Wednesday, February 13, 2013

मेरी किताबें

कुछ दिनों पहले मेरी बीवी ने मुझसे कहा बुकसेल्फ में रखी किताबों को देखकर।

“आपको जो भी एक-दो किताबें इनमे से लेनी हैं तो ले लो। मैं बाकी सब कबाड़ी को बेच रही हूँ, तुम रोज इन किताबों के लिए मुझे नजरंदाज करते हो।"

मैंने कहा, "नहीं ऐसा मत करो। ये किताबें आग है जिससे मुझे रोशनी मिलती। जैसे: सर्दी के मौसम में कोहरे को चीरकर दिखाई देने वाली उड़ते हुए शोले हों। इसमें मुझे कोई क्षितिज दिखाई देता है।"

दो दिन बाद...... मेरी किताबें उस बुकसेल्फ के खाने में नहीं थी। वो सारी किताबें मेरी बीवी ने बेच डाली थी। बिना किसी संकोच के। जब मुझे ये पता चला तो मैं गुस्साया और चिल्लाया। मेरी बीबी तो वहाँ से हट कर चली मगर मैं वहाँ खड़ा ये सोचता रहा की इस खाने में आखिर क्या था? जिसकी वजह सें आज मुझे वो आग नहीं दिख रही।

राकेश

1 comment:

रज़िया "राज़" said...

बहोत मार्मिक रचना। आपने जैसे मेरे मुंह की बात कहदी। मैं भी अपने परिवार से यही कहती रहती हुं कि किताबें मुझे ठंड में गरमी देती हैं। गरमी में ठंड, सूख़े में बहार, सच ही तो है....