Friday, March 8, 2013

हर दिन एक नया काम

तलाश जिसे मानना आसान है लेकिन जारी रखना मुश्किल। एक बने हुए समाज में छोटे छोटे स्तरों, चीजों या हुनर के जरिये जिन्दगी को हर पल, हर रोज ताजा करने में कुछ तलाश छुपी रहती है। सुबह, दोहपर, शाम हर पल की गवाही इसके सबूत बनते हैं। क्या पाया और क्या पाना रह गया में क्या छुट गया को याद में बदल दिया जाता है।

बनना को समझ ने के लिये रोजाना में उतरते चेहरों के स्वभावों को पकड़ना होगा। नहीं तो चेहरों की चेहरो के ही नक्शों से बाहर कर दी जायेगी।

मैं एक बार अपने पास के ही बिजली का काम करने वाले शख़्स के पास गया। जब अन्दर दुकान में मैं दखिल हुआ। वहां पर एक शख्स गर्दन नीचे की ओर छुकाए कुछ करने में जुटे थे।

लकड़ी की टेबल पर मेरी नजर पड़ी। पुरे पर काले और छोटे छोटे रूपों में काटे और छिले तार बिखरे थे। कहीं छोटे मोटे नट बोल्ट तो कही अन्य औजार। टेबल की सफेद प्लाई पर कई निशान थे और कुछ धब्बे भी थे। ट्रांसमीटर की घड़ियां औंधी पड़ी थी।

मैंने यहां वहां नजर घुमाते हुए उन शख्स से पूछा, "मास्टर जी कहां है?”
वो बड़ी मुस्तेदी से बोले, "क्या काम है?”

मेरे सवाल का जबाब तो मिला नहीं था। इस के पश्चात मैनें ही कहा की,  "मुझे बिजली का काम सिखना है।”

उन्होनें ने मेरी तरफ ग़ौर से देखा। फिर टूटा हुए प्लासटिक के स्टूल पर बैठने को कहा, "बैठ जाओ।"
कुछ देर के बाद में वो बोले, "मैं ही हूँ।"

ये सुनते ही मैंने अपना भाव ही बदल दिया और एक उस्ताद के रूप में आभिवादन किया।
"सर क्या आप मुझे ये काम सिखा सकते है?”
पहले उन्होने बाहर की तरफ आते जाते लोगों को देखा। थोडा सोचा फिर पूछा, "तुम ये काम क्यों सीखना चाहते हो?”

एक दम से मेरे पास बताने के लिये कुछ पैदा ही नही हुआ तो मैनें कहा, "बचपन से मैं ये काम सिखना चाहता था पर सीख नहीं पाया।”

वो बोले, "अब तो बचपन रहा नहीं तो ये ख्वाइश क्यों?"

मेरे पास कोई वजह नहीं बनी।

मैंने कहा, "घर के कारणों और मां -बाप का जोर पढ़ाई पर देने से। मैं ये काम ना सिख सका। घर वाले मुझे खूब पढ़ा कर वकील बनाना चाहते थे। पर ऐसा न हो सका। और मेरा रास्ता लाखों लोगों की उस भीड़ में जा मिला जहां मुझे मेरा ही पता नहीं था की मैं कहां से कहां आ गया? आज मैं चाहता हूँ की मैं वो करूं जो मैं चाहता हूँ। इस लिये आपके पास आया हूँ।”

वो बोले, "तुम्हारा नाम क्या है? तुम रहते कहां हो? क्या अकेले हो?”
इन सबका जवाब देन के बाद फिर फिर से उन्होनें पूछा, "क्या तुम मद्रासी हो?"
मैंने कहा, "नही।"
"तो तुम लगते क्यों हो? आखिर किस जाती से विलोम करते हो?”

धीर धीरे मेरे बारे में तो उन्होने सब जान लिया। फिर कहा की यहां काम करना है तो मेरे नियम से चलना होगा और मैं तुम्हे कोई डिग्री या सट्रिफिकेट नहीं दे सकता पर तुम्हे मजबूत बना दुगा। उन की आखों में एक ऐसा विश्वास छलक रहा था जो किसी डिग्री या सट्रिफिकेट के साथ नहीं चलता।

मैंने फैसला कर लिया की मैं यहां पर अगले कुछ दिन काम जरूर सिखूगां और फिर अगले किसी काम में जाऊंगा।

राकेश

No comments: