Thursday, May 23, 2013

सवाल कहाँ से बनते हैं?

मेरी समझ मे सवालों का सफ़र उस खोज तक होता जो कहने वाले को उसकी उन छवियों तक ले जाये जिससे वे खुद को बोलता है या बोल पाता है, जिसमें जिन्दगी का रस और एक बहाव हो। उसके भीतर जाकर उन कहानियों को सफ़र करवाये जो उससे निकल कर एक माहौल मे फैल जाती हैं। मगर सवालों का सफ़र सिर्फ जीवन की दास्ता को सुनने या उनसे किसी को समझने के लिये नहीं होता।

मेरी मुलाकात किसी ऐसे शख़्स से रोज़ हो रही थी जिनसे बातें करते हुए समय का पता नहीं चलता था। मैं उनके पास मे अपने किन्ही सवालो को ले जाता और उनके जीवन के दृश्य, ज्ञान और कहानियों को पिरोकर उनको समझने की कोशिश करता। पर बातें उनकी जिन्दगी से दृश्य लेकर बाहर चली आती जो याद के अलावा और उनके अतीत के अलावा कुछ और नहीं होती। उनके साथ बातचीत में पूछे जाने वाले सवाल – असल मे सवाल होते ही नहीं थे। वे तो कोई क्लू या कुंदे की भांति होते जो उनके अतीत मे बसी यादों की किसी मछली को फांस कर ले आते।

हर रोज़ ऐसा होता रहा - मुलाकात मे समय छोटा होने लगा।
मैं हर रोज़ किसी एक चीज पर कुछ सवाल बनाकर ले जाता और उनसे कोई दास्ता सुनता। जैसे की काम पर : मैं सोच लेता कि वे किस चीज़ मे अपना शौक रखते हैं जिसमें मेरे सवाल होते -

काम में रहते हुये कुछ अलग कैसे करते हैं?
क्या काम के साथ एक रिश्ते में रहते हुए ये इजाजत मिलती हैं?
अपनी किस को सुनाते हैं?
सुनाने से क्या मिलता है?
कोई ऐसी कोई याद जब मज़ा आया हो?
कोई किस्सा याद है जो काम को हल्का करता है?


बातचीत शुरू होती जितनी उत्तेजना से उतनी ही बुरी तरह से वे जमीन पर गिरती। ऐसा लगता था की कुछ समय के बाद मे कुछ बचेगा नहीं। कभी मैं याद पर, कभी कहानियों पर, कभी सुनाने पर, कभी माहौल पर तो कभी उनके उन्हे एंकात पर सवाल बनाकर ले जाता और उनके सामने बैठ जाता। इसमें मैं सवालों की पोटली बनाने मे बहुत मश्ककत करता और बड़े चाव से जाकर बैठ जाता। एक दिन उन्होनें मेरे पहुँचते ही कहा, “क्या हम आज काम और रिश्तों से बाहर जाकर बात कर सकते हैं?”

मैं सोचने लगा की वे क्या सवाल होगे जो काम और रिश्तों से बाहर के होगे? सवाल यहाँ से आते हैं?

सुनाना हमारी जिन्दगी में महत्वपूर्ण क्यों है और वे सुनाना जिसे मैं खुद रचा है। क्या जिन्दगी में सुनने वाले मिल जाते हैं या सुनने वाले बनाने पड़ते हैं? सवाल महज़ ये नहीं है कि हमने कुछ लिखा है और उसे सुनाया जाये। बल्कि सवाल ये है कि हमारी सुनने वाले की तलाश क्या है?

किसी शख़्स को उसकी "कहाँ" की कल्पना मे ले जाकर सोचा जा सकता है? सवाल महज़ पूछे जाने के लिये नहीं होते। बल्कि कुछ दृश्य और लोग ही उस सवाल की भांति जीवन मे तसरीफ ले आते हैं? जिससे जवाब की गहराई को मापा जा सकता है।

मुकेश जी बतरा अस्पताल मे काम करने वाले एक शख़्स है जो वहाँ की केनटीन सम्भालते हैं। एक दिन वे मुझे ढूंढते हुये मेरे पास आये। पसीने मे तर वे अपनी साइकिल से उतरे। लगभग 6 किलोमीटर की दूरी से वे साइकिल पर आये। आकर बैठे और कहे, “मैंने इस जगह के बारे में अपने दोस्त से सुना था - मैं कुछ सुनाना चाहता हूँ, झट से उन्होने अपनी जैब से एक पन्ना निकाला जो पसीने से भीगा हुआ था। उसे सीधा करते हुये वे सांस को संतुलित करते हुये सुनाने लगे। मैं उन्हे ही देखे जा रहा था। वे अपनी कविता खत्म करने के बाद मुझे बिना कुछ कहे देखते रहे। मेरे पास कोई ऐसा सवाल नहीं था जो मैं उनसे पूछता। मैं उनसे क्या पूछता? वे कोनसा सवाल था जो उनसे पूछा जाता?

सवाल यहाँ से बनते हैं? वे सवाल जो उनके सफर, उनका सुनाना, उनका तलाशना और उनकी वर्दी पर नहीं होते। मैं उन सवालों की खोज मे था। वे सवाल बना सकूँ जो ज्ञान और कहानी से बाहर लेकर कुछ कह सकें। जो किसी एक के लिये ना हो। वे सवाल जो 100 लोगों से पूछा जा सके। मैंने अपने साथी की कॉपी मे से उसके बनाये 250 सवालो को खोजने की कोशिश की, उससे कहा की वे मुझे दिखाये। उनको पड़ते हुये लगा की इन सवालों मे 100 लोग है, लेकिन हर सवाल फिक्स है। वे जिससे पूछा जा सकता है उसी के लिये बना है। जैसे फेरीवाले, ड्राइवर, स्पीड, सड़क के किनारे बैठा शख़्स। इसमें भी किसी कहानी के तहत ही अन्दर जाना हो सकता था।

मैं उन्ही शख़्स के पास गया जिन्होने मुझसे कहा था की "काम और रिश्तों से बाहर होकर बातें करें" उन्होनें मुझे एक शख़्स से मिलवाया उन्होने मुझे अपने बाते में बताया - "जीवन मे सवाल वापस लौटते हैं?”

ये मेरे लिये एक और भिंड़त थी जो किसी को देखने और किसी से मिलने से दूर ले जाती है। मैंने सवाल बनाने शुरू किये - मैंने पहले से ही नक्की कर लिया की इन चीज़ों को नहीं लाऊंगा अपने सवालो में नाम, काम, पहचान, पता, रिश्तेदारी, चाहत, याद, भाव ( दुख-खुशी), प्लान, टारगेट।

मैं अपने बनाये सवालों को लेकर गया एक बच्चों के एक स्कूल में - वहाँ पर बच्चों की भीड़ में एक बच्चा बिना कपड़ों के आकर बैठ गया। वे दूसरे बच्चों की किताब मे झांकर पढ़ने लगा। सब उसको जानते थे। वहाँ बैठी टीचर ने उसको अपने पास बुलाया और कहा, “तुम कपड़े क्यों नहीं पहनकर आये?” तो वे बोला, “मुझे अभी काम पर जाना है, मैं भीख मांगता हूँ तो अभी थोड़ी देर के बाद मे जाऊँगा।" टीचर इसके बाद मे क्या पूछती वे सोच मे पड़ गई – वे उसको देखती हुई बोली, “क्या तुम स्कूल नहीं जाते?” वो बच्चा सहमा सा हो गया फिर उसने अपने परिवार को बोलना शुरू किया।

क्या उससे कुछ और बातचीत नहीं कि जा सकती थी? "स्कूल" के बारे मे पूछकर उसे क्या किया गया। सवाल यहाँ पर आते है। सवाल "कहाँ" की कल्पना देने या लेने के लिये नहीं होते बल्कि "कहाँ" को जीने के लिये होते हैं। मैंने सोचा की क्या मैं सवालों मे इस बच्चे को शहर मे देखकर पूछूंगा या यहाँ से वापस इसे घर लेकर बात करूगां।

तब लगा की जीवन के बारे में दस सवाल : जो पहचान और जीवन के अनुभव को खींचकर ले आने के लिये खाफी होते हैं। इसके बाद आने वाला सवाल इस दायरे के बाहर का होता है। वे किसी एक के लिये नहीं होता। उस सवाल का रूप क्या है वे मैं अब भी सोचने की कोशिश मे हूँ।

लख्मी

Monday, May 20, 2013

रात का एक लम्बा सफ़र

आज मैं जब बाहर निकला तो मेरे दिमाग मे एक सवाल घूम रहा था की मेरे अंदर और बाहर दिखते या मेरे खुद के बनाये शहर का लेंथ आखिर क्या है? अपने से बाहर के शहर की स्पीड को किस तरह सोचूँ? खुद के ठहराव से या खुद की रफ्तार से?

आज पहली बार में अपने ही दिल्ली शहर में एक लंबे सफर पर घूमने के लिए निकला। ये घूमना वे नहीं था जो मैंने चुना। ये एक दम अंजान थारात का। जैसे - जैसे अंधेरा गहराता जाता वैसे - वैसे मेरे मुताबिक चलने वाली मेरी खुद की कल्पना मुझसे दूर जाती, जाती और छूटती और फैलती और बहकती और मचलती और खोटी और भटकती जाती। मैं जिन रास्तों से कभी मिला ही नहीं हूँ या जगह को जानता हूँ ये ढोंग करता उससे पहले ही वो कठोर होती चली जाती। बिलकुल एम्बूलेंस की तरह जो एक पते पर भागती है लेकिन जब मरीज़ उसमें लेटा होता है तो रास्ते अपने होकर भी अपने दुश्मन हो जाते हैं।
 
मैं अपने दोस्तों के साथ था लेकिन कुछ ही देर में मैं उनसे अंजान  हो गया। अपने दायरे से दूर हो गया। कई ऐसे चेहरे और मोडों से मैं मिला जो शायद पहले भी कभी मेरी जिन्दगी से टकराये होगें। लेकिन आज वो कलोनी और रेज़िडेंस के लिबास से बाहर थे। उनमे से कुछ तो ऐसे नाजूक होते की किसी बड़ी तस्वीर के पीछे छूप जाते तो कुछ ऐसे जबरदस्त जो मीलों तक याद रहते।
जैसे सड़क के किनारे पर दो आदमी बिन मौसम की बरसात से बचने के लिये एक ही छोटी सी पन्नी के नीचे छूपने की कोशिश कर रहे थे। सड़क के किनारे पर ही उनका रिक्शा खड़ा था जिसपर समान लदा था। एक शख़्स पुल के बराबर मे अपने हेलमेटो को बड़ी तिरपाल से ढकने की कोशिश कर रहा था मगर पुल की ये हवा उसे हर बार उड़ा ले जाती। लगता था जैसे उसे आज दो मोटे पत्थर तलाशने मे सबसे ज्यादा मेहनत की होगी। ये नांगलोई और उद्योगनगर के बीच की रोड़ पर देखा मैनें। एक शख़्स तो टेलीफोन पर बहुत जोरों से बातें कर रहा था। गाड़ी की चालीस की स्पीड़ मे भी उसकी आवाज़ की गाडी के तेज होर्न की तरह कानों को छू गई थी। उसकी आवाज़ को बन्द हो गई थी लेकिन पलट कर देखने पर नज़र आया की उसका टेंट का समान बाहर जमीन पर मोटी रस्सियो मे बंधा पड़ा है।
 
क्या ये नज़ारे कहीं और नहीं दिखते? दिखते होगें। कई बार तो हमने एक साथ अपनी ही बस्ती/कलोनी मे देखे होगे। मगर ड्राइव पर देखने मे लगा की ये दृश्य कुछ कहते हैं। रूकने को, ठहरने को, चलते हुये देखने को, एक झलक को पता नहीं मगर चेहरा भले ही नहीं दिखता स्पीड़ मे मगर शारीरक भाषा आपको मोहीत कर ही लेती है।
 
मैं अपने साथ मे बैठे अपने दोस्त से बोला - आपको भी बताता हूँ, “लोग, जगह और सफ़र भले ही एक दूसरे से मेल रखते हो या नही मगर बिना लोगों के शहर है, बिना जगह के है और बिना सफर के है और अगर ये तीनों मिल जाते हैं तो मेप बनता है शहर नहीं। लेकिन हमने एक खेल अपने बीच मे रखा कि हर एक घंटे मे दो लोग अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर रखेगे और आसपास वाले उसे बतायेगे की वो क्या देख रहे हैं

मैंने जब आँखों पर पट्टी बाँध रखी थी तब कुछ समय के लिय लगा जैसे सारी दूरियाँ पूरी तरह से खत्म हो चुकी है। ऐसी हर आवाज़ को सुनने के बाद मे महसूस होता। हर आवाज़ अपने साथ कोई ऐसी तस्वीर लेकर आती जैसे वो मिटने के लिये तैयार हो रही हो। “शहर का लंबा सफर” शहर को अपने नजदीक या रास्ता समझने के लिये नहीं होता। बल्कि ऐसा लगता हर पल जैसे एक दूसरे पर चढ़ता जा रहा है और दूरियाँ खत्म कर रहा हैं।


लख्मी