तो छाप है, जो निशान छोड़ जाती है। जिसका वर्णन पत्थर है और अहसास मोम है। कहीं सब कुछ समझ आ जाने वाले नियम रूप है। तो कहीं मुश्किलें हैं तो कहीं हैरानी से लबालब भावनात्‍मक पहलू के बयान हैं। चाहें वो विराम चिन्ह हो या सार्वजनिक निर्देशो से मुखातिव होकर भटक जाने का विचार।

जगह में अदृश्य चीजों की गंद (महक)  जैसे किसी तस्वीर को सामने से गुज़र जाने का पता चलता है। कुछ लय है कुछ लय के बाहर और कुछ आकार भी हैं। उसके बाहर भी।  सब का आकार सबके पास भी है और सब अपने आकार को खोज भी रहे हैं। लगता है की ये अंनतता ही हमारी आँखों के सामने स्थिरता बना जाती है। जिसे दूर तक देख पाना शायद काबू में नहीं मगर अंदाजा लगा सकते हैं।

शब्दों से बने अनेको बयानों की वर्णमाला अदखुली काल्पनाओ का वर्णन क्या है? हम शहर को अपने शरीर का अंग मान ले तो शहर और हमारे बीच रिश्ता बनता है? कम से कम ये क्षमताओं का टिकाट तो मिल जाता है। जो चीजों से रूबरू होने के बाद उनकी उत्तेजनाओ को शरीर में लेना और छोड़ना होता है। ये चक्र चलता रहता है। रोजाना के चिन्हों इलैक्ट्रोनिक सिंगनलो की कसमकस से निकलने के बाद क्या नज़र आता है? तब शौर, शौर नहीं होता वो एक आवाज, गूंज बन जाता है।  जिसेको सुनने में किसी छवि का हस्ताक्षर शामिल है। जीवन के हलातों से उपजी विपरीत परीस्थितियां को बॉडी का स्वभाविक रवईया गायब कर देता है। क्योंकि हमारी कल्पनाओं का मॉडल होता है और वास्तव में होता है। उसके बड़ने की प्रक्रिया मौजूद हलात से टकराती रहती है।

फिर शहर क्या है?

राकेश

रात का चोर



लख्मी