Friday, April 26, 2013

एक अवैध जगह

शहर में एक अवैध जगह में अपना घर जब कोई शख़्स बना लेता है तो उसे अपनी ज़िन्दगी का हिस्सा मान लेता है।उस हिस्से को अपना सहारा समझने लगता है। अगर इसे सत्ता स्वीकारती नहीं, कुछ कानुनों के आधार पर नजायज ठहराती है। तब लोग सत्ता को दोषी करार करते हैं, गालियां देते हैं। लेकिन उनका जगह के साथ क्या रिश्ता है उसे समझाने का तरीका नहीं मिलता और शख़्स उस चीज के लिये रोता और बिलखता है। जो उनकी अपनी है ही नहीं।
शायद जो अपने कब्जे की या कन्ट्रोल की पकड़ नहीं है तो उसे क्यों चुनते हैं लोग? क्या ऐसी जगह या सपनों की दुनिया सजाने का कोई खासा परमीट हमारे पास होता है?

एक जगह यानी जमीन का टुकड़ा जिसे सत्ता माप डण्डों के जरिये देखती है। या तो सब से नीचे का करार करती है या सबसे ऊपर का लेकिन बीच का कहां है ये ही सब की नज़र से औझल रहता है या रखा जाता है। वो उसे ही पता होता है जो उस जमीन के टुकड़े पर समय का एक लम्बा आकार तैय्यार कर देता है। हर तरह का जोखिम और कठिनाइयां को हर हाल में अपनाता है।

जब हमारे आगे कोई प्रहार होता है तो हम उस प्रहार के आसपास से ही उससे लड़ने का औजार ढूंढ लेते हैं। ताकी जो भाषा हम से लड़ रही है उस से टकराने के लिये लोहा ले सके। क्योंकि समाजिक ज़िन्दगी कहती है कि लोहा ही लोहे को काटता है। अगर मैं कहना चाहूं की तोड़ने वाली भाषा को तोड़ने वाली भाषा ही टक्कर दे सकती है तो इस लाईन के विरुध आप की क्या सलाह होगी?

समाज जिससे अलग हुये शख़्स जो अपना कोना बना कर खुद अपने जीने की वजहों को बना रहे हैं। जिनका समाज में आने से पहले कोई गणित नहीं बनता और ना ही कोई कल्पना बनती। इसके बावजुद भी एक परिक्रिया बनी एक अजब कल्पना जन्म लेती है। जो समाज अपने बहिखातों में तब ही दर्ज करता है जब उस शख़्स की आधी ज़िन्दगी ये बताते बताते बीत जाती है की उसकी सोच और विचारों कि भी दुनिया है। जिसका आधार वो खुद है। जो अपने वज़ूद से ताल्लुक रखता है। मौज़ूदगी को बयां करता है। इन्सान क्या है? जीवन और जड़ में इन के बीच जीने का वर्णन देना और बदलावों की परिभाषायों को तलाशते और बनाते है हमारी उम्र ही हमारा अनुभव सुनाती है। कहानियां गढ़ती हैं मगर कैसे? 

इन बीच की धाराओं में जीवन की किन झलकियों को मान्य रखा जायेगा के दरमियां ही जीवन झूलता है। क्या बोले और क्या बोलने से पहले रूके की परतों में वज़न बड़ता जाता है।

राकेश

Tuesday, April 23, 2013

शहर की राह में नये कदम

हर शख़्स अपने तरीके। जेब में कुछ पैसे। कुछ सपने लेकर किसी भी अनजाने शहर में अपना कदम रखता है। उसका रोज़मर्रा, एक भूमिका बन जाता है। इसके चलते-चलते वो शहर में आने जाने के, घूमने के अपने रास्ते खुद से रचता चलता है। वही रास्ता कहीं तो एक नक्शे की तरह उभरता है तो कभी नये नक्शे बना लेता है। ये कोई पहले से बना बनाया या जमा-जमाया नहीं बल्कि अपनी खुद की महफूज़ियत को और आसानी की परतों में अपना रूप इख्तियार करता है।

कदम-दर-कदम बड़ते-बड़ते रास्तों पर एक ऐसी राह बनाते हैं की उसपर चलने वाला अन्जान सा नहीं लगता बस, वो तो एक जैसा रूपान्तर रूप लेकर अपने ही आसपास में घूमता नज़र आता है। जिससे रिश्ता कोई हो या ना हो लेकिन इसका वजन लेना तो कोई भी जरुरी नहीं समझता बस, बीच राह में भी किसी से :

"टाइम क्या हुआ है?”
"ये रास्ता किधर जाता है?”
"वो कहां पडेगा? या कभी-कभी तो आंखो से आखें टकराती है और चेहरे से चेहरे के भाव ही एक दूसरे को अपनी तरफ में खींचने लगते हैं फिर मालूम नहीं पड़ता की जहन उस तरफ में इतना आकर्षित क्यों हो रहा है? फिर नजर से नजर मिलते ही दिदार हो जाता है।

न जाने क्यों जहन एक पल के लिये बेकार हो जाता है। भाव इतने नर्म हो जाते हैं। कि शहर भी अपने खुद के जीने के हाल बने मौसम से आजाद हो जाता है।

शहर की छवि और आकार आंखों में कल्पना चाहें ना समाये पर हर अपना शहर खुद से रचता चलता है। अपने मुताबिक उसमें काल्पनिक व वास्तविक का खेला-खाला समय भरता है। फिर अपने मुकमबल दुनिया बनाता है। हर रोज, हर पल जिसमें एक नये रिश्ते, काम, जगह शख़्स से मिलना है। कभी नजरों से तो कभी बातों से। वो मिलन हमारी ज़िन्दगी में कुछ ऐड करता है। पर हर कि मुलाकातों और मिलने की इच्छाये क्या जोड़ती हैं? शायद एक "भाषा" क्योंकि शायद हर शख़्स की शहर को समझने की। जीने की एक भाषा हर रोज़ बनाती है। लेकिन अपने ही शब्दों की 'बोली' को वो हर वक़्त बदलता रहता है।

इन अलग-अलग बोली और भावों से रचता शहर कितनी क्षमता में जीता है? और उस क्षमता में हर शख़्स अपने जीने के स्रोत कहां से उठाता है। ऐसी ही कुछ मुलाकातें हुई। 

जिसमें से एक हैं "मौलिक बाबू”

आज पूरे स्कूल पर मौलिक बाबू का ही कब्जा था। बस, सिर्फ सामने वाला बड़ा दरवाजा ही खुला था। दरवाजे के थोड़ा आगे की तरफ में ही एक डेक्स लगाये उसपर एक छोटा सा मयूर जग जग रखा था। उसमे बर्फ में लिपटी कई सारी छोटी-छोटी ट्यूब सी पड़ी थी।

आज सण्डे के दिन पौलियो की दवाई पिला‌ई जाती है। तो स्कूल में काफी औरतें, बच्चे और मां-बाप अपनी गोद के बच्चो को यहां लेकर आते और उन्हे पोलियो की दो बून्द पिलवाते। उस दिन स्कूल एक अच्छी खासी डाक्टर की दुकान या फिर बड़ा सा नर्सिगं होम सा लगने लगता। रोते-बिलगते बच्चे उन्हे सम्भालती मायें। पर हाथ पकड़कर ले जाते आदमी उन्हे देखकर लगता है की जैसे स्कूल ने अपना रूप ही बदल दिया हो। कोई उनके डेक्स से अन्दर नहीं जा सकता क्योंकि शायद वहां पर कोई काम ही नहीं है। वो अपने काम को बड़े प्यार से कर रहे थे और फटाफट बच्चों का मुंह खोलते और दवाई पिला देते ताकी बच्चे रोये नहीं।

मौलिक बाबू ये काम पिछले 18 महिनों से कर रहे हैं। यूपी से आये मौलिक बाबू यहां पर सरकारी नौकरी की तलाश में आये थे। कहते है कि इनके खानदान में किसी की भी सरकारी नौकरी नहीं है तो ये यहां पर सरकारी जमाई बनने चले आये। हर तरह के सर्वे इन्होनें यहां पर किये 'गाडी, घर, पानी और अब पोलियो। वैसे ज़्यादा पढ़ नहीं पाये पर अपने ही शब्दों में कहते है, "सरकारी नौकरी की तमन्ना तो तभी ख़त्म हो गई थी जब सरकारी नौकरी का फोर्म भरने में 30 रूपये और किसी सरकारी आदमी के साइन मागें गये थे। हमें इतना तो पता चल गया की शहर सरकारी नौकरी देने से पहले अन्य सरकारी दफ्तरों के दरवाजे दिखाकर मेल-मिलाव करवाता है कि कुछ सीख लो! एक बार एम.बी.बी.एस डाक्टर के साइन करवाने के लिये गया तो उन्होंने ये काम बताया था। पहले तो यूहीं मुंह उठाकर चल दिया करते थे काम पर जब से लोग डाक्टर साहब बोलने लगे तो डाक्टर बनकर आना पड़ा। यहां पर ऐसा तो है की जिस नजर से लोग देखते हैं तो वही बनकर जीना पड़ता है। नहीं तो दुनिया से लड़ो लेकिन हम-तुम परिवार वाले लोगों पर इसका वक़्त ही कहां है? “जितना मिले, जैसे मिले उसी मे गुजारा करो"  जिन्दगी जो देती है वो चुपचाप ले लो चाहे वो दुख हो या सुख" क्योंकि कर तो कुछ नहीं सकते।”

बस, इतना ही वो कह गये।




दूसरी मुलाकात :

एक उलझन रात के हर पहर को गहरा किये जा रही है। एक छोटी सी डिब्बी में उन्होनें अपनी कोने की उगंली डालकर उसे हल्का सा घुमाया उसपर उन्होनें आयोडैक्स जैसी कुछ चीज निकाली और बड़े प्यार से उसे पूरे दातों पर मल लिया और उसी से बनते थूक की पीक को पास ही में मारते हुए वो जमीन में देखते हुए बोली, "भईया अब क्या होना है हमारी झुग्गी का? कोई फैसला होना है या नहीं? आप तो कोर्ट जाते रहते हैं तो कुछ बताओ अब हम कब तक यहां पर है?”

वहीं साथ ही मैं बैठी एक औरत बोली: “अरी तुझे कुछ पता ही ना है की अभी कुछ जवाब दिया ही नहीं है कोरट ने बस इतना कहा है की रुकी है साल-छ: महीने के लिये क्यों भईया सही है ना?”

“अरी जब रुक ही गई है तो लाइट काहे नहीं दे रहे हैं बता?”

“अरी वो लाइट वाला कमिना कोन सा सरकारी वाला था वो भी हमारे तुम्हारे जैसा ही था अगर उसे यकी हो गया की अभी रुकी है साल भर के लिये तो तभी लगायेगा वो लाइट नही तो नही और अगर ये तोडनी ही होती तो वो 8 मई को ही ना तौड़ देते क्यो भईया?” "अरी तो मैं कोन सा कह रही हूँ की तोड़ दो कहीं अचानक ना आ जाये क्यों? अपने अन्दर चल रही उलझन को बाहर धकेल रही एक सीधी बहस थी शहर से, जिसमें अपना आपा खोना नहीं था बस, कई नियमों को जो अब जिन्दगियों पर रख कर शहर की कल्पना कि जा रही है वो पनपे समाज पर क्या मायने रखती है? जिन जिन्दगियों ने कई उतार-चडाव, समय का आना-जाना और कई फैसलों से अपनी जानकारी को बनाया है वो अगर खुद को देखना चाहे तो किससे सीधी बातचीत कर सकती है? बस, इसी को बडे-छोटे सवालों में उठाने की कशमकश चल रही थी। वो खुद ही सवाल बनाती और खुद ही अपने अन्दर कुछ चल रहे को जवाब के माध्यम से बाहर उतारती उनकी किसी भी बात का क्या जवाब हो सकता था? मैं क्या बोलता बस एक लाइन थी जो हमारे बीच मे खीचं गई थी। जो सहानूभूती और फैसलों को ताने-बाने मे लपेट रही थी। सब घूमा सा था। अब समझना क्या था बस रही कि इस लपेट के अन्दर ओर बाहर क्या है? “भईया बता देना कि हम हारे या
जीते"

और मुलाकतें अपने पहर को बदल गई।

लख्मी

Wednesday, April 17, 2013

सरल मोबाइल संदेश

घर में आज फिर से पन्नों ने बिखरना शुरु किया।
आज फिर से नाम उन्हीं कागजों में कहीं गुम गया॥
जिस ज़िन्दगी को इनमें ढूढंते हैं बस वही कहीं डूब जाती है।
और पन्नों के मुड़े-कुतरे निशानो में घूमती यादें अपनी ही धून बजाती हैं॥

आज फिर से घर के किसी कोने में यादों की बरसात है।
आज एक बार फिर मेरी उनसे पहली मुलाकात है॥

लख्मी

एक पूरी रात

वक़्त की शाखाओं को पकड़े बिजली के तारों की एकाग्रता की सीमा के बीच मैं खड़ा धूल और मिट्टी के मोटे कणों को चेहरे की परतों से हटा रहा था। तभी यह विशिष्ट दृश्य मेरे होने की प्रवृत्ति में चल पड़ा। मैं खड़ा था। भीड़ की विवेकशीलता निरंतर चल रही थी। काली परछाईयां मेरं सिर पर मंडरा रही थी। संतुलन जैसे असंतुलन के बीच किसी बड़े फर्क में था। कई आलोचकों की आवाज़ें नियंत्रण में ही नहीं थी। भीड़ का प्रतिनिधित्व करने के लिए मेरे मन का ख्याल मुझमें कुलबूला रहा था।

और मैं रात के विशाल जंगल में रहने वाले कीट-पतंगों की गूंज में हो रहे दिव्यमान को महसूस करने की कोशिश कर रहा था। रात का विशा जंगल कई अनचाही तस्वीरों मे डूबो देने की ताकत लिये था। पानी की बाल्टी में मैली पतलून पहने एक बुझा-बुझा सा शख़्स थकी आँखों से रात में घूमते गश्तगरों को सलाम करता घूम रहा है।

दूर से धुंओ के भव्य बादल बनाती चिमनियों सी चमकती बल्ब सी रोशनी और रंगीन ट्यूबलाईट सी उनकी आग लगातार लुपलुपाती हो रही थी। जिसके घेरे में भीड़ में व्यस्त डीजिटल मीडिया अपनी छटा बिखेर रहा था। कई अन्य रूपों के माध्यम से जिसमें अनेकों दृश्य समाये थे। पानी की छोटी सी बाल्टी में उसने कई पोलीथीन पैकेट रखे हुए थे। वो पोलीथीन पैक पानी था। जिसको बेचने के लिये वो शख़्स अपनी एक जगह बनाये खड़ा था। होठो से धीरे-धीरे प्यास को वितरित करता अपने पास बुलाता। वहीं पास ही में अपने चेहरे पर कोई लड़का मुखौटा लगाये भीड़ को देख रहा था। मनमाने ढंग से उसकी आँखे चल घूम रही थी। पोलीथीन पैक पानी को उसने हाथों में लेकर हवा में घुमाना शुरू कर दिया। बस, फिर क्या था सब की आँखें वहां की ओर देखने लगी। शाखारूपी वक़्त ने जैसे सबको अपनी ग्रफ्त में ले लिया।

ये पूरी रात चलता होगा।

राकेश

Thursday, April 11, 2013

हूटर पर नाच - 3

क्या इतना आसान है किसी ऐसे समय को भूला देना जिसने खुद को बदलने का मौका दिया। और कभी यूं भी लगता है कि समय वहीं उसी जगह पर रूक गया है। जब वे ज्यादा क्षणों मे तब्दील हो गया था। उसमें दृश्य भरपूर रहे थे। कभी कुछ कम हुए मगर वो भी दमदार थे।

अशौक जी काम से काफी समय पहले रिटायर हो चुके हैं। वे काम जिसने उनके उस चेहरे को छीन लिया था जिसके साथ वे लम्बे समय तक यादों मे बसे रहे। यादें उन्हे कभी सुख देगी उन्हे इसकी कोई उम्मीद नहीं रही है लेकिन उनमें वे अपने चेहरे को खींच लाये है।

वे चेहरें पर रंग लगाकर कभी कोई बादशाह बन जाते तो कभी कोई मंत्री। कभी बिना बोले जाने वाला आदमी तो कभी हंसाने वाला जोकर। मंज घर का कोई कोना होता और श्रोता उनकी गली के बच्चे। कभी कभी तो अपनी छत पर पूरी तरह से अपने दोस्तों के साथ उस समय को ही रच देते। महीने मे कभी भी वे ये बनकर बिना किसी को न्यौता दिये श्रोता बना डालते।

नुसरत जी - अनेको अंजान लोग बनकर जी रहे है। आज भी, कभी भी अपना नाम बदलकर किसी भी बहिखाते पर लिखवा देते हैं। कभी किसी लाइब्रेरी के रजिस्टर पर तो कभी अपने महीने के समान लाने वाली कॉपी पर। अंजान बनकर जीना उन्हे कई कहानियां दे जाता। वे कुछ भी बन जाते और अपनी बात उसकी कहानी कहकर सुना डालते। कहानियां जैसे उनकी जैब के किसी कोने मे पड़ी मुड़ गई हो। वे उन्हे सीधा करते और सुना देते। कभी अशौक, कभी रंजन, कभी सइयद, कभी खजान बनकर वे अपने ही कमरे मे जी रहे है। उनके कमरे मे कई किताबें डिब्बो मे पैक पड़ी है। जिनपर ये नाम छपे हुये है।

अलग अलग किताबघर मे वे कई नामों से किताबों को पढ़ते और उन्हे अपने साथ घर ले आते। उन्ही किताबों मे जैसे वे शख्सियतें आज भी जिन्दा हो और कहानियां सुना रही हो।



कहानियां बटोरना किसकी आदत नहीं? उनकी जिन्हे सिर्फ कहानियां सुनाने के मजा आता है या उनकी जिनको सिर्फ लिखना आता है।

मोहन भाई का बक्सा इन सभी मजेदार समय को छुपाये रखने से भरा हुआ है। उनका मानना रहा कि सबसे ज्यादा कहानियां लोग तब सुनाते हैं जब वे झूठ बोल रहे होते है या किसी हादसे से बचना चाह रहे होते हैं। वे कहते है कि अगर आपको सबसे बड़ा कहानिकार बनना है तो पहले झूठ बोलना सीखिये। वे इन माहौलो के तो सरताज रहे है। जिसे वे आज सबसे बड़े कहानिकार की तरह सुनाते हैं और घुमते हैं उन सभी लोगो को लिये। छोटी कोर्ट, जहां पर वे लिखने का काम करते थे। यहां लिखने के काम से ज्यादा वे सुनने वाले बनकर कभी तो लिखने से पहले ही सलाहकार बन जाते, कभी फैसला करने वाले, कभी बचाव करने वाले, कभी गवाह तो कभी कुछ और। कोई अपनी बात को कैसे बतला रहा है। वे उसे कैसे लिखेगें की तरफ ले जाते। जैसे वे किसी कम्पलेंट को नहीं बल्कि जीवन के किसी सवाल को लिख रहे हैं जिसका हल उन्हे भी अपने जीवन मे खोजना होगा। उनका बक्सा इन सब कहानियों को जीवन के उदाहरण बना आज भी कभी भी खुल जाता है। लिखना अब भी चालू है - बशर्ते काम अब नहीं रहा।

वे आज भी अपने मे ये सब कुछ लिये चलते है।


उन्होने पूछा, “तुम्हारे जीवन में ये सवाल कभी नहीं आया की खुद और घर के बीच मे से किसी एक को चुनो?

आज भी उनके हाथ उन छोटी किताबें होती है। घर आते आते वे उन्ही किताबों को पढ़ते हुए अथवा गुनगुनाते हुये आते हैं। कभी तो किताबों के बीच मे ही अपनी किसी लाइन को जोड़ देते हैं तो कभी किसी लाइन को काट देते हैं। दिमाग अपने आप ही कुछ काटई और छटाई करता चलता है। अपनी कमाई का एक छोटा हिस्सा वे हमेशा इन किताबों के लिये छोड़ देते। भले ही उनके अलावा इन्हे कोई पढ़े या ना पढ़े लेकिन वे इनके साथ अपनी दोस्ती नहीं तोड़ सकते थे। काफी समय के बाद मिला एक दोस्त जो ये सब देखकर चौंक गया।

उस दोस्त ने सवाल उनसे पूछा था वे हंसकर बोले, “जब कोई जोर देगा इस सवाल को सोचना तो मैं तुम्हे ही उनके आगे खड़ा कर दूंगा।"


बड़े भौपू की आवाज़ देर रात आती रहती। कोई क्यों इतनी रात तक ये बजाता है हर कोई शायद ये पूछता होगा और झूंझलाकर सो जाता होगा। मगर टीकूं भाई उसमे पूरी तरह से खोये रहते। बरातघर के बन्द हो जाने के बाद में वहां जमती हल्की छोटी महफिले उनके लिये कोई टाइम बिताने का साधन नहीं थी। वे यहां से वे सीखे थे जिसमें उन्हे सुनने वालो की भीड़ लग जाती थी। कौन गा रहा है इसे भूल कर लोग उन्हे सुनने के लिये आते। कभी कभी टीकूं भाई खाली आप ही बजाओं का नारा भी उन्होने सुना है।

उसी जगह पर उनके साथ अब कई और छोकरे हैं जो अलग अलग स्टूमेंट लिये उनके साथ अपनी आवाज़ को मिला रहे हैं। जैसे उन्होनें किसी लय को कईओ के दिल मे उतार उन्हे यहां खींच लिया है। आवाज़ कभी मिक्स हो जाती तो कभी एक के ऊपर दूसरी चड़ जाती। पर लय के निरंतर आने का सिलसिला कभी खत्म नहीं होता।

सोचो अगर जीवन का एक कोई पहलू पूरे जीवन को ही चमक दे गया तो उस पहलू को दोहराया कैसे जायेगा? दोहराना भी छोड़ो वो है ही क्या?  जिन्दगी मे कई बार ऐसे वक़्त आते है जब ये सोचना बेहद जरूरी होता है कि जीवन के किस हिस्से को आगे ले जाने की जरूरत है? उसे जो कामयाबी और नकामी का उदाहरण बनेगा या उसे जो कुछ नया गढ़ेगा। यह वक़्त नये और छूटने वाली अनेकों छवियों के बीच मे खड़ा कर देते हैं। क्या पकड़ा जाये और क्या छोड़ दिया जाये?

कुछ नया मिलना और कुछ छूट जाना हमेशा साथ साथ चलता है। कुछ छूट जाने का गम करना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना की नये की उमंग मे आगे बढ़ना। यह सोच उज्वल है। मगर शायद कुछ ऐसा भी है जिसे जीवन मे रिले करने की भूख रहती है। रिले करना विभिन्नताओ के अहसास में रहने के समान है। रिले ट्रांसफर है सोच का, छवि का, और समय का। रिले करना किसी को चौंका लिये होता है, हैरान करने करने के लिये, चिड़ाने के लिये, लुभाने के लिये, अपनी ओर खींचने के लिये, डराने के लिये, पंगाने लेने के लिये और चैलेंज करने के लिये।

ये कुछ तो बहुत कम समय के लिये बन पाते हैं तो कुछ कम समय के लिये होते मगर बार बार सिर चड़ जाते है। जीवन मे किसी वक़्त ने कोई चेहरा जैसे तोहफे मे दे दिया हो। वो याद तो रखा जायेगा मगर किस तरह?  उसे हम खुद से बुन ले तो क्या हो? 

लख्मी

शब्दों का पहिया

स्लोमोशन भी एक मूवमेंट ही है – जितनी सरल उतनी ही उसके स्पर्श में किसी एक्शन की छुअन है। एक्शन किसी दायरे में, दायरा वहीं है, ठहरा है, पूरा कहीं उठकर नहीं जा रहा। मगर ऐसा नहीं है कि वे मूव नहीं करता। नियमित कोई चीज़ रिले करती है।

तीव्र चमक अपने खत्म होते होते किसी स्पार्क की तरह उछल कर टकराने वाले पर पड़ रही है। टकराहट उतनी ही ताकत से चल पड़ती है। झटके के वार से धक्का खाता पहिया, खुद को बेलेंस करता हुआ, लुढ़कता और टहलता हुआ चीजों को धकेलने के तैयार है। पहले से तैयार जमीन उसके लिये किसी टेस्ट तरह है या बना रही है। तेजी और धीमे के बीच से होता हुआ वे ऊंचाई और निंचाई के साथ खेलता है। जैसे ही वे अपनी रफ्तार को हल्का करता तो सतह का खुर्दरापन उस छलांग मारते पहिये को, भी धक्का मार के आगे की ओर उछाल देता है। उससे वो रूकना नहीं, गिरता नहीं, थमता नहीं पर सतह पर बने रास्ते से टकराकर वे उनसे खुद को बना रहा है। खुद को उल्लास के लिये तैयार करता हुआ। सतह उसकी रफ्तार के साथ मे दूरी और पास का नया रास्ता बनाती चल रही है। राह ने उसके साथ किसी खेल को बनाया है। वे कहां जायेगा का अहसास मिसिंग है मगर कैसे जायेगा का अहसास तय मालुम होता है।

सब भागती जाती, अपने वज़न से अपनी रफ्तार बनाती हुई। हल्के पहिये वाला सतह से अपनी रफ्तार बना रहे हैं। गति उस तीव्र चमक को सतह से हवा की ओर ले जा रही है। सतह से हवा तक पहुँचते पहुँचते चमक अपने रंग बदल रही है और साथ ही साथ अपने फोर्स को भी। आहिस्ता आहिस्ता चमक सतह को छुती हुई किसी अंत की तलाश में मूवमेंट बना रही है। कुछ देर तक चमक लहराती हुई थमी रही है। अपना रंग बदला, आसपास के रंग पर छा गई, और फिर ऊंचाई को चूमने की कोशिश में किसी ना दिखने वाले गर्म अहसास से उड़ चली। कुछ दूरी पर उसके आने के लिये तैयार हो रहा है। एक सुखा गोला, उस गर्म अहसास को अपने मे ले लेने के लिये उत्सुक सा लगता है। उसके ऊंचाई पर खड़े रहने से उसने नीचे गिरना दाव किसी चैलेंज की भांति है। उसने उस गर्म अहसास से एक रंग ले लिया है। रंग ने जैसे उसे उड़ने का मौका दिया। घुमना, घूमना, घूमना जैसे वो नाच रहा है। हवा को अपनी भाप देता हुआ। हवा उसके पीछे पीछे चल रही है। लहराता रंग रोशनी से आसपास के नजारे को चमक तोहफे मे दे रहा है। कुछ जमीन उससे ये रंग चुरा रही है। जैसे कुछ लुटाया जा रहा है और जमीन उसे लूटने के लिये तत्पर है। 

कुछ देर तक ये डांस चलता रहा। तब वे खुलकर, बिखरकर, पीछे दिखती परछाई से गायब नहीं हो गया। जमीन ने उसके रंग को अपने शरीर पर ले लिया। जमीन भी उस भाप की गर्मी से कुछ देर जल रही है। किसी खतरनाक रूह की भांति वो गोला अपने परर फैलाता हुआ दिखा। जमीन मे कुछ ही देर मे जैसे उस भाप को ट्रांसफर कर दिया। आग लेने वाला कुछ देर तक उसे संभालने का अभिनय करता रहा। जमीन से उसे हिलने नहीं देता। पर जैसे ही परत आग से खुद को खोने लगती है तो हवा का झोंका उसे घुमाकर फैंक दे रहा है।

हवा से अपनी जलन को हल्का करता हुआ वे जमीन पर पड़े बिखरे तिनको से मिल गया। तिनको ने उसे ले लिया। तिनको ने अपने को फुलझड़ियों की तरह रंग बिखेरने दिया। कुछ देर सब कुछ उन्ही फुलझड़ियों मे खो गया। उसने आसपास को खुद मे डुबो लिया। आसपास गायब ही हो गया। धीरे धीरे करके जब उन रंगो की ताप ने जोर पकड़ा तो चीज़े दूर होने लगी। उसमे से कुछ लेकर भागने के लिये। जिसको जो चाहिये था उसे मिल गया। मगर अभी उसके लिये वो पूरा नहीं था। एक नाता भाप से तेजी का - बनने मे कुछ कमी थी। समय ने उसे रोके रखा। रोककर उसे भागने का मौके को सोचने के लिये। वो रूका, रूका रहा। किसी गुलेल की तरह उसे तैयार करने के लिये। उसका आसपास पूरी तरह उजाले मे था। रूद्र था। रोशनियों की चकम को संभाले हुये। जिसे भागना है वे तैयार है। उसे गर्मी महसूस नहीं हो रही। रूद्रता उसके पीछे है। उसतक आने के लिये अपना जोर पकड़ रही है। कोई एक लोह उसतक आने के लिये निकल चुकी थी। उसतक पहुँचने मे उसे वक़्त लगा। मगर वो बहुत तेज थी। भड़काव मे थी। उसे भी पीछे से किसी ने तेजी से मारा था। उस तक वो पहुँच चुकी थी। कुछ देर वो उसकी गर्मी की फड़फड़ाहट को झेलता रहा। खुद मे भरता रहा। वो उसे रोक नहीं पाया - खुद को भी नहीं। किसी डर से या किसी उड़ान से या किसी सक्रियेता से वे दौड़ चला। मगर उसे घबराने की कोई जरूरत नहीं थी। उसके डर को अपने अंदर समाने के लिये -

फोर्स को थमाने के लिये दीवारें जैसे तनी खड़ी थी। टकराहट की तेजी उसके पार भी निकल सकती थी। उसने उसे जाने नहीं दिया। खुद मे समा लिया। रोक लिया। उसकी चटकने की तेजी को रोक उसने चमक की सक्रियता को उसकी खासियत बना दिया। ना जाने कितनी देर वो उस सक्रियता को संभाले रखेगा!

लख्मी

कल्पना की अजब दुनिया


आपके बाहर की क्या कल्पना है जो आपको खिला सकती है? जब हम बाहर कहते है तो क्या अपने बाहर कहते है या जब हम बाहर की कल्पना कहते है तो ये अन्दर क्यों होता है? यानि हम वो कह रहे है जिसमें हम कहीं होने या उसे छूने की एक खास तलाश में रहते हैं। जो पाया या जो खोया इस को सच कर आप एक उम्मीद और नाउम्मीद के बारे मे कोई फैसला ले रहे हो या निराश हो रहे हो। इसके आगे क्या है जहां से कोई खिंचाव सा महसूस होता है?

ऐसे हमारी आजादी जो हम चीज को लिये उड़ने की सोचती है। तो वो आजादी हमें हर जगह या किसी के बाहर मा ना मिले तो वो एक अपना जाल मे छटपटाना सा महसूस कराती है। बाहर नहीं दिखता। वो एक तरह के माहौल का दायरा ही तो है जिसमें बाहर को देखने वाला अपनी ही कोई भाषा तलाश रहा है कि मेरे से जो बाहर है उसे मैं देखूं तो उसे बोलूँ क्या?

इस शुक्रवार में जैसे ही मेरे सारे दोस्तों ने अपने अपने बाहर को देखने की कोशिश की और बाहर को पाने के लिये कल्पना की तो लगा की जिस बाहर को देखने के लिये हम सभी नें अपनी नज़रे उठाई हैं वो असल में हमारे अन्दर का वो हिस्सा है जो खाली पड़ा है।  यानि सभी अपने अन्दर के किसी मिसिंग यानि लापता किनारे को महसूस कर रहे है जिसे बाहर कह रहे है। लगा की हम सब कल्पना नहीं पा रहा है। बाहर जिन्दगी के हर पहलूओ के बनने की हद में जाने की कोशिश कर रहे हैं। कि कुछ मिल जाये बस, हर चीज हो, हर कोई मौजूद हो, मेरी अपनी पसंद हो, अपना अधिकार हो, बिना रोक-टोक हो, कोई ब्ररेकर ना हो, आसमान हो, लेकिन कोई सीढी ना जिसपर से वापसी का अंदेशा मिलता रहे।

जमीन पर लाखों तरह की तरंगे है मगर फिर भी जमीन के हर जर्रे में आसमान को छुपा रखा है। कल्पना उन जर्रों के अन्दर से होने और ना होने के बीच में कोई दुनिया रच डालती है।

राकेश

Wednesday, April 3, 2013

चौराहों का गोदाम

थक कर मैं वहाँ बैठ गया। जहां सें मुझे वो चेहरा याद आया जो मेरी कल्पनाओं के अदखुले दरवाजों से होकर कभी गुजरा था। आज यकायक वो दृश्य आँखों में वापस उमड़ आया। जिसकी चमक में अंधेरे से उजाले की तरफ कदम बड़ाया था। जब तक मैं उस चेहरे को जी भरकर देख लेता तब तक मेरे शरीर की सभी मांसपेशियों ने मेरा साथ छोड़ दिया था।

अपने सामने आने वाली नंगी आवाजों सें मैं बेचैनी को महसूस करने कोशिस करता। मैं किसी कतार में नहीं खड़ा था। मेरे चारों ओर लगी दुकानें, पी.सी.ओ बूथ, सब्जी का ठिया, चाय-नमकिन का ठिया। जहां पर रोज़ाना महफिलें सजती होगी और पर्चूने की दुकान है जो सलीम भाई की है 'हैयर कटिंग' की। बाबूराम की हलवाई की दुकान जिसकी जलेबियों का स्वाद सब की जुबान पर रहता ही है।

इस सारी उथल-पुथल भरे वतावरण में एक प्रकाश सा बिखरा हुआ था। उसी प्रकाश में तमाम वस्तुओं की दुनिया सी नज़र आ रही थी। मगर हवा, पानी की तरह माहौल में वो भीड़ बनाकर मुझे अपनी तरफ खींचे जा रही थी। मैं हताश सा होकर इधर-उधर झाँकने लगा। वहां मौजूद लोगों के बावजूद चीज़ों का वज़ूद कुछ ओर ही चेतना लिये था। जिसके अन्दर से कोई किरण निकलकर मेरी तमाम इन्द्रियों को एक अंजाना सा स्वाद दे जाती। जहन पे सभी एक दस्तक सी दे रही थी। चौराहों से आती टोली वहां के ठहरे समय को हल्के से छेड़ जाती। फिर लोग अपनी दुनियाओं में लीन हो जाते। कहीं से आकर ठहर जाने के बाद यहां फिर किसी तरह की रफ्तार होने लगती पर वो रफ्तार क्या होती ये पता नहीं चलता था। जैसे लोहे को काटते हाथ जब एक के बाद एक लोहे को काटने का प्रयास कर रहे होते हैं तो वे खुद भी लोहा बन जाते हैं। वैसे ही इस चौराहे का गोदाम अपने आप को एक ऐसी सिद्दत से देखता है। जैसे लगता है की आसमान से ओश की बूंद बनकर गिरने वाले शीत अहसासों का झूंड़ यहां अचानक ही आ गया हो। या कोई चाहतों सें खड़ी की गई समय की मिट्टी और पानी से बनाई अदभूत नगरी हो। जो न घर है न रहगीरों का ठीकाना वो तो चीजों को चुन-चुनकर उन्हे किसी आकार में ढालने की भूख है। जो किसी चीज़ की ऐसी स्थिती या रूप है जिसे समझने के बाद में किसी असाधारण वस्तु का पुर्नगठन करने का दमोदार संम्भालना हो।

गोदाम की असली पहचान है या नहीं। इस बात पर मुझे संदेह है। जीवन में कौन सुख और इज्जत नहीं चाहता। सारे सुखो से इंसान को ये सुख क्या कम है कि वो जटील से जटील हालातों में भी जिन्दा है। ऊंची-ऊंची और बड़ी महत्वकांक्षा के अतरिक्त भी जिन्दगीं मे महत्वकांक्षा पलती है। जो आम जीवन में संजीवनी बूटी की तरह हर शख़्स को पुनहजीवित करती रहती है। फैसलों में अपने आप को किसी आग में सोने की तरह जलाने की जद्दो-जहद भी इंसान ही करता है। रोज़ाना गोदाम में काम करते हुए रेडियो और सीडी प्लेर पर नये और पुराने गाने सुनते, फिल्मी गानों में ये सब इतने मसगूल हो जाते है की न सुबह का पता चलता और ना ही शाम ढ़लने की खबर होती। प्रमोद, दिपक, शेरू भाई मस्ती से चीजों को छाटते। दोनों पैरों को मोड़कर बैठते। हाथ और कपड़े गोदाम के काम मे मैले हो जाते। फिर भी चेहरा फूलों की तरह मुस्कुराता रहता। आँखों में झील कैसी गराई होती है कि कब कहां से कैसी या कौन सी आव़ज पैदा जायेगी इसका कुछ पता न चलता।

मेरी सोचने की क्षमता जैसे और ऊर्जा मांगती है। तमाम तरह की चीजों के ऊपर बैठे-बैठे वो हाथों को मशीन से भी तेज चलाने लगते हैं। लगता उनके हाथ में कोई पुर्जा ही फिट हो गया है। जिसकी मदद से वो फुर्ती से काम करने लगते हैं। यह पुर्जा यहां कहाँ बनता है। मैं इसके बारे में जानना चाहता हूँ।

बाहर क्या हो रहा है? वो इस से बेख़बर होकर अपनी दुनिया में कुछ न कुछ तलाशते रहते हैं। चीज़ों की इन सब को बड़ी परख है। एक ही बार में कौन सी चीज़ काम चलाऊ है या कैसी है। वो ये अच्छी तरह पहचान जाते हैं। पूरे दिन गोदाम में आये माल में छटाई होती है फिर आखिर में रद्दी, हल्की प्लास्टिक और कड़क प्लास्टिक को अलग-अलग करके तराजू पर चड़ा दिया जाता है। शाम तक गोदम का सारा माल बेच दिया जाता है। बस, आज का काम खत्म और अगले रोज़ की तेय्यारी शुरू। और वो भी बिना रूके।

ये जगह मेरी नहीं है मगर मैं जगह का हूँ। इसलिये सब के सामने हूँ। बातें उड़ते हुए कागजों, पन्नियों को देखकर लगता है जैसे इस जगह में ही वसंत अभी आया है। और अपनी मस्त हवा के झोकों के साथ चीजों और वहां के प्रत्येक चीजों से हटखेलियाँ कर रहा है।

प्रमोद का एक दोस्त उस रोज़ आया जब गोदाम में खड़े टेम्पू में माल भरा जा रहा था। धूप ठीक सिर के ऊपर थी। पसीनों में लथ-पथ उस का शरीर जैसे हांफ रहा हो। उस के हाथों में एक झोला था जिसमें उसके कुछ हफ्ते ठहरने के कपड़े थे और चेहरे पर नई जगह में आने से जन्मे उम्मीदों भरे भाव छलक रहे थे। गांव से वो शहर में कुछ आमदनी के लिये आया था। प्रमोद उसे देखकर बहुत खुश हुआ और बोला, "अरे सोनू तू। गाँव में सब ठीक तो है न।" और कैसी लगी दिल्ली?”

प्रमोद के इन तेजी भरे सवालों का भला वो एक बार में कैसे जबाव दे पाता। जरा, चैन की सांस तो ले लेने दे फिर सारा किस्सा सुनाता हूँ। उसने सुस्ताते हुए अपनी सहमती जताई।

फिर नये दिन की तैयारी शुरू हुई। यहां पर 24 घंटे में दिन कभी चार बात तो कभी दो बार शुरू होता है। आज का ये तीसरा दिन था।

राकेश

उफ, ये बारिश भी

बारिश का मौसम हो चला था। सखी अभी अभी ही घर में आई है। अपने नई नवेली दुल्हन के रूप से निकलने में सखी को ज्यादा समय नहीं लगा। पूरी गली में तो रिश्ते ही रिश्ते रहते हैं। कहीं बाजी, कहीं चाची, कहीं अम्मी तो कहीं मामी।

रोज दिन के चार घन्टे तो इनके साथ बतियाते में ही गुज़र जाते हैं। बस सखी अपने मियां के आने से बीस या पच्चीस मिनट पहले ही घर में मुहं उठाये सिधा दोड़ी चली आई है। घर में फर्स नहीं है तो नंगे पाव में मिट्टी लगी है। तलवे रोजाना काली राख में रंग जाते हैं। उनके मियां अक्सर कहते हैं की "सखी मेरी जान नंगे पावँ मत रहा कर मिट्टी से नुक्सान होता है। तेरे पाँव फट जायेंगे और गोरे-गोरे पाँव काले पड़ जायेगें।"

मगर सखी के पाँव अपने घर में चप्पल पहनकर नहीं उतरते बस, रोजाना की तरह उनके मियां के आने से पहले ही सखी अपने सजो-श्रंगार में लग जाती है।

आज भी बैठ गई हैं एक हाथ में शीसा पकड़े और दूसरे से लिपिस्टिक का रंग देख रही हैं। उनके साथ वाली अम्मा अक्सर कहती हैं, "अरी सखी अपने आपको श्रंगार में रखा कर नई नवेली है। श्रंगार में नहीं रहेगी तो लोग खूब बातें बनाने लगेंगे।"

सखी अब बिलकुल तैयार है। खुद को सजाने में कुछ गुन-गुनाती हुई शायद वो सोच रही हो कि कल की ही तरह अगर आज भी उन्होनें आते ही गले से लगा लिया तो। यह सोचकर उसके चेहरे पर मुस्कुराहट की लहर से दौड़ जाती है। इसलिये अपने हाथों को पाउडर से मलते हुए उसने हल्का-हल्का अपने चेहरे पर भी लगा लिया है कि कहीं अगर उन्होनें आज भी चेहरा छू लिया तो। साथ ही इस सोच में वक़्त लगा रही है कि कल तो महरुम रंग की लिपिस्टिक लगाई थी। आज कौन सी लगाऊ। लिपिस्टिक लगाई, काजल लगाया, हलकी सी चोटी की और चूड़ी तो उन्ही कि लाई पहनी है। अपने आपको पूरा श्रंगार करने के बाद भी आईने में बार-बार देख रही है की कहीं कुछ कम तो नहीं रह गया। बस, उनके आने का इन्तजार है।

उनके मियां के आने का वक़्त हो गया था। इतने में दरवाजे की जोर से आवाज़ आई। वो एक बार फिर से शीसे को देखती हुई और अपने कपड़ों को संभालती हुई दरवाजे की तरफ गई। चेहरे पर मुस्कुराहट भरते हुए दरवाजा एक झटके में खोल दिया। मगर बाहर काफी तेज आन्धी चल रही थी। उसकी की तेजी से दरवाजें पर जोरदार दस्तक हुई थी। अपने मियां को देखने की चाहत जैसे उनकी पल भर में गायब हो गई।

सखी ने इधर उधर देखा और सीधा अपने ऊपर वाले कमरे जो की बांस की पतली डंडियों से बना है। जिसपर छप्पर है या नहीं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वो वहां पर तेजी से गई और रात के सुखाये कपड़े उतार लाई। इतने में तो बारिश भी शुरू हो गई। मगर उनके मियां अभी भी नहीं आये थे।

हल्की हवा और तेज बारिश सखी के लिए किसी तूफान से कम नहीं थी। आँखे दरवाजे पर ही टिकी थी। बारिश में भीगते हुए उनमे मियां दरवाजे पर दाखिल हुए।

वो उनकी तरफ गई। ना जाने क्या-क्या सोचते हुए। अपने रूप से, अदा से, श्रंगार से उनको रिझाती। बातों में नटखटपन भरते हुए बोलीं, "क्यों जी आज खूब भीगे हो। ठन्ड तो नहीं लग रही? आओ कपड़े बदल लो। आपके हाथ मसल दूँ।"

इतना कह कर वो चुप हो गई। उनके मियां भीगे हुए थे। वो उनकी तरफ में मुस्कान भरते हुये बोले, "आज तो बड़ी प्यारी लग रही है। क्या बात है?”

वो कुछ ना बोली और अन्दर की तरफ चली गई। अपनी मुस्कुराहट से अपने प्यार को उभारने लगी। मोटी-मोटी बूँदे तड़तड़ पड़ रही थी। इतने में उनके छप्पर से बनी छत का एक कोना भारी बारिश के मार से नीचे गिर गया और पूरे घर में पानी ही पानी भर गया। उनके मियां यूंही बाँस से बनी फिसलती छत पर नगें पैर ही चड़ गये और छत को ठीक करने लगे गये। मगर लग रहा था की जैसे बारिश रुकने वाली नहीं है। सखी वहीं कोने में से पानी से बची खड़ी खड़ी अपने मियां को देखती रही और बस,  देखती ही रही।

लख्मी