Wednesday, April 3, 2013

उफ, ये बारिश भी

बारिश का मौसम हो चला था। सखी अभी अभी ही घर में आई है। अपने नई नवेली दुल्हन के रूप से निकलने में सखी को ज्यादा समय नहीं लगा। पूरी गली में तो रिश्ते ही रिश्ते रहते हैं। कहीं बाजी, कहीं चाची, कहीं अम्मी तो कहीं मामी।

रोज दिन के चार घन्टे तो इनके साथ बतियाते में ही गुज़र जाते हैं। बस सखी अपने मियां के आने से बीस या पच्चीस मिनट पहले ही घर में मुहं उठाये सिधा दोड़ी चली आई है। घर में फर्स नहीं है तो नंगे पाव में मिट्टी लगी है। तलवे रोजाना काली राख में रंग जाते हैं। उनके मियां अक्सर कहते हैं की "सखी मेरी जान नंगे पावँ मत रहा कर मिट्टी से नुक्सान होता है। तेरे पाँव फट जायेंगे और गोरे-गोरे पाँव काले पड़ जायेगें।"

मगर सखी के पाँव अपने घर में चप्पल पहनकर नहीं उतरते बस, रोजाना की तरह उनके मियां के आने से पहले ही सखी अपने सजो-श्रंगार में लग जाती है।

आज भी बैठ गई हैं एक हाथ में शीसा पकड़े और दूसरे से लिपिस्टिक का रंग देख रही हैं। उनके साथ वाली अम्मा अक्सर कहती हैं, "अरी सखी अपने आपको श्रंगार में रखा कर नई नवेली है। श्रंगार में नहीं रहेगी तो लोग खूब बातें बनाने लगेंगे।"

सखी अब बिलकुल तैयार है। खुद को सजाने में कुछ गुन-गुनाती हुई शायद वो सोच रही हो कि कल की ही तरह अगर आज भी उन्होनें आते ही गले से लगा लिया तो। यह सोचकर उसके चेहरे पर मुस्कुराहट की लहर से दौड़ जाती है। इसलिये अपने हाथों को पाउडर से मलते हुए उसने हल्का-हल्का अपने चेहरे पर भी लगा लिया है कि कहीं अगर उन्होनें आज भी चेहरा छू लिया तो। साथ ही इस सोच में वक़्त लगा रही है कि कल तो महरुम रंग की लिपिस्टिक लगाई थी। आज कौन सी लगाऊ। लिपिस्टिक लगाई, काजल लगाया, हलकी सी चोटी की और चूड़ी तो उन्ही कि लाई पहनी है। अपने आपको पूरा श्रंगार करने के बाद भी आईने में बार-बार देख रही है की कहीं कुछ कम तो नहीं रह गया। बस, उनके आने का इन्तजार है।

उनके मियां के आने का वक़्त हो गया था। इतने में दरवाजे की जोर से आवाज़ आई। वो एक बार फिर से शीसे को देखती हुई और अपने कपड़ों को संभालती हुई दरवाजे की तरफ गई। चेहरे पर मुस्कुराहट भरते हुए दरवाजा एक झटके में खोल दिया। मगर बाहर काफी तेज आन्धी चल रही थी। उसकी की तेजी से दरवाजें पर जोरदार दस्तक हुई थी। अपने मियां को देखने की चाहत जैसे उनकी पल भर में गायब हो गई।

सखी ने इधर उधर देखा और सीधा अपने ऊपर वाले कमरे जो की बांस की पतली डंडियों से बना है। जिसपर छप्पर है या नहीं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वो वहां पर तेजी से गई और रात के सुखाये कपड़े उतार लाई। इतने में तो बारिश भी शुरू हो गई। मगर उनके मियां अभी भी नहीं आये थे।

हल्की हवा और तेज बारिश सखी के लिए किसी तूफान से कम नहीं थी। आँखे दरवाजे पर ही टिकी थी। बारिश में भीगते हुए उनमे मियां दरवाजे पर दाखिल हुए।

वो उनकी तरफ गई। ना जाने क्या-क्या सोचते हुए। अपने रूप से, अदा से, श्रंगार से उनको रिझाती। बातों में नटखटपन भरते हुए बोलीं, "क्यों जी आज खूब भीगे हो। ठन्ड तो नहीं लग रही? आओ कपड़े बदल लो। आपके हाथ मसल दूँ।"

इतना कह कर वो चुप हो गई। उनके मियां भीगे हुए थे। वो उनकी तरफ में मुस्कान भरते हुये बोले, "आज तो बड़ी प्यारी लग रही है। क्या बात है?”

वो कुछ ना बोली और अन्दर की तरफ चली गई। अपनी मुस्कुराहट से अपने प्यार को उभारने लगी। मोटी-मोटी बूँदे तड़तड़ पड़ रही थी। इतने में उनके छप्पर से बनी छत का एक कोना भारी बारिश के मार से नीचे गिर गया और पूरे घर में पानी ही पानी भर गया। उनके मियां यूंही बाँस से बनी फिसलती छत पर नगें पैर ही चड़ गये और छत को ठीक करने लगे गये। मगर लग रहा था की जैसे बारिश रुकने वाली नहीं है। सखी वहीं कोने में से पानी से बची खड़ी खड़ी अपने मियां को देखती रही और बस,  देखती ही रही।

लख्मी

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