Monday, July 15, 2013

मेरी छत का पीपल

मेरी छत पर एक पीपल का छोटा सा पौधा ना जाने कहां से उग आया।
जो भी उसे देखता बस वही सकबकाया।

मां कहती है - इसे उखाड़कर फैंक दे वरना ये पूरे में फैल जायेगा।
तो पिताजी कहते हैं - तू चिंता मत कर तेरी पौधे उगाने की तमन्ना को पूरा कर जायेगा।
दादी कहती - ये भूतों का डेरा है ये तेरे घर को ही निगल जायेगा।
तो इस पर पिताजी फिर से कहते - चल इस छत के सूनेपन को खत्म तो कर जायेगा।

बच्चे कहते - पिताजी इसकी निम्बोरी को हम कंचे बनाकर खेलेगें।
तो कुछ दिनों के मेहमान कहते - भाई हमें तो छत पर बिस्तरा करदे हम तो यहीं रह लेगें।
पड़ोसी कहते - ये एक बार बड़ने लगा तो दिवारों को तोड़ देगा।
दूर से देखते लोग कहते - ये नींव तक जाकर उसकी ताकत को फोड़ देगा।
दादी फिर से कहती - बच्चों का छत पर आना बंद हो जायेगा।
ये सुनकर गली के लोग कहते - बूरी आत्माओं का रास्ता तुम्हारे के लिये खुल जायेगा।
पिताजी मगर किसी की ना सुनते "तुम सब पागल हो" बस यही लाइन हर बार बुनते।

पानी की टंकी चेकिंग करने आये सरकारी अधिकार उसे देख कुछ जरूर बोल जाते।
पानी मे काई जम रही है इससे, चालान करवाना नहीं है तो इसे यहां से हटा दे।

बारिश पड़ी तो उसकी हल्की कमजोर झड़ियां और भी हरी हो गई।
लगता था जैसे बिन मुराद के पैदा हुई लड़की बड़ी हो गई।
अब उसे जवान होने पर रोक लगाई जायेगी।
अगर वो बोलने वाले के मुताबिक नहीं रही तो वो उखाड़ दी जायेगी।

वो तो शुक्र है कि छोटा सा पेड़ अभी चार साखाओं पर ही खड़ा है।
नीले आसमान के नीचे चुल चुल पानी की लकीरों पर ही पड़ा है।

लख्मी

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