Tuesday, July 2, 2013

दीवारों में फसें कुछ तार

मेरे कुछ खत

मेरा एक खत टागँने का कुण्डा था जिसमे मैं अपने खत टाँगा करता था । मगर अब खत णेजने का सिलसिला बदं हो चुका है क्योंकि अब टेलीफोन आ गया है , जिसकी वजह से खत आने बदं हो गए हैं तब वो कुण्डा खाली रहने लगा । तो सोचा कि इसमे क्या करें फिर हमने उसमे अपने घर,राशन, बिजली वगैरह के बिल कोई कार्ड, अस्पताल के कागजात वगैरह रखने शुरु कर दिए । आज वो अलग-अलग रगं, साइज और आकार और भाषाओं से भरा नज़र आता है। लगता है कि कई शख्स कई जगह इसमे जीते हैं । जिसकी वजह से यह टगीं हुई निर्जीव चीज़ जानदा लगती है।

चीजें यादगार नही होती

चीजें यादगार नही होती , बल्कि वो समय ही कुछ एसा होता है जो उस चीज मे समा जाता है। यही कारण है कि मेरी मम्मी अनपढ़ होने के बावज़ूद भी कागजातो की भीड़ मे किसी इकलोते कागज़ात को पहचान जाती है । वह समय उसके रगं उसकी छुअन मे समा गया है जिसकी वजह से उसे देखते ही छुते ही उसे पहचान जाती हैं । वो कागजात देखते ही उनके आँखो के सामने वो वक्त आ जाता है। मेरी माँ को जब भी किसी कागजात की ज़रूरत महसूस होती है तो उसे अपनी राज़दार पेटी मे टटोलती है जिसमे कागज़ो के रूप मे ना जाने कितनी ही जिंदगिया जगाहें सलामत हैं।
 


तार की जिन्दगी

अक्सर दीवार मे एक कील मे अटके एक पतले से तार को देखती हूं। जिससे कइ सारे छोटे-छोटे कागज के टुकड़े फसे रहते है। नीचे की तरफ वाले तो झुक से गये है पर उपर वाले तीन या चार अभी भी कड़क से लगते है। जो हवा के चलने से फडफडाते तो नही है लेकिन जहां से तार पैज मे घुसी है वहां से छेद बड़ा हो चला है। अगर उसे दूर दे देखा जाये तो पैजो के रगं भी नही दिखते सब की सब एक ही रगं मे ढले नजर आते है। मगर जैसे ही उसके नजदीक मे जाओ तो उसमे रगं उभरने लगते है। वो सारे के सारे अखबार से काटी गई खबरो के टुकडे है। जिनपर अगर नजर भी जाती है तो खाली उनकी "हैडलाइन" ही पढने मे आ पाती है।


इंसान बना हैवान.....
अवश्कता...अवश्कता....

किसी का हाथ, किसी का पैर, किसी का धड़. तब बने हमारे राजीव गांधी... जूतो से पहचाना बैटी ने....


कुछ इस तरह की दुनिया समाई है उसमे। इतनी साफ और मुश्किल दुनिया के दर्शन के बाद मे अगर उसे छूओ तो हल्की-हल्की मिट्टी हवा बनकर उडती है। परत दर परत समय उसपर चडा है। एक ऐसी जिन्दगी जो कभी "जी" है इस तार इस दीवारी ने। जिसके अलग-अलग कीले अपने पर एक झलक टांगे खडी है। इस तार के साथ मे जब भी नजर पडती है तो किसी एक और कील मे फंसा हैगंर नजर आता है जिसमे कई अलग-अलग रगं की चूडियां घूसी है जिसका रगं उन पन्नो से कम नही लगता। इसको देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये वही शख़्स है जिन्हे मै रोज सुबह मे खाना टीफीन मे पैक करके देती हूं जो घर से एक नजर सुरज की तरफ मे देखते हुये निकलते है।।


तार की जिन्दगी


अक्सर दीवार मे एक कील मे अटके एक पतले से तार को देखती हूं। जिससे कइ सारे छोटे-छोटे कागज के टुकड़े फसे रहते है। नीचे की तरफ वाले तो झुक से गये है पर उपर वाले तीन या चार अभी भी कड़क से लगते है। जो हवा के चलने से फडफडाते तो नही है लेकिन जहां से तार पैज मे घुसी है वहां से छेद बड़ा हो चला है। अगर उसे दूर दे देखा जाये तो पैजो के रगं भी नही दिखते सब की सब एक ही रगं मे ढले नजर आते है। मगर जैसे ही उसके नजदीक मे जाओ तो उसमे रगं उभरने लगते है। वो सारे के सारे अखबार से काटी गई खबरो के टुकडे है। जिनपर अगर नजर भी जाती है तो खाली उनकी "हैडलाइन" ही पढने मे आ पाती है।



इंसान बना हैवान..... 

अवश्कता...अवश्कता....


किसी का हाथ, किसी का पैर, किसी का धड़. तब बने हमारे राजीव गांधी... जूतो से पहचाना बैटी ने....



कुछ इस तरह की दुनिया समाई है उसमे। इतनी साफ और मुश्किल दुनिया के दर्शन के बाद मे अगर उसे छूओ तो हल्की-हल्की मिट्टी हवा बनकर उडती है। परत दर परत समय उसपर चडा है। एक ऐसी जिन्दगी जो कभी "जी" है इस तार इस दीवारी ने। जिसके अलग-अलग कीले अपने पर एक झलक टांगे खडी है। इस तार के साथ मे जब भी नजर पडती है तो किसी एक और कील मे फंसा हैगंर नजर आता है जिसमे कई अलग-अलग रगं की चूडियां घूसी है जिसका रगं उन पन्नो से कम नही लगता। इसको देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये वही शख़्स है जिन्हे मै रोज सुबह मे खाना टीफीन मे पैक करके देती हूं जो घर से एक नजर सुरज की तरफ मे देखते हुये निकलते है।।

लख्मी 

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