Wednesday, December 19, 2012

एक जगह अदाकारी की

वो रह रोज़ बनठन के निकलता। कभी नाचकर तो कभी गाकर। हर रोज़ के लिबास से उसका कोई मेंचिग नहीं होता। हर दिन जैसे वो कुछ और बनने के लिये उठता और कुछ और बनकर निकलता। वे जो बनता, उसका कोई रूप नहीं था जिसे कामगार या पारिवारिक सदस्य नहीं बनाया जा सकता था। वे हर रोज़ सिनेमाहॉल की दीवार से टेक लगाये खड़ा हो जाता। घंटो वहां खड़ा रहता। वहां से गुजरने वाली हर नजर उसपर पड़ती और एक निगाह भरकर चली जाती। उसे कहां जाना है या वे कहां से आया है ये नहीं जाना जा सकता था। वे जैसे अपना कहां बना चुका था। भीड़ के बीच मे कभी तो कभी भीड़ से कुछ हटकर वे बालों में हाथ फेरते, इतराते, नज़रें घुमाते उस दीवार पर लगे बड़े बेनरों मे खुद को तलाशता। कभी तो उनकी ही तरह बन जाता है तो कभी उनकी तरह नहीं मगर उनसे खुद को बना लेता है।
ये दीवार उसके लिये क्या है? जहां वे खुद के बनने को दिखा पाता है या वे 'जहां' क्या है जहां पर वे खुद को बनने को दिखा पाये? जिसे घर, काम की जगह, खरीदारी की दुनिया से हटकर जी सके। वे जो खुद के खुल जाने के दृश्यों को ट्रांसफरिंग दुनिया मे ले जाये।

एक भीड़ लगी थी। हर कोई उस भीड़ का हिस्सा बनने के लिये उसकी तरफ भाग रहा था। कोई उस भीड़ के बीच में बैठा है। उसके सामने कुछ प्लेन तख्तियां पड़ी है। हर किसी मे वो बना रहा है। आसपास में लोग अपनी ही जगह पर खड़े कुछ आकृतियां बना रहे हैं। कोई बाजूबंद अदाकारी मे हैं, कोई पुकारने मे, कोई आसमान देखने में, कोई रक्षक की अदा में। हर किसी ने जैसे खुद को मोह मे डालने की कोशिश को खुद मे पाल लिया है। भीड़ मे कोई उन्हे कैसे देखे से पहले वे खुद को कैसे देखेगें की जिद् पल गई है। वे सबको उन प्लेन तख्तियों मे उतार रहा है।

वे कौनसा स्पेश होगा जहां ये दुनिया खिल पायेगी? या वे स्पेश ही उड़ा दिया जाये जहां ये दिखती है तो क्या रह जायेगा? वे जगहें जो महज़ बोद्धिक स्पेशों की कल्पना लिये ही नहीं जीती बल्कि वे जगहें जो खुद को प्रस्तुत करने व दुनिया के सामने लाकर खड़ा करने के लिये होती हैं। वे जगहें वे नहीं है जो शहर के नक्शे मे स्थानों के बंटवारें से जानी व बनाई जाती है। वो जगहें वे भी नहीं है जिन्हे किसी से भागने के लिये बनाया जाता है। वो जगहें वे हैं - बुनी जा रही है। हर वक़्त, हर दिन अपने रूप बदल रही है।

कोई आने वाला है। वो बहुत देर से तैयार है। स्टेंड से टेक लगाये वो बार बार खड़ी देखती और फिर से दूर सड़क के पार देखने लगती। हाथों मे लगे पेपर उसके लिये कुछ झंझट बन रहे हैं। इंतजार का गुस्सा उन्ही को मरोड़ने से हल्का हो रहा है। स्टेंड का टूटा हुआ शीशा उसके लिये किसी ब्यूटीपार्लर के शानदार आइने से कम नहीं है। वो टहलती, घूमती उस शीशे मे एक झलक खुद को निहार लेती। कभी पास खड़े लोगों से उसकी निगाह मिल जाती तो कभी उनसे दूर कहीं छिटक जाती। ये पूरा माहौल उसके लिये एक ही चेहरे की शिनाख्त बन गया था। वो जिसे देख रही है वो नहीं है मगर यहां के सारे चेहरों मे एक वही है।

इंतजारिया रास्ते खुद को समय की मजबूत झलकियों से दूर किये चलते हैं। उन सफ़रों में जिनके पार कोई मंजिल की तलाश नहीं है। तलाश उन बिन्दूओं की जिनमें खुद को रिकोंसीटूट करके जिया जाता है। जिनके चेहरे उसके नहीं जो कभी किसी मोड़ पर मिले हैं। उनके भी नहीं जो रोज़ मिलकर दूर हो जाते हैं या दूर हो गये हैं। उन झलकियों की तरह हैं जिनसे इन चेहरों के अक्श बने हैं।

लख्मी

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