Friday, July 27, 2012

दीवारों के कान रोशनदान

हवा जैसे इस कमरे में बिना किसी बंदीश के सफर करती हो और धूप कोनों में से आकर चूम जाती हो। मटको को एक के ऊपर एक रखकर बना एक कमरा। तीन तरफ मटको की दीवारों के दूरी से बने अनेकों रोशनदान।जिससे बाहर की हर चीज़ शामिल हुई हो। तो दूसरी तरफ कमरे के अन्दर का हर माहौल और समय बाहर की दरों - दीवारों को खुद में मिला ले रहा हो। ऐसे रोशनदान जो दीवारों को दीवारें बनने का ओहदा भी नहीं दे पाये। और जो रोशनदान होने के बाद भी रोशनदान नहीं बन पाये। सभी कुछ एक – दूसरे की तस्वीरों में निगाह जमाने जैसा कोई खास पहलू के समान हो गया हो।

दीवारें, मजबूती और महफूजियत का दम भरने से दूर होती जाती। और अगर कुछ बाँटा भी जाये किन्ही से तो दूसरी तरफ या इस तरफ के बीच का गेप खत्म होने आसरा बना देती। कमरे में जैसे दीवारें कम और खिड़कियाँ ज्यादा हो। हर छेद एक झरोखा जो यहाँ के हर हिस्से को एक – दूसरे से जोड़कर एक ही बना देता है। इसका कोई "एक तरफ" नहीं है। कभी कोई अगर आये तो दरवाज़े की ओर जाने से पहले ही वे किसी भी दीवार से कुछ मांग ले, तो कभी वहीं से कुछ पकड़ा दे। अदला-बदली के बीच में खींची लाइनें शख्त नहीं रह हो जैसे। दीवार छूकर ही कुछ भी पकड़ लेने का खेल हो जैसे।

जिसमें मज़ा हो, जब चाहे उन्ही मटको की दूरी से बने छेदों से किसी को आवाज़ लगाकर बुलाने का। अन्दर खड़े हो और एक बाहर बनाने का। रात हो या दिन ये कमरा अनेकों लोगों का बसेरा बन जाये तो कभी कोई भी इस जगह से कोई कोना चुराकर वहीं पर रूक जाये। जो भी आये, अपनी जगह चुन वहीं पर जम जाये।

कमरे की एक रात -
नींद का ख़ुमार जोरों पर छाया है। हर कोई उसके संमदर में डुबकियाँ मारना चाहता है। रात बहुत हो गई है। कमरे में नज़र का जाना वाजिव है। लटकते तार और उसमें लगा एक 200 वाट का बल्ब। जिसकी रोशनी बाहर निकल रही है। खम्बों में भले ही लाइट जले या न जले लेकिन यहाँ इस कमरे में लाइट का जलना जरूरी है। सड़क पर गुप अंधेरा है। बल्ब के जलते ही कमरे के सारे छेदों में से रोशनी इस कदर बाहर आती जैसे वो सारी रोशनी की तेज़ तारों से ही वो कमरा जमीन से जुड़ा हुआ है नहीं तो अब तक न जाने कहाँ हवा में उड़ रहा होता। वो तारें कमरे से निकलती और जमीन की तरफ में बड़ती। ऐसा एक तरफ ही नहीं बल्की कमरे के चारों तरफ हो रहा है। कमरा किसी मोड़ के बीच में बना है। आसपास में रखे मिट्टी के समानों, बर्तनो और मिट्टी के ढेहरों पर पड़कर उनमें जैसे कई सोते हुए मोतियों को भी जगा रहा हो। रोशनी अपनी तरफ में इशारा कर है आगे की ओर बड़ने का। अपने को देखने का। वो रोशनी की तारें कमरे को जमीन से कुछ इस कदर बांधे है जैसे वो कोई हल्के जारजट के कपड़े का बना हो जिसे उड़ने से रोका हुआ है। नहीं तो वो आकाशगंगा में तैर रहा होता। बाकि की रोशनी के एक – एक तार पर कोई पक्षी बैठा। एक भारी इंट की तरह।
कई पक्षी उड़ान भर रहे हैं उस कमरे की छत तक पहुँचने को, अपना घौंसला बनाने को पर छत हाथ नहीं आ रही है। छत को तलाशने के लिये सभी इधर से उधर उड़ रहे हैं। एक दूसरे से टकरा रहे हैं।

कमरे का हर कोना जिसमें अनेकों छोटे बैठने के ठिकाने बने जिनमें घूमतू आवारगियों का अहसास है। किसके लिये हैं इसका कोई खास नेमप्लेट नहीं हो जैसे। कमरे का दरवाजा दिवारों के बने छेदों मे कहीं गुम है। कमरा बंद है या खुला इसके बीच है। अन्दर वाला बाहर में खड़ा है और बाहर वाला अंदर को जी सकता है। जिसने सोने का कोना और बैठने के ठिकाने को मिला दिया है।

कमरा बिना किसी सख्त विभाजन के बना है। बसेरों और राहगीरों की तलाश से बनी रौनक से सजता हुआ। कभी सराये तो कभी रेन बसेरा, कभी बसेरा। मगर इतना तो तय हो की हर कोई एक – दूसरे की महक से यहाँ पर खिंचा चला आता और रूक भी जाता। कमरे का अहसास लोगों में जैसे किसी रोग की तरह से फैले। जहाँ हर कोई अपनी चाहतों का बिछोना लिए चलता - गुज़रता हो। कुछ पल के लिए ठहरता और दिन के उजाले में कहीं खो जाता। फिर जब लौटता तो उसका चेहरा कहीं गायब सा होता लेकिन उसके शरीर का अहसास इतना गहरा होता की वो अपने साथ कई और लोगों के होने का आभाष साथ में लेकर आता।

लख्मी

पंखिले अहसास

लख्मी

अमूल्य विवरण

राकेश

Monday, July 16, 2012

काग़जात बक्से मे रखकर जमीन को खोदा जाता है



मैं मानता हूँ, “कितनी ही जिद् और टेंशनें हैं - किसी जगह में आने की, जाने की, कुछ बनाने की और साथ ही साथ टूटने की। मगर असल में ये सब की सब मेरे अन्दर हैं वो शहर में और न ही मेरे आसपास नज़र आती। मैं ही अपने अन्दर खुद का टूटना और बिखरना लिये चलता रहा और बाहर को रूखा - रूखा मानकर भी। क्या मैं अपने अन्दर ही दबकर रह गया हूँ? क्या वहीं से सब कुछ उभरता रहा?”

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कौन है जो पूरी जगह की तरफ से बोल सकता है?
कौन है जो पूरी जगह को बता सकता है?
कौन है जो पूरी जगह का चेहरा है?
कौन है?
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पहला शख़्स– क्या वो है जो अपने साथ 100 लोगों को लिये चलता है?
दूसरा शख़्स - क्या वो है जिसने लोगों के सरकारी दस्तावेज़ बनाये है?
फिर से पहला शख़्स - शायद वो है जिसने यहाँ पर लोगों को राशन दिलवाया है!
तीसरा शख़्स – यहाँ के प्रधान है - जो रात में कोई न कोई बुरी ख़बर सुनाते हैं।
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"खुदी हुई जगह को रोज़ - रोज़ देखकर मैं हैरान था। इसको दोहराने के लिये शब्द आ कहाँ से जाते थे सबके पास। जबकी मैं शब्दों और बोलो से कमजोर पड़ रहा था। एक शाम मेरे साथी ने कहा, “बाहर जाओ और जगहों, लोगों को देखकर आओ उसके बाद में खुद से हर रोज़ एक सवाल पूछों।"

वो कौन – कौन से लोग होते हैं जो शहर की कल्पना और गढ़ना मे नहीं आते?
लेकिन किसी जगह के टूटने के वक़्त उससे जुड़ जाते हैं।
 
20 घरों की गली मे से दस घर टूटे पड़े थे।
  •     वहाँ से गुज़रने का मतलब क्या है?
जिसकी गली में कभी गाड़ी नहीं घुसती थी
वहाँ पर घूसने वाली पहली गाड़ी थी बुलडोज़र।
  • ये नज़ारा मैं कैसे देखूँ?
एक आदमी अपने टूटते हुए घर से दस कदम की दूरी पर बैठा
अपने घर को देख रहा है।
  • उसके सामने दस मिनट खड़े रहने का मतलब क्या है?
4 लड़कियाँ अपने रंगीन घर के तोड़े जाने पर ही रो पड़ी
जिससे पूरी गली आँसूओ से तर हो गई। वहाँ पर खड़ी
पुलिसकर्मी भी।
  • मैं वहाँ से भाग आया - क्यों?
जब उस डायरी पर लिखे सवालों को मैं देखता तो बनने और टूटने के बीच में खड़ा मैं एकमात्र शख़्स था जो खुद से लड़ रहा था। उस डायरी ने एक अपार दुनिया मेरे सामने खोल दी थी।

लख्मी

Thursday, July 5, 2012

सामने जो दिख रहा है

किसको देखना चाहता है दिल मेरा
कुछ पाना नहीं - कुछ खोना चाहता है दिल मेरा
खुद को देखने के लिये जब भी आया ये आइने के सामने
खुद को देखकर बस, चौंका है दिल मेरा।

रूप बदलता रहा हर वक़्त
कोई कहानी कहता रहा हर वक़्त
हर सुनने वाला खुद के बसाकर
बेज़ुबानी मे भी गुनगुनाता रहा दिल मेरा


राकेश