Thursday, March 28, 2013

तुम तो अपने ही आदमी हो

दिन तारीख़ तो याद नहीं पर जब मुलाकात हुई तो वो चन्द बातें याद रह गई जो अबतक मेरे वक़्त काटने का इकला जवाब ही रास्ता बन गई।

आर.टी.वी छोटी बस का स्टेंड। जो एच ब्लॉक के चौराहें पर है जिसके रास्ते चार अलग-अलग दिशाओं को चले जाते हैं। एक तरफ शमशान भूमि, दूसरी तरफ तुगलकाबाद, तीसरी तरफ खानपूर और चौथी तरफ पुष्पविहार को। जहाँ अभी बी.आर.टी बस कॉरीडोर बना है। जगह का ये वर्णन दक्षिणपुरी के रहने वाले हर शख़्स के दिलो-दिमाग पर न छूटने वाली स्टेंप की तरह लग गया है।

किसी ने बड़ी तेज़ी से आवाज़ दी "ओ पप्पू"। माहौल पहले से ही अपने अन्दर होने वाली हरकतों से झुँज़लाया हुआ था। हम एक कोना पकड़ कर खड़े थे। उनसे मुलाकात उनके नाम से शुरू हुए फिर सीधे काम-धन्धे पर आ गई। उसके बाद हुआ असली सामना। दो-चार बार उनके बारे में काफी सुना था पर कोई काम नहीं पड़ा। बातों की इस असीमता में उनका मिलना बेहद ला जवाब था। वो वक़्त को अपना दोस्त बताते हुए बोले, "वक़्त दोस्त की तरह होता है जो कभी साथ नहीं छोड़ता। हर पल हर क्षण ज़िन्दगी का हाथ थामें चलता है। ये पता रहे की हम किसी के साथ चल रहे हैं। जहाँ ये भूले तो रास्ता भटक जायेगें और तभी अकेले हो जायेगें। समझो, जहाँ हाथ छूटा किस्सा ख़त्म।"

गाड़ियो से और आते-जाते लोगों की बातों के शौर में उनकी बातों को मैं सुनने की पूरी कोशिश कर रहा था। वो दृश्य मेरे ज़हन में अभी घूम रहा है। घर आकर मैनें अपना टीवी ऑन किया फिर यकायक ध्यान उनके चेहरे की तरफ चला गया। कमरे के शौर से मैं कहीं बहुत दूर पहुँच गया। जहाँ मैं अपने से सवाल जवाब करने लगा। क्या नाम था उनका?, हाँ याद आया- शंकर। नाम याद आते ही मैं वापस अपने कमरे की चार दिवारी में आ गया। टीवी चल रहा था। बस इतना मालूम हो रहा था। रह-रहकर शंकर भाई उस माहौल से जुड़ी एक तस्वीर में मौज़ूद छवि की तरह लग रहे थे पर वो किस्सा ख़त्म कहाँ होने वाला था।

सुबह के 11 बज रहे थे। मैं उनके पास खड़ा था। आँखों के ठीक सामने शंकर भाई का चेहरा था। वो पैशे से राजमिस्त्री हैं और ज़ुबान के उतने ही पक्के हैं जितनी की उन हाथ से बनाई गई ईंट-पत्थर की दिवार होती है। जब मैंनें उनसे एक छोटा सा बाथरूम बनवाने की बात की तो मुस्कुराकर उन्होनें कहा, "चिन्ता मत करो तुम तो अपने ही
आदमी हो जब बोलोगे बना देगें।"

शंकर भाई के इस डायलॉग ने मुझे जैसे एकदम निश्चिन्त कर दिया। फिर भी मैंने समान कितना लगेगा और उनका अंदाजा लेने के ख़्याल से दोबारा सवाल कर डाला। "शंकर भाई मुझे अगर आईडिया मिल जाये तो मैं उसके हिसाब से समान मगवाँ लूगाँ।"

शंकर भाई ने कहा, "जब काम करना हो तो बता देना समान का क्या है वो थोड़े ही अपने आप अपने पाँव आ जायेगा तो हम ही तभी ही बता दूँगा।"

उनसे सारी बातें हो गई थी बस, मैं घर आकर कैसे बनेगा बाथरूम ये सोच रहा था। कमरे में मौज़ूद उमस का मुझे अहसास हुआ तो मैंने पंखा चला लिया। इस से मेरे हाँफते विचारों को राहत सी मिल गई। तीसरी बार जब फिर से मैंनें उनकी तरफ ध्यान दिया तो वो खड़े हुए हाथ की उंगलियों पर बाथरूम में लगने वाली चीज़ों का हिसाब लगा रहे थे।

उनकी खानेदार कमीज़ की जैब में छोटा सा कैल्कुलेटर होने के बावज़ूद भी शंकर भाई हथेलियों से क्यों काम ले रहे हैं। पागल है क्या हर पागल ऐसा ही होता है। वो अपने मन सोचता है और मन के गणित से सारे समीकरणों का हल निकाल लेता है। वो हथेलियों पर बनी लक़ीरों से ही काम ले रहे थे। मेरे ख़्यालों में मेरे उस पीरियड ने दस्तक दी जब मैं नवी कक्षा में था। दरअसल मुझे स्कूल में पढ़ायें गए विषय याद आ गये जो ज़िन्दगी में आज भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कल थे। खैर, जाने दो। मैंने उन्हे तनिक भी वो बात कहने की कोशिश नहीं की जो अभी मैं सोच रहा था। वहीं कैल्कुलेटर वाली बात। शंकर भाई ने कहा, "तुम्हारे ज़्यादा पैसे नहीं लगने दूँगा। जब मन हो बता देना समान भी दिलवा दूँगा और कोई सेवा मेरे लायक?”

उनके इन शब्दों ने मेरा मुँह बन्द कर दिया। तब लगा की ये अपनेपन का अहसास देने वाला कौन है? जो अभी का भरोसा दिला रहा है। एक खुशी सी मेरे चेहरे पर आ गई। ये मेरे निश्चिन्त होने की एकमात्र निशानी थी।


राकेश

Monday, March 25, 2013

दुनिया गोल है



दुनिया गोल है। ये मैनें आठवी कक्षा में पढ़ा था। तब उतना समझ नहीं आता था। बस, जबाब देना जरूरी होता था कि हां दुनिया गोल है। अब ये सिद्धांत है या प्रेक्टिकल है यह मुझे कतई नहीं पता था। बहुत कुछ आज ख़ुद पर ही जाँच करने पर पता चला है कि जितना सोचने में वक़्त लगता है उससे कहीं ज़्यादा अपने सामने किसी सम्भावना से इच्छा अनुसार जीने में भी लगता है।

सब गोल है। इंसान जहां से चलता है एक न एक दिन उसी धरातल पर आ गिरता है। वो जब अपनी यादों को झिजोरना आरम्भ करता है तो उसे अतीत की मौज़ूदगी नजर आती है की वो तब कहां था या क्या था? और फिर वो
वर्तमान को समझता है तो उसे सब पहले जैसा ही मालूम होता है। पर ऐसा क्यो है?

इंसान समय के कई पहलूओ में फंस कर जिता है। समय छलिया है। जो तरह - तरह की लीलाएँ रचता और करता है। जिसके प्रभाव से इंसान कभी लाचार हो जाता है तो कभी उसे आसमान भी कम पड़ जाता है। कभी वो खुशी महसूस करता है और कभी दुख।

ज़िन्दगी कभी मौत से जीत जाती है तो कभी मौत ज़िन्दगी से। कई रिती-रिवाजों में संकृतियों में समाज एक सामूहिक रूप से अपने स्नेह और भावनात्मकता को लेकर इंसान को स्वतंत्रत और परिस्थितियाँ पुर्ण जीवन जीने का आधिकार देता है।

जो इंसान के अपने हाथों जीना होता है। वो ख़ुद से अपने जीवन को जी सकता है। मगर उसे समाज के साथ चलना ही पड़ता है। क्यों?

समाज कारवां के जैसा है। जिसकी भीड़ से होकर अगर कोई निकल गया या पीछे छूट गया तो समाज उसे भूल जायेगा और समाज से ही बने सारे रिश्ते-नाते भी वह शख़्स को विसरा (भूला) देंगे। फिर चाहें वो अपने जीवन के किसी भी आधार को क्यों न घसीटता फिरे। अगर वापस समाज को पाना है तो समाज की शर्तो और उसकी न्यूनतमता में अपने को बनाना होगा और अगर समाज का दामन थामे चलोगे तो अवश्य ही जीवन का उद्दार हो जायेगा। क्यों सरकार जो मार्गदर्शन देगी उसी में जीवन के सारे काम ज़िम्मेंदारी और नैतिक स्वार्थ भी पुरा होगा?

राकेश

Friday, March 15, 2013

बाकी रह गया

वक़्त छूटा हाथ से तो यादें रह गई बाकी
ठुकरा दूँ कैसे मैं अपने कल को
जीवन अभी जीना है बाकी

रेत मेरे हाथ से ऐसा छूटा जैसे मेरा पिछला कल
अब आगे बढ़ने के लिए आज को पकड़ना है बाकी

बुना था यादों से अनेकों सौगातों को जिसे देना रह गया था बाक़ी
दर्द अपने निशान छोड़ गया हथेली पर
जिसे मिटाना रह गया बाकी

संतुलन में बैठा सोच रहा था -
कि काश, अगर सब कुछ संतुलन में होता
ज़िंदगी में एक निशां और था -
जो असंतुलन में आना रह गया बाकी


राकेश

Tuesday, March 12, 2013

जीवन ही वही है

ज़िन्दगी में जाने अन्जाने में किसी का किसी पर उधार हो ही जाता है। तो फिर क्यों न इस ज़िन्दगी के हर पहलू को जी भर कर जिया जायें। क्यों न ज़िन्दगी का कोई सार्थक दर्शन तलाशा जाये। जिसकी पनाह में हम अपने से जुड़े पहलूओं से टकरा सकें। हर किसी में ये सहास नहीं होता। बहुत से वक़्त के जरा करवट लेने से ही अपने कदम पीछे कर लेते हैं। उनके होने की किसी आहट तक किसी को नहीं होती है। मगर पीली धूप में जो जलता है वो सोने की तरह निखरता है। उसकी आहटों पर वक़्त के भी निर्णय के मोड़ पर आ जाते हैं।


रिश्ता तो सिर्फ पहचान है। आदमी के जीवन में किसी का दामन पकड़े रहने का। जिससे की कोई उद्देश्य मान कर वो अपनी भूख का खूद ही निवाला बनता रहे और उसे जरा भी महसूस न हो पाये की वो धीरे-धीरे मकड़ी के जाल में फंस रहा है। किसी न किसी दिन वो अपने शरीर का प्रतिनिधित्व छोड़ देगा। ये तत्व रूपी दुनिया में फिर कोई न फर्क
होगा।

सब एक-दूसरे को निष्ठावान होकर देखेगें। क्या ऐसी कोई दुनिया है जिसको हम परिभाषित कर सकें? जिसमें इंसान का धर्म उसका मसीहा न हो। मसीहा देखना हो तो अपने जैसे किसी शख़्स को बैठाकर उससे दो बातें करने में ही मसीहा का दर्शन मिल जाये। जिसे देखने के लिये आँखों की जरूरत ही नही। आँखे तो जगह में समझ कर चलने के लिये है। सही - गलत और किसी का होना न होने को भापनें के लिये है। जो हर कण और हर जगह उजागर होकर सब में मिला है। उसे खोजने या समझने की जरूरत क्या है?

जीवन ही वही है। वो कब आता है कब जाता है कब सुनता है। कब नहीं सुनता है। ये सब माया है उसकी जो आप में है जिसका आप के मन में एक दीपक जल रहा है। अगर कुछ करना है तो उस जलते दीपक को तलाशों और उसे अपने अन्दर बूझने से बचाओ। बाहर का तूफान अपने आप शान्त हो जायेगा।

राकेश

Friday, March 8, 2013

अंतरिक्ष मनुष्य

एक नये सफ़र की तैयारी


राकेश

हर दिन एक नया काम

तलाश जिसे मानना आसान है लेकिन जारी रखना मुश्किल। एक बने हुए समाज में छोटे छोटे स्तरों, चीजों या हुनर के जरिये जिन्दगी को हर पल, हर रोज ताजा करने में कुछ तलाश छुपी रहती है। सुबह, दोहपर, शाम हर पल की गवाही इसके सबूत बनते हैं। क्या पाया और क्या पाना रह गया में क्या छुट गया को याद में बदल दिया जाता है।

बनना को समझ ने के लिये रोजाना में उतरते चेहरों के स्वभावों को पकड़ना होगा। नहीं तो चेहरों की चेहरो के ही नक्शों से बाहर कर दी जायेगी।

मैं एक बार अपने पास के ही बिजली का काम करने वाले शख़्स के पास गया। जब अन्दर दुकान में मैं दखिल हुआ। वहां पर एक शख्स गर्दन नीचे की ओर छुकाए कुछ करने में जुटे थे।

लकड़ी की टेबल पर मेरी नजर पड़ी। पुरे पर काले और छोटे छोटे रूपों में काटे और छिले तार बिखरे थे। कहीं छोटे मोटे नट बोल्ट तो कही अन्य औजार। टेबल की सफेद प्लाई पर कई निशान थे और कुछ धब्बे भी थे। ट्रांसमीटर की घड़ियां औंधी पड़ी थी।

मैंने यहां वहां नजर घुमाते हुए उन शख्स से पूछा, "मास्टर जी कहां है?”
वो बड़ी मुस्तेदी से बोले, "क्या काम है?”

मेरे सवाल का जबाब तो मिला नहीं था। इस के पश्चात मैनें ही कहा की,  "मुझे बिजली का काम सिखना है।”

उन्होनें ने मेरी तरफ ग़ौर से देखा। फिर टूटा हुए प्लासटिक के स्टूल पर बैठने को कहा, "बैठ जाओ।"
कुछ देर के बाद में वो बोले, "मैं ही हूँ।"

ये सुनते ही मैंने अपना भाव ही बदल दिया और एक उस्ताद के रूप में आभिवादन किया।
"सर क्या आप मुझे ये काम सिखा सकते है?”
पहले उन्होने बाहर की तरफ आते जाते लोगों को देखा। थोडा सोचा फिर पूछा, "तुम ये काम क्यों सीखना चाहते हो?”

एक दम से मेरे पास बताने के लिये कुछ पैदा ही नही हुआ तो मैनें कहा, "बचपन से मैं ये काम सिखना चाहता था पर सीख नहीं पाया।”

वो बोले, "अब तो बचपन रहा नहीं तो ये ख्वाइश क्यों?"

मेरे पास कोई वजह नहीं बनी।

मैंने कहा, "घर के कारणों और मां -बाप का जोर पढ़ाई पर देने से। मैं ये काम ना सिख सका। घर वाले मुझे खूब पढ़ा कर वकील बनाना चाहते थे। पर ऐसा न हो सका। और मेरा रास्ता लाखों लोगों की उस भीड़ में जा मिला जहां मुझे मेरा ही पता नहीं था की मैं कहां से कहां आ गया? आज मैं चाहता हूँ की मैं वो करूं जो मैं चाहता हूँ। इस लिये आपके पास आया हूँ।”

वो बोले, "तुम्हारा नाम क्या है? तुम रहते कहां हो? क्या अकेले हो?”
इन सबका जवाब देन के बाद फिर फिर से उन्होनें पूछा, "क्या तुम मद्रासी हो?"
मैंने कहा, "नही।"
"तो तुम लगते क्यों हो? आखिर किस जाती से विलोम करते हो?”

धीर धीरे मेरे बारे में तो उन्होने सब जान लिया। फिर कहा की यहां काम करना है तो मेरे नियम से चलना होगा और मैं तुम्हे कोई डिग्री या सट्रिफिकेट नहीं दे सकता पर तुम्हे मजबूत बना दुगा। उन की आखों में एक ऐसा विश्वास छलक रहा था जो किसी डिग्री या सट्रिफिकेट के साथ नहीं चलता।

मैंने फैसला कर लिया की मैं यहां पर अगले कुछ दिन काम जरूर सिखूगां और फिर अगले किसी काम में जाऊंगा।

राकेश

Wednesday, March 6, 2013

अशौकी दसवीं फेल

अशौकी
उम्र : 20 साल
दसवीं फेल

फेल होने के बाद में कुछ काम नहीं है उसके पास बस, घर में ही रहना और टीवी या खाना खाने में लगे रहना।

हर दिन कि शुरुआत -
मम्मी, "सारा दिन घर में ही पड़ा रहता है। कुछ देर बाहर भी घूम आया कर। घर में और काम भी होते हैं। वो करें या तेरी देखभाल में लगे रहें। और नहीं तो कम से कम दोस्तों में ही बैठ जाया कर।"

टीवी बन्द करके अशौकी गली के कोने पर जाकर खड़ा हो जाता -
सामने से आते पिताजी, "जब भी देखता हूँ,  तू गली के कोने पर ही दिखता है। दोस्तों में खड़े रहने से कुछ नहीं होने वाला। खामखा आड़े-तेड़े लोगों कि नज़रो में आकर हमारा और जीना हराम करोगें। घर में मन नहीं लगता क्या तुम्हारा। घर में इतनी चीज़ें हैं टाइम पास के लिये उसी में मन लगाओ।"

अशौकी पिताजी का टिफिन पकड़े फिर से घर कि तरफ चल दिया। इस बार बिना कोई आवाज़ किये चुपचाप ही जाकर रजाई में बैठ गया -

पास में खड़ी बहन बोली, "हर वक़्त बुसा सा मुँह बनाकर बैठा रहता है। यूँ नहीं कि लोगों में हंसू - बोलूँ। घर में तो हमेशा इतनी बातें होती हैं कम से कम उन्ही में ध्यान दे लिया करो।"

इस बात का बिना कोई जवाब दिये अशौकी खाने कि प्लेट लिये वहीं रजाई में बैठ गया और टीवी चलाकर गाने कि लय के साथ गाना गाने लगा -

साथ से एक और आवाज, "अपना मुँह बन्द कर ले भैय्या। घर है कोई स्टेज नहीं। जब देखो गाल बजाते रहते हो। कभी चुप भी रह लिया करो।"

जायें तो जायें कहाँ?
करे तो करे क्या?

अशौकी दसवीं फेल।

लख्मी

Monday, March 4, 2013

हूटर पर नृत्य - भाग 2

हूटर पर नाच

पिछली रात अशौक ने रजनी के चेहरे पर कई रंग लगा दिये। रजनी को इन सबका पता भी नहीं था। वे मदमस्त नींद में मुस्कुराती हुई सो रही थी। अशौक ने रंगो से उसके चेहरे को पूरी तरह से रंग दिया था। लाल, पीला, हला और नीले रंग से इतनी लकीरें खींच दी थी की लगता था कई सारे इंसान के साथ रजनी आज बिस्तर मे है।

दूसरे दिन रजनी उठी तो हर रोज़ की तरह वो सबसे मिलने के लिये अपने कमरे से निकली। जो भी उसे देखता तो हंस पड़ता। वे समझ नहीं पाती। जो भी उससे बात करता तो बड़ी मुस्कुराहट के साथ। मगर रजनी अपने काम मे पूरी तरह जुटी हुई थी। वे जिस जिस के पास मे जाती वो ही उसे देखकर चौंक जाता। उसे करीब से जानने वाले उसपर हंसते और दूर से जाने वाले पूरी तरह से चौंक गये थे।

सब की हंसी का कारण बनी रजनी वापस अपने कमरे में पहुँची। खुद को संवारने के लिये जैसे ही शीशे के सामने पहुँची वे खुद चौंक गई और फिर जोरो से हंसी। काफी देर तक वे खुद को बस, देखती रही। रंगो को प्यार से छूती वे और भी ज्यादा बिगाड़ रही थी। जैसे खुद का ही चेहरा बिगाड़ रही हो। कुछ देर आइने के सामने खड़े होने के बाद में रजनी उसी हालत में फिर से घर के अंदर घूमी, अब की बार वो उन लोगों के पास मे गई जो उसे देखकर हमेशा नराज रहते थे तो कभी गुस्सा हो जाते थे। उनके सामने वे खड़ी रही। उन बच्चों के पास मे गई जो उसकी डांट फटकार पर भी हंसते थे। उन्हे डराने के लिये।

फिर दोबारा से अपने कमरे मे आइने के सामने आई और रंग को मलने लगी।


जिन्दगी मे कई बार ऐसे वक़्त आते है जब ये सोचना बेहद जरूरी होता है कि जीवन के किस हिस्से को आगे ले जाने की जरूरत है? उसे जो कामयाबी और नकामी का उदाहरण बनेगा या उसे जो कुछ नया गढ़ेगा। यह वक़्त नये और छूटने वाली अनेकों छवियों के बीच मे खड़ा कर देते हैं। क्या पकड़ा जाये और क्या छोड़ दिया जाये? असल में कुछ नया मिलना और कुछ छूट जाना हमेशा साथ साथ चलता है। कुछ छूट जाने का गम करना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना की नये की उमंग मे आगे बढ़ना। यह सोच उज्वल है। मगर शायद कुछ ऐसा भी है जिसे जीवन मे रिले करने की भूख रहती है। रिले करना विभिन्नताओ के अहसास में रहने के समान है। रिले ट्रांसफर है सोच का, छवि का, और समय का।

साथ ही वे मौके भी जब हम सभी खुद को एक बार ऐसे तैयार करते जिससे किसी को चौंका सके, हैरान कर सके, चिड़ा सके, लुभा सके, अपनी ओर खींच सके, डरा सके, पंगा ले सके या चैलेंज कर सके। कुछ तो बहुत कम समय के लिये बन पाते हैं तो कुछ कम समय के लिये होते मगर बार बार सिर चड़ जाते है। जीवन मे किसी वक़्त ने कोई चेहरा जैसे तोहफे मे दे दिया हो। वो याद तो रखा जायेगा मगर किस तरह?  उसे हम खुद से बुन ले तो क्या हो?


एक वक़्त ने उनके सामने भी ऐसे ही हालात पैदा कर दिये थे। जिनमे किन्ही दो रूपो में से उन्हे किसी एक छवि को अपनाना था। एक तो वे जो उन्हे पूरी तरह से इस दुविधा मे फसाये हुये थी कि वे कहां चली जायेगी और दूसरी वे जिसका बढ़ना पूरी तरह से तह होता है। पढ़ना, बढ़ना, शादी करना, मां बनना और फिर जिन्दगी के किसी पायदान पर रूक जाना। पायदान का दबदबा बेहद कठोर रहता है। समाजिक जिन्दगी का मान सम्मान बना रहता है। वे जो एक और रूप तैयार करता है जिसका रंगीले चेहरे से कोई लेना देना नहीं।

हर साल नाच मण्डली में हिस्सा लेती है। हिस्सा लेने से पहले वे कहां रहती थी व क्या करती थी। मण्डली का इससे कोई लेना देना नहीं होता था। शायद मण्डली का हर बंदा इसी रूप से नवाजा गया था। वे क्या छोड़कर आयी से ज्यादा वे इस बार क्या लेकर आयी है। नाच जमने से पहले यह जानने की रात हर साल जमती।

यह रात कई रोज की रातों से भिन्न होती। थकने और दुरूस्त होने से पहले की रात। कभी याद नहीं रहती। हर कोई दिन के शुरू होते ही क्या रूप धारण करके इस बार बाहर निकलेगा को रचता, बोलता और उसमे खो जाता। ऐसा मालुम होता की जैसे हर कोई वो बनकर निकलना चाहता है जिसमे वो खूबसूरत लगे, दुरूस्त लगे और यादगार लगे और कभी कभी तो होता की वे वो बनने की कोशिश मे है जिसे वो पहली बार खुद पर ट्राई करेगा।

एक पूरी रात उस किरदार मे ढ़लने के लिये होती। एक दूसरे को गहरी निगाह से देख सभी उस किरदार का अहसास करते। जैसे सपाट चेहरे पर उस किरदार का रंगीला चेहरा बना रहे हो। एक ही रात मे सभी अपने चेहरे मे दिखते चेहरे को पोत उन राहों पर निकल जाते जो अब भी अपने ही जैसे को तलाश रही होती है। उन पुते रंगीले चेहरे के पीछे के चेहरे को सभी ताकना चाहते और खोचना भी।

वे आज तैयार थी अपने चेहरे की शेप के भीतर किसी और को बसाये।


रूप वापस लौटते हैं। किसी समय को साथ लेकर। वे समय जिसे जवाब देना चाहते हैं या वे समय जिससे बहस करना चाहते हैं। समय जिसमें रूप खो गये थे, जाने नहीं जा रहे थे, नकार दिये जा रहे थे। समय उन पड़ावो को रिले करता चलता है जिसमें फिर से ये उम्मीद होती है कि वे रंग ले सकते हैं।


लख्मी