Monday, December 17, 2012

तबादले अब होने लगे हैं

ढेरों तबादले होने लगे। हर रोज़ कोई नया ही चेहरा देखने को मिलता। कभी कोई नाम पूछने चला ‌आता तो कभी कोई पते के बारे में मालुमात करने। नज़रे इनती शक्की हो चली थी की हर कोई एक दूसरे को किसी न किसी केड़ी नज़र से देखने के हमेशा तैयार था। हर रोज जैसे डायरियाँ भरी जा रही थी। उनकी डायरी मे ज्यादा कुछ नहीं होता था जो भी वो किसी के लिये इतना कठोर चिन्ह होता कि उसको हर रात उठा लिया जाता। डायरी नामों और पहचानो से भरी लदी थी। पते तो किसी के मिलना आसान नहीं था लेकिन नाम के साथ एक पहचान लिखदी जाती। पहचान जिसको आगे चलकर क्या तमगा मिलेगा ये किसी को भी नहीं मालुम होता था। ये पहचान कोई चिन्ह होता तो कोई जल्दी मे पुकारा जाने वाला एक और नाम। उनकी डायरियों मे क्या लिखा जा रहा है ये भी ठीक से किसी को पता नहीं था। हाँ कलम चलने का अहसास हर किसी को होता और उस डायरी मे अपना नाम लिख जाने का डर भी। जहाँ - तहाँ भी ऐसा कुछ नजर आता तो वहाँ से फौरन भाग जाने का रिवाज़ यहाँ पर गली गली मे चल चुका था।


जो भी यहाँ पर पहली बार अपनी ड्यूटी सम्भालने आता उसका काम होता, जाकर सड़क - सड़क और गली के कोने - कोने मे नौजवानों के नाम लिखना, साथ ही साथ उनकी उम्र भी। शुरू - शुरू मे तो किसी को पता नहीं था कि नाम लिखवाना क्या बुरी बात है। जिससे भी नाम पुछा जाता वो बड़े ताव से अपना नाम लिखवा देता। लेकिन बाद मे इसका अन्दाजा हो गया था। नाम लिखवाना यहाँ इस वक़्त के लिये किसी कहर से कम नहीं था। जैसे ही किसी नये चेहरे को अपने मोहल्ले मे देखते तो वहीं कट लेते।

इस वक़्त मे जो होता वो सब को पता होता लेकिन इसके बाद क्या होगा वो किसी को पता नहीं था। नाम, उम्र, काम और एक सवाल, सवाल मे भरी होती थी खटास और अक्कड़ जो किसी को बर्दास्त नहीं थी। लेकिन कर भी  तो कुछ नहीं कर सकते थे। बस, उस वक़्त बर्दास्त करने के प्याले गले से उतारने पड़ते।

जगह में जैसे पैसा लुट रहा था। रात में किसी को भी पकड़ लो बस, उसके पीछे उसके घरवाले तो आयेगें ही वही लायेगें सब कुछ, रात का डर लोगों में कहीं न कहीं बहुत गहरा छुपा होता। वो ये सब जानते थे। उस डायरी में जिस किसी को भी नाम लिखने की ड्यूटी की जाती। वो उसमे कई राते भी कैद कर लिया करता था। उसमे कई ऐसी रातें कैद थी या कैद होने की लाइन में खड़ी हो जाती थी। 

ये समय जहाँ पर कोने - कोने मे खड़े और बैठने के ठिकाने बना रहा था वहीं दूसरी ओर उन्ही ठिकानों मे समय के साथ उठने - बैठने के प्रोग्राम भी तय किये जा रहे थे। रात के शौर से कोई अन्जाना नहीं था। सबको उसके पीछे की तस्वीरो का अन्दाजा था। वो जानता था कि किस आवाज के साथ मे किस तरह की तस्वीर जुडी है। कौन कहाँ से भाग रहा होगा, कौन वहाँ पर रहता है, कौन कैसे फसा होगा। इसका भरपूर अहसास यहाँ सबको रहता। हर रात मे किसी न किसी तरह के नये शोर की उम्मीद यहाँ पर सबको रहती थी। शायद आज कल से अलग कुछ सुनाई दे। लेकिन खुद को अपनी आवाज़ नहीं सुनवाना चाहता था या फिर बनाना चाहता था।

रोज रात मे गोलू काम पर से लौटता था, उसे हर रात अपना रास्ता बदलना पड़ता। कभी वो जगंल के रास्ते से घर की तरफ मे आना होता तो कभी सीधे रास्ते से। ये कोई उसका खेल नहीं था इसमे दोनों रास्तो मे बसी गहरी छाप समाई थी। कभी जंगल कहर बरसाता तो कभी सीधे रास्ते पर कोई न कोई धमाल मचा होता। जिसका उसे पूरा पता था लेकिन उसका आना और जाना कभी बन्द नहीं हुआ था। वो बिना रुके बस, चला आता। कभी पाँव पूरी तरह से दुखते थे तो कभी आराम भरते। मगर उसे इन्ही  तीन सालों मे इस दुखने का अहसास गायब करना पड़ा था या ये कह सकते हैं की उसे उस चलने की आदत सी हो गई थी।

दरवाजा पीटने की बहुत जोर दार आवाज आई, लेकिन कोई सुनवाई नहीं। उसने दोबारा से दरवाजे को उसी तरह से पीटा, इस बार भी आवाज पर कोई सुनवाई नहीं हुई। गोलू ने इस बार दरवाजे पर हाथ मारने के अलावा अपने हाथ मे लगे भौपूं को बहुत से फूँक मारकर बजाया। उसके एक ही फूँक पर दरवाजे अन्दर से आवाज़ आई, “आ रही हूँ, क्यों गीत सुना रहे हो?”

वो तो अच्छा था की आस पड़ोस वालो की नींद अन्दर सोती अम्मा की नींद से ज्यादा गहरी थी। जिन्हे उनके भौंपू का पता भी नहीं चला। वो बाहर आई और बोली , “मैं जाग रही थी लेकिन उठने मे वक़्त लग गया।"

गोलू को भले ही  इस काम मे तीन साल हो गये हो लेकिन उसकी फूँक मे अभी वो बात नहीं आ पाई थी की वो किसी  ताल को सिनेमा हॉल की आखिरी कुर्सी तक पहुँचा सके। जिसका उसे बेहद मलाल रहता। इसी को वो कहीं पर बोल दिया करता। उसे आवाज़ मे वो पैनापन और भारी अहसास लाना था। जिसके बारे के बारे मे उसकी अम्मा भी बखूबी जानती थी।

गोलू ने उस भारी से भौंपू को अपने काँधो से उतारा और तैयार होने लगा खाने के लिये। आज कुछ खमोशी मे सोचने के लिये काफी कुछ था उसके पास। पूरा घर शांत लग रहा था, शायद आज गली के बाहर से भी कुछ शोर नहीं आ रहा था। तभी इतनी गहरी खामोशी सी लग रही थी। कुछ देर तक वो अपने भौंपू को देखता रहा। सोचने लगा की अगर आज कोई शोर नहीं हुआ तो वो इसके साथ मे कैसे खेल पायेगा। दरवाजे के बाहर वो थोड़ी देर के लिये खड़ा हो गया। खाना जमीन पर लग चुका था। अपने भौंपू को एक कोने मे खड़ा करके खाने के लिये बैठ गया।

कानों मे थोड़ा सा भी अगर शोर सुनाई देता तो उसका चेहरा फोरन दरवाजे की तरफ मे मुड जाता और आँखें मटकती रहती। खाने के हाथ रुक जाते। मगर शोर के साथ उसका रिश्ता कम नहीं होता।

"आज कहाँ गया था?" उसकी अम्मा ने पूछा।
"ज्यादा दूर नहीं गया था, पास मे ही जाना हुआ। जिसके घर मे शादी थी वहाँ किसी की मौत हो गई थी तो उसने सारा का सारा इंतजाम बाहर ही कर रखा था। तो वहीं पर हो गया।" वो टूक मुँह मे घुमाते हुये बोल रहा था।

इसके बाद मे उसकी अम्मा कुछ बोली नहीं, शायद मौत की सुनकर थोड़ा शांत हो गई थी। वो जल्दी से खाना खाकर छत की तरफ मे जाने की सोच रहा था। रात पता नहीं कब खत्म हो जाये इसका डर भी तो उसके दिमाग मे था और आज तो बिना किसी आवाज़ के उसको कोई डांट- फटकार न दे उसका भी खौफ था। आज तो आवाज मे धीमापन ही रखना होगा। क्या पता आज कोई जाग रहा हो, क्या पता आज किसी को नींद न आई हो। इसलिये छत पर जाने के बाद मे थोड़ा इंतजार भी तो करना होगा। वो खाते खाते ये सब सोच रहा था। प्लेट मे रोटी और सब्जी खत्म हो चुकी थी। वो आखिरी टूक को प्लेट मे मलकर उसमे प्लेट मे पड़ी सब्जी के तेल को रोटी के टूक पर चिपका रहा था। यहाँ पर आखिरी टूक मुँह मे गया नहीं की उसका पूरा ध्यान उसके भौंपू पर चला गया।

उलटे मुँह वो पूरे दिन की  थकावट से भरा खड़ा, थोड़ी ही देर मे वो कहीं जाने के लिये भी जैसे राह देख रहा था। गोलू हमेशा देर रात होने की राह तकता रहता। उसकी छत चाहें भले ही छोटी हो लेकिन वो गली के एक दम कोने पर थी। जहाँ से उसके ऊपर पड़ोसियों का साया नहीं था। ऐसा नहीं  था की पडोसियों की रिश्तेदारियों मे उसको जाना आना नहीं पड़ता था, वो तो था ही लेकिन जब वो अपने मे होता था तो बस, कहीं सोचने और पहुँचने की जल्दी नहीं होती थी उसे।

प्लेट खाली और साफ हो गई, उसके हाथ लेकिन उसकी किनारियों पर खेल रहे थे - जैसे कुछ नई लकीरें खींच रहे हो। पीछे से आवाज़ आई, “अब क्या पूरी प्लेट ही खा जायेगा?”

गोलू एक और उंगली मुँह मे दबाता हुआ उनकी तरफ देखता रहा। मगर कुछ कहा नहीं। बहुत सी शादियों मे जाना आना होता है लेकिन कभी - हर बार दरवाजे से ही वापस लौट जाने का काम होता है। न जाने कितनो की शादी मे जाते हैं, दुनिया को नचाते हैं, दुनिया फरमाइशे करती है और नाचती भी है। सबको दरवाजे तक जैसे ही पहुँचाते हैं कि तभी कोई हाथ पैसे बड़ा देता है और दिवाली के आखिरी बम की तरह फटकर वापस आना हो जाता है।

हर रात की  कहानी शुरू कुछ यूहीं होती है। दिवाली के आखिरी बम की  तरह शोर करती हुई आती है और बाद मे एक लम्बा सन्नाटा सामने लाकर डाल जाती। गोलू पिछले कुछ सालों मे इस शोर के बाद का सन्नाटा बना हुआ है। जिसमे उसे इतना मज़ा आता है की वो फूला नहीं समाता।वो खुश है कई सारी आवाज़ों के बीच मे अपनी आवाज़ को खोता महसूस करने मे। जहाँ पर लोग आवाज़ का गुम होना देखते हैं वहीं पर गोलू खुद की आवाज़ निकालने के लिये उसी शौर का इन्तजार करता है।

रात काफी हो चुकी है, सारे आलम एकदम गायब सा है। उसी बीच मे गोलू अपनी छत पर अपने उस बाजे के साथ मे छत की एक लम्बी सी दीवार की ओटक मे बैठने के लिये तैयार है। आज का आलम बेहद शांत है, जैसे कुछ भी बनने और टूटने की आवाज़ नहीं है, नहीं तो रात के नो बजे नहीं की किसी न किसी के एक दूसरे से लड़ने और भिड़ने की आवाज़ें आनी शुरू हो जाती साथ ही मे पुलीस के सायरन की आवा‌ज़ तो जैसे हर आवाज़ को पिरोने वाले धागे का काम करती।

पिछले कितने समय से गोलू एक ही गाना बजाने की कोशिश कर रहा है लेकिन वो सांस पर पूरी तरह बैठ नहीं रहा। उसके पिताजी कहते हैं कि तुझे अभी बजाना आया भी नहीं है और तुझे शादियों मे बैण्ड बजाने का काम भी मिल गया, ये पता नहीं कैसे हुआ। हम तो सालों के रियाज़ के बाद मे किसी के यहाँ पर रुके थे।

चाहें तो गोलू इस बात का रोज़ाना जवाब दे सकता है लेकिन वो इसपर बोलना वाज़िब नहीं समझता। वो बस, छत पर चड़ जाता और बाजे मे पानी मारकर उसे थोड़ा खंगाल लेता। तराई हो जाने के बाद मे आवाज़ की संजिदगी बेहद मासूम हो जाती। वो इन्तजार कर रहा था कुछ और समय बीत जाने का, छत के चारों तरफ कभी सामने तो कभी नीचे की तरफ देखने लगा। सड़क पूरी खाली थी। जैसे ही उसे कुछ अंधेरे मे परछाइयाँ नज़र आती तो वो अपना बाजा उठाकर अपने मुँह से लगा लेता लेकिन जैसे ही वो परछाइयाँ गायब हो जाती तो बाजा बिना घुन के ही नीचे उतर आता और सांस उसके गले मे ही अटक कर रह जाती। वो दोबारा से उसी तरह मे देखने लगता लेकिन जब तो कुछ नज़र नहीं आता वो कुछ करता नहीं। छत के चारों और भी कुछ नज़र नहीं आ रहा था। उसके और बाजे के बीच की दूरी कितने समय की हो गई थी, आज उसके हाथ भी काँप रहे थे कि आखिर मे क्या हो गया है जो कुछ नज़र नहीं आ रहा है। कहीं मेरी आँखें तो कमजोर नहीं हो गई, कुछ सुनाई भी नहीं दे रहा कहीं कान तो नहीं हल्के हो गये हैं। वो अपने मे ही कुछ कुलबुलाने लगा। मगर इससे क्या फायदा होने वाला था। 

सायरन की बहुत जोरो से आवाज़ उठी ऐसा लगा रहा था की कहीं कुछ जबरदस्त हुआ है। गोलू अपना बाजा लेकर तैयार हो गया। यहाँ तक पता नहीं कब वो शोर आये उससे पहले ही वो दीवार पर अपनी पोज़िशन लेकर बैठ गया था । उसका घर गली के नुक्कड़ पर होने के कारण उससे सड़क पर होने वाली कोई भी हरकत नहीं छुपी थी। उसी के साथ वो अपने बाजे की जुगाली करता था। जिससे उसके जोर से बजाने पर भी किसी कोई आपत्ती नहीं होती थी, ऐसा माहौल बन जाता था की शौर हो या संगीत सबको एक ही तरह से सुनकर लोग परेशानियाँ नहीं बनाते थे। सब कुछ घुल जाता था रात के समय मे। कोई कहाँ पर हल्ला मचा रहा है या कोई कहाँ पर कानों के नीचे बाजा बजा रहा है वो सब कुछ कभी नजदीक तो कभी दूर रखकर समझोते मे ले लिया जाता।

हाथों मे कुछ चमक रहा था ये बहुत सारे लोग थे, कौन छोटा है या बड़ा इसका पता नहीं चल रहा था। इतना पता था की सभी एक दूसरे के ऊपर चड़ने के लिये तैयार है। बहुत तेज आवाज़े थे। इतनी आवाजें थी के पता नहीं चल रहा था की कौन किसकी तरफ है बस, मारने - मर जाने की बहुत भंयकर माहौल था। गोलू ने भी उसी बीच अपना बाजा अपने मुँह पर लगाया और जोरदार सांसे उसमे फूँकने लगा। गाने बोल के साथ मे नीचे बज रही लड़ाई किसी बहस और कभी जुगाली की तरह से लग रही थी। पूरे मे हल्ला मच गया था की गली के बाहर लड़ाई हो रही है, लेकिन किसी को उस आवाज़ के पीछे बजते उस बाजे की आवाज़ नहीं आ रही थी।

इसका गोलू को कुछ लेना - देना नहीं था और न ही उन लड़ने वाले लड़को का। हर शोर उसी माहौल तक बना रहता जिससे वो बन रहा था और अगर किसी मे मिल जाता तो वो सबके लिये बन जाता। ये सारा उस सायरन की आवाज़ से पहले का खेल था, जिसमे गोलू बस, मौका देखता था अपने अन्दर की सांसों से बनी आवाज़ को किसी और आवाज़ के सहारे या अन्दर अपनी आवाज़ को बनाने का। ये खेल वो रोज़ खेल रहा होता। जहाँ पर लड़ाइयाँ यहाँ के माहौल और रहन – सहन को दर्शा रही थी वही पर गोलू किसी और माहौल की नींव उसी के अन्दर बना रहा था। ये दोनों के बीच की कुछ बहस थी, जिद्दी बहस।

कुछ ही देर मे वो शौर कम होने लगा, और गोलू खुद की सांसो को आराम देने लगा। सायरन की आवाज़ चाहे आये या ना मगर शोर के तेज और कम होने का समय कुछ ही क्षणों मे होने लगता। बहुत धीमी सायरन की आवाज़ आने लगी। लेकिन उस बाजे की आवा‌ज़ कम नहीं हो रही थी। गोलू आज अपने से बाहर हो चला था, शायद गाने की लय पकड़ ली थी, बहुत दिनों से गाने तक पहुँता और वापस की तरफ उतर आता लेकिन आज तो जैसे जुगाली करने का मजा आ गया था।

उसने बहुत देर के बाद मे जब नीचे देखा तो सब कुछ शांत हो चुका था, गोलू उस बाजे को लेकर नीचे उतरा और इधर – उधर देखते हुए वो बाजे को वापस उसी ऑधें मुँह दरवाजे से टिका जमीन पर लेट गया। कुछ देर लेटने के बाद मे वही शोर घर के बाहर दोबारा से सुनाई दिया। मन मे बहुत कर रहा था की फिर से बाजे को उठाकर जाऊ छत पर लेकिन शोर को अब सुनने मे ही उसका मन लग गया था। फिर से वही सायरन की आवाज़ और शौर ख़त्म।

लख्मी

1 comment:

Madan Mohan Saxena said...

बहुत अद्भुत अहसास...सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत ही सुन्दर रचना.बहुत बधाई आपको .