Saturday, May 4, 2013

उपस्थितयाँ

उपस्थितयाँ कई तरह के वर्जन के थ्रू है। मान लेते हैं कि ये वर्जन - छवियां है। वे जो हर बार बदलती है - बदलकर हर बार भीड़ में खो रही हैं। सपोज़ - वे जब किसी जगह से गुजरी - तो वे नहीं रही जो बनकर वो किसी कमरे से निकली थी। वे जब किसी चलती गाड़ी के सामने खड़ी हुई तब वे वो भी नहीं जब वो किसी जगह से गुजर कर बनी थी। वे जब किसी शांत शख्स के सामने बैठी थी तब वो कुछ और थी। फिर जब वो किसी पागल शख़्स के सामने रूकी तो वो कुछ और हो गई।

उपस्थितयाँ विभिन्नताओं से सजी बनी है। उनमें अनेकों आवाज़े हैं। उपस्थित की कोई खास व चुनिंदा आवाज़ नहीं है। अगर इन आवाज़ों, रूपों, भावों, रिश्तों, परिवेशों से इसे बाहर कर दिया जाये तो शायद वे पूरी तरह से खुद को हाज़िर होने देगी।


लख्मी

No comments: