Wednesday, April 17, 2013

एक पूरी रात

वक़्त की शाखाओं को पकड़े बिजली के तारों की एकाग्रता की सीमा के बीच मैं खड़ा धूल और मिट्टी के मोटे कणों को चेहरे की परतों से हटा रहा था। तभी यह विशिष्ट दृश्य मेरे होने की प्रवृत्ति में चल पड़ा। मैं खड़ा था। भीड़ की विवेकशीलता निरंतर चल रही थी। काली परछाईयां मेरं सिर पर मंडरा रही थी। संतुलन जैसे असंतुलन के बीच किसी बड़े फर्क में था। कई आलोचकों की आवाज़ें नियंत्रण में ही नहीं थी। भीड़ का प्रतिनिधित्व करने के लिए मेरे मन का ख्याल मुझमें कुलबूला रहा था।

और मैं रात के विशाल जंगल में रहने वाले कीट-पतंगों की गूंज में हो रहे दिव्यमान को महसूस करने की कोशिश कर रहा था। रात का विशा जंगल कई अनचाही तस्वीरों मे डूबो देने की ताकत लिये था। पानी की बाल्टी में मैली पतलून पहने एक बुझा-बुझा सा शख़्स थकी आँखों से रात में घूमते गश्तगरों को सलाम करता घूम रहा है।

दूर से धुंओ के भव्य बादल बनाती चिमनियों सी चमकती बल्ब सी रोशनी और रंगीन ट्यूबलाईट सी उनकी आग लगातार लुपलुपाती हो रही थी। जिसके घेरे में भीड़ में व्यस्त डीजिटल मीडिया अपनी छटा बिखेर रहा था। कई अन्य रूपों के माध्यम से जिसमें अनेकों दृश्य समाये थे। पानी की छोटी सी बाल्टी में उसने कई पोलीथीन पैकेट रखे हुए थे। वो पोलीथीन पैक पानी था। जिसको बेचने के लिये वो शख़्स अपनी एक जगह बनाये खड़ा था। होठो से धीरे-धीरे प्यास को वितरित करता अपने पास बुलाता। वहीं पास ही में अपने चेहरे पर कोई लड़का मुखौटा लगाये भीड़ को देख रहा था। मनमाने ढंग से उसकी आँखे चल घूम रही थी। पोलीथीन पैक पानी को उसने हाथों में लेकर हवा में घुमाना शुरू कर दिया। बस, फिर क्या था सब की आँखें वहां की ओर देखने लगी। शाखारूपी वक़्त ने जैसे सबको अपनी ग्रफ्त में ले लिया।

ये पूरी रात चलता होगा।

राकेश

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