Wednesday, October 2, 2013

एक ऐसा एंकात भी

कभी पागल सी कोई नज़र मुझे छू ले। तो मैं गायब हो जाऊं। सब से हट कर मेरे मन में जब शरारत से भरी कोई धूली हुई सी बात आती है, तो लगता है अब थोड़ा बैठ जाना चाहिये।

क्योंकि ये चेहरा रोजाना के तीखे-फिके नक्शों को देखकर जब अपनी ताज़गी को समटने लगता है तो वो छाँटने लगता है अपने लिये राख मे से कुछ मुमकिन लम्हें। उसके बाद ही मेरी कल्पनाओं को टटोलती मेरी भूख इत्मिनान पाती है।

जब किसी कोने में अपने मन में बसे विचारों को जीने का समय मिलता है। काम से फ्री होकर पाबन्दी की  दुनिया से निजात पाकर। अपने लिये समय से फिर रिश्ता बनाना पड़ता है।

सिक्योरिटी के काम से एक ही ढ़ंग में खड़े-खड़े जीभ प्यास से सूखती है जब थकान हावी हो जाती है मगर उसमें भी नज़र चुराकर शरीर और दिमाग को सपनों से जोड़ना पड़ता है।

उसमें जब काम का समय पूरा हो जाता है और दुनिया की सवालिया नज़रो से हम दूर हो जाते हैं। तब एकान्त मिलता है जिसमें बैठकर खुद को भी सुनने में तखलीफ न हो।

राकेश

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