Friday, November 8, 2013

समय के बहाव

समय के बहाव के समाने खड़ी परछाई इस सोच में है कि इसके बहाव को किस तरह चीरती हुई निकलूं, किस तरह इसके बहाव से अपने बहाव की तेजी मापू, इसके बहाव में बहे बिना कैसे इसके साथ रहूँ - गुजरता हुआ बहाव उसके अन्दर के समय को अपनी ओर खींच रहा है और वो भी अपने समय से उस बहाव के सम्मुख खड़ा है। एक जद्दोजहद में, वे इसकी गिरफ्त में नहीं है और न ही इसके विपरित, वे उस क्षणिक समय के गठन से खुद को ताज़ा किये है जो उसने खुद निकाला है, जो उसका है, जो उसे किसी ने नहीं दिया, उसने खुद चुना है। जो तेजी उसके सामने से गुरती हुई उसके लिये कुछ ठोस आहार तैयार करती जा रही है वे उसके लिये नहीं बना, वे बराबरी करता है।

समय की इस तेजी में वे कहीं खो ना जाये की भूख उसे मौजूद रखती है। जो वे खुद से चुनना चाहती है। मौजूदगी उसके होने से है, उसकी हरकत से है, उसके कंपन से है, उसकी कल्पना से है या उसके इस बहाव के सामने खड़े होने की जूस्तजू से है। चीज़ें घनी और बड़ी होने का उसे भी अहसास है, वो अपने को लपेटे जाने से वाकिफ है, समय के भीतर होकर खुद को पुर्नरचित में सोचने की कोशिश करती है, जो बहाव और नये गठन की मांग में है। समय को रचने वाला कोन होगा? वे खुद से पूछती है। बिलकुल उस शख्स की तरह जो अपने घर की खिड़की पर खड़ा शहर को देख रहा है। शहर की बनावट, घनत्वता और तीव्रता जो उसके सामने बन रही है वे उसकी सोच में भी उतनी ही तीव्रता लिये है। उसकी सोच और सामने बनता शहर दोनों अलग नहीं है।

लख्मी

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