Tuesday, July 9, 2013

मेरे पापा की रिपोर्टकार्ड

बड़े भाई काफी दिनो से गाडी लेने की सोच रहे थे। जिसके लिये उन्हे अपनी महिने की तंख्या मे से कुछ-कुछ पैसा जोड़ना पड रहा था। अक्सर वो किसी मिंया-बीवी को मोटर साइकिल पर बैठे देखते तो एक चाहत सी अन्दर उमड़ पड़ती और कई सपने उसकी तरंगो मे पमपने लगते। लेकिन इतना पैसा होना शायद मुमकिन ही लग रहा था तो किसी से बात करके बैंक से लोन उठाने की कशकस मे लगे हुये थे। बड़े भाई साहब अपने सपनो को पालने के साथ-साथ एक अच्छे पिता भी है दो बच्चो के उनके प्रति वो बड़े सर्तक रहते है। अक्सर अपने बच्चो की जब भी रिर्पोटकार्ड हाथो मे आती है तो एक लम्बा भाषण बडे प्यार से दे डालते है। प्यार से भरे इन शब्दो मे इस चिकने लठ की मार शरीर पर तो नही लगती पर जहन मे और जमीर पर तो अपनी छाप जरुर छोड देती है। और लगे हाथ वो अपने बीते स्कूली दिनो की बातों और कहानियो को भी सुना डालते है। जो नसिहत के तौर पर होती है पर सुनने मे पता नही लगता कि आखिर मे क्या कहने की कोशिशे कर रहे है?  

बडे भाई साहब अपनी इन बातो मे बीते दिनो की हल्की हल्की कहानियों को चेहरे पर ला ही देते है। एक दिन बच्चो की रिर्पोट कार्ड हाथो मे लिये खड़े थे। बच्चे अपनी रिर्पोट लार्ड पर उनके हस्ताक्षर कराने के लिये लाये थे। लेकिन इन्हे खाली साइन ही नही करना था। थोडा नजर भी तो डालनी थी। ओर अगर कुछ बोला नही नम्बरो के बारे मे तो फिर पिता का रौब क्या रहा 

नम्बरो को देखते ही बोले, "ये क्या नम्बर है? बेटा अगर यही हाल रहा तो फाइनल पेपरो मे क्या हाल होगा? किसी भी पेपर मे 50 परसेन्ट से भी नम्बर नहीं है। मै क्या देखु इसे, और क्या साइन करु? अपनी मां से ही कराले। मालुम है तुम्हारी उम्र मे हम खेलने के अलावा पढाई पर भी ध्यान देते थे और मेरे नम्बर हमेशा 75 परसेन्ट से भी ज्यादा नम्बर आते थे। मेरा टीचर हमेशा मुझे आगे वाले डेक्स पर ही बिठाता था। और ये क्या है?"


इतना तो वो हमेशा कहते ही थे और हल्की सी झलक अपने बीते दिन की भी रख देते थे। मगर आज तो किसी और ही धून मे थे। जिससे  लोन की बात की थी उसने कल के लिये बुलाया था। शाम से ही अपने डोकोमेन्ट को इकठ्टा करने मे जुटे हुये थे। अपनी अटेची को जमीन पर रखे दोनो हाथो से उसमे कुछ खरोर रहे थे। उनकी बीवी भी अलमारी मे पुराने पर्स और लोकर मे लगी नीले रगं की पन्नी मे से कुछ पेपर निकाल कर देख रही थी।वहीं साथ ही बिखरे पेपरो मे बच्चे भी न जाने क्या क्या उठाकर देख रहे थे? ऐसे मे कुछ जरुरी कागजो मे कुछ वो कागज भी मिल जाते है जिनमे खाली यादें ही नही बल्की एक लम्बी जिन्दगी का हिस्सा बसा हो यानि के दस से पंद्रहा साल। सभी कागजो मे व्यसत हो रहे थे। तभी उनके लडके के हाथ बड़े भाई साहब की रिर्पोट कार्ड लग गई। वो उसे अपने हाथों मे लेकर पढने लगा पढते=पढते वो पुरे कमरे मे घूम रहा था।

हिन्दी मे 34, गाणित मे 2, अग्रेजी मे 23 जब वो इसे पढ रहा था तो सभी की नजर बडे भाई साहब पर थी और सभी हसं भी रहे थे। बड़े चाव से लडका बार-बार नम्बरो को दोहरा रहा था। मगर बड़े भाई साहब जान बूझ कर पेपरो मे खोये का नाटक कर रहे थे। इन नम्बरो और उनके चेहरे को देखकर सब सोच रहे थे कि उन बडी-बडी बातो, कहानियो ओर उन दिनो के पीछे कोन सा शख़्स था? ओर पेपरो मे खोने वाला, बाइक की चाहत रखने वाला, और इस समय रिर्पोट कार्ड के नम्बरो मे कोन सा शख़्स है?

तभी उनके लड़के ने कहा "पापा इतने कम नम्बर ये आपकी रिर्पोट कार्ड है? तो वो उससे छीनते हुये बोले, "अरे ये तो बहुत पुरानी है।।।


लख्मी

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