Friday, December 21, 2012

उसे कल रात मालुम हुआ की वो सड़क पर है





इंतजार करना

किसी जगह के इतना करीब आ जाना कि जिससे बाहर निकलना खुद के वश से भी बाहर हो जाये। उस अजनबी स्थान के जैसा जो अपने साथ कई छवियों की गुंजाइशें लिये चलते हैं। जैसे एक खुली तस्वीर हो और उसमें समय की छुअन को महसूस करने की आजादी हो। अजबनी कहां मिलते हैं? और जहां मिलते हैं वहां उनके सामने मैं क्या हूँ?

एक रास्ता जो भीड़ से लदालद है, कोई उसमें से अपने लिये कुछ खींच रहा है। वे क्या खींच रहा है वो अस्पष्ट है मगर वो नियमित किसी खींचने मे उसका आभाव समतल नहीं है। किसी विस्तार होती ध्वनि के सामने खड़े हुये खुद को पाने की कोशिश के समान। खुद को विभिन्नता लिये रूपों के बीच में खोने के जैसा या खुद को उस खोने के भीतर संभालने के जैसा। वे निगाह को तलाश रहा है। वे जो उसकी ओर आयेगी। वे जो उसकी निगाह से टकरायेगी। वे जो उसके लिये होगी। मगर इस समय के बहाव में रूपों की तेजी उसे अपनी ओर खींच ले रही है। वे कई निगाहों से टकरा रहा है। वे कुछ झणिक पलों में किसी के लिये उसका बन जाता है और फिर एक ही पल में फिर से वही बन जाता है जिस लिबास में वो आया है। ये नियमित चलता है। रूपों के मेले में किसी ऐसे किरदार की तरह जो कहीं चलते हुये रूक गया है। 

कोशिश की पोटली में छिटक कर गिरा व बचा हुआ समय जो किसी को मिलने के निकला है।




बिखरी हुई चीजों को उठाना

लकीरें खीची हैं, एक दूसरे पर चड़ी हैं, कहीं जा रही हैं, मिट्टी है तो कहीं पर गाढ़ी हो रही है। उसके पीछे कई पेरों की छापें दौड़ में है। बिना किसी आवाज़ व ध्वनि के वे किसी के होने के अहसास को जिन्दा बनाये रखे हैं। सुनाई देती है, कुछ कहती है। मगर वे किसकी है वे अहसास नहीं लगाया जा सकता। मगर उसके पीछे खुद को लपेटे हुये चला जा सकता है।

बेमूरत होती चीजें अपनी मौजूदा छवियो से बिफर गई है। विरोध मे हो गई हैं। कोई बड़ी मूरत नहीं है। बस, आड़ी तेड़ी, धूंधली गाढ़ी लकीरें हैं। जो किसी हूजूम को खुद मे बसाये हुये है।

चीजें खुद ब खुद समेट लेने की चाह में उन लकीरें में बस गई हैं। वे जो छाटने मे नहीं है और ना ही अपने वश मे करने मे हैं। वे उस चुनाव की चौखट पर खड़ी है जहां से चीजें अपने से दूर की नहीं होती। वे कोई धातू नहीं है। वे खुद को व्यक़्त करने की चाह में शक़्ल लेती है। कोई अपनाने मे है मगर इस अंधविश्वास के तहत की ये अपनाना अपना बनाने से बाहर है।

अनगिनत छाप किसी अनछुये अहसास की तरह किसी राह की रहनवाज होती हैं। जो उस न्यौतेगार की तरह है जिसमें बिना किसी रिश्ते के जिया जा सकता है।



कुछ खोना

कोई यहां आने वाला है और सब यहां से जा‌ने वाले है के बीच है अभी यह समय और जगह। ये बीच की धारा वापसी के लिये नहीं बनी। मगर फिर भी कुछ खोना - गायब हो जाने से बेहतर है। नक्शे मे नज़र आती उन तेड़ीमेड़ी राहों की तरह जिनके साथ चला जाये तो कब किस मोड़ पर चले जायेगे का अहसास जिंदा रहता है। वे राहें एक दूसरे को काट रही है या हम उस कटने के भीतर होकर उसे सिर्फ एक राह समझ रहे हैं में दुविधा है मगर फिर भी जीवंत है।

कब कोई पहचाना जाता है? शायद पहचाने जाने से पहले वो खोया हुआ है।

हर कोई कुछ खोता जा रहा है और खुद उस खोये हुये तालशने मे खोया है। दोनों के बीच मे बसी दुनिया उसे अपने मे समेट लेने के लिये है। मगर वो दुनिया जो छिद्रित और छोटे दृश्यों मे दिखती है उसका पूर्ण रूप गायब होकर भी अस्पष्ट है।




रोना (घर के बाहर)

दायरों के भीतर और दायरों के बाहर अपनी आकृतियां हर बार किसी नये रूप मे चली जाती है। इनका जाना कभी हमारे खुद के चुनाव से होता है तो कभी वे अकस्मात आकर चौंका जाती है। चुनाव के कटघरे मे ये आकृतियां अभिनय या लिबास मे खुद को चिंहित कर जाती है और अकस्मात आते रूप खुद को भी अपने ही सामने खड़ा कर देते है जिसमें हम खुद को पहचानने से इंकार करना भी चाहे मगर नहीं कर सकते।

अकस्मात आते रूप हमारे नहीं है, हमारे से है मगर महज़ हमारे लिये नहीं है। वे एक दुनिया खींचने के लिये बनते हैं और दुनिया को बनाने के लिये जीते हैं। मगर इस अकस्मात रूप का स्थान क्या है? विशाल कोना - जो अनेकों रूपो का ठिकाना बना है। इसमें अनेको लोग हैं। जो जहां से देख सकता है वो वहाँ से देख रहा है। अपने निजित्ता को छोड़ वो यहां आया हुआ है। वो भावनात्मक भी हो सकता है। मगर उसे कोई रोकेगा नहीं, कोई बांधेगा नहीं, कोई चुप नहीं करायेगा। इस कोने का आकार नहीं है, सरहद नहीं है।

किसी से अंजान और किन्ही अंजानों में खोना जाना की चाहत मे जीने कोशिश इसे सक्रिये रखती है। 


लख्मी

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